घुमई को चलने में दिक्कत है, वर्ना वे पूरी तरह स्वस्थ हैं। “भगवान ई शरीर सौ साल जियई बदे बनये हयें (भगवान ने यह शरीर 100 साल जीने के लिये बनाया है)।” यह कहते हुये जीवन के प्रति उनका प्रबल आशावाद झलकता है।
घुमई अपने घर के पास हाईवे की सर्विस लेन के पैदल प्लेटफार्म पर बैठे मिले। रोज वे दिख ही जाते हैं। कभी धीरे धीरे एक एक कदम बढ़ाते, हाथ में एक पतली लाठी लिये घूमते हुये और कभी अपने घर के पास सर्विस लेन के प्लेटफार्म पर बैठे हुये। मैं फोटो खींचने लगता हूं तो वे अपना हाथ नमस्कार की मुद्रा में ले आते हैं। आज उन्हें कहना पड़ा कि सामान्य रहें, हाथ न जोड़ें।
गोल हंसता चेहरा। कमीज और लुंगी। जेब में चश्मा – शायद पढ़ने के लिये इस्तेमाल करते हों, वर्ना लगाये देखा नहीं। साथ में एक चारखाने वाला गमछा और पतली लम्बी लाठी – यह उनकी सामान्य ड्रेस है। मैंने इसी में देखा है उन्हें।

आज घुमई से लम्बी बातचीत की। उन्होने उम्र बताई – करीब सत्तर साल। घर से कटका पड़ाव तक एक एक कदम रखते हुये घूम आते हैं। चलने में दिक्कत है, वर्ना वे पूरी तरह स्वस्थ हैं। “भगवान ई शरीर सौ साल जियई बदे बनये हयें (भगवान ने यह शरीर 100 साल जीने के लिये बनाया है)।” यह कहते हुये जीवन के प्रति उनका प्रबल आशावाद झलकता है।
घुमई ने बताया कि छ सात साल पहले किसी ने ठोकर मार दी थी। सिर में चोट लगी। लम्बा घाव हुआ। वे अपना सिर दिखाते हैं जिसपर आज भी घाव का निशान है। “शरीर क सब खून निचुड़ि गवा। ओही के बाद चलै में दिक्कत होई गई (शरीर का सब खून निचुड़ गया। उसी के बाद चलने में दिक्कत होने लगी।)” बताते हैं कि वैसे याददाश्त और सोचने-समझने-बोलने में कोई दिक्कत नहीं है। सिर्फ चाल में परेशानी आ गयी। पर उस चाल की परेशानी को ले कर कोई ग्रंथि बन गयी हो, मन में वैसा नहीं लगता। ईश्वर में आस्था इस स्थिति में सम्बल है। कहते हैं – जाही बिधि राखे राम ताही बिधि रहिये।

वे शायद दार्शनिक भाषा न इस्तेमाल करते हों, पर कर्म और समर्पण के सिद्धांत को गहरे से समझ गये हैं घुमई।
अपने जीवन के बारे में बताते हैं घुमई। इण्टर पास किये तो सन सत्तर में बम्बई चले गये। वहां दो साल ऑटो के नटबोल्ट बनाने वाली फैक्टरी में काम किये। उस जमाने में आठ घण्टे काम करने की दैनिक पगार 2 रुपया थी। दो साल बाद सन 1972 में वापस यहीं आ गये और औराई की चीनी मिल में नौकरी किये। वहीं से रिटायर हुये। अब पेंशन मिलती है – नौ सो पैंसठ रुपया महीना।
उन्हें कहीं से पता चला है कि मोदी सरकारी और कोऑपरेटिव से रिटायर लोगों को पैंशन देने जा रहे हैं – साढ़े सात हजार महीना। “अखबार में भी रहा और टीवी पर भी। अब देखें कब से लागू होता है।” – घुमई के बताने में एक आस दिखती है। चूंकि मुझे इस स्कीम के बारे में कुछ पता नहीं है, मैं केवल घुमई की बात सुन भर लेता हूं।
घर परिवार से घुमई को कोई तकलीफ नहीं है। एक बेटी है जो अपने ससुराल है। दो लड़के हैं। बड़ा जयपुर में नौकरी करता है किसी कार्पेट की कम्पनी में। वह उस कम्पनी में है और घुमई का नाती भी। दूसरा लड़का गांव में रह कर खेती देखता है। जो होता है, वह संतोषप्रद है। कोई पद (शायद कबीर का) कहते हैं, जिसके अंत में है ‘हरि को भजे सो हरि का होई”।
मैंने उनका नाम पूछा। बताया – “नाम है उमाशंकर यादव। कहते हैं घुमई यादव। लोग घुमई के नाम से ही पुकारते हैं।”
कुल मिला कर अस्था, संतोष और परिथितियोंंको स्वीकार कर अपना कर्म करते रहना – यह घुमई के जीवन में बहुत स्पष्ट दिखता है।
सवेरे की साइकिल सैर की वापसी में घुमई अपनी कमीज उतार कर नहाने के लिये तैयार दीखते हैं। हाथ दिखा कर बताते हैं कि इसी जगह दातुन करेंगे और फिर स्नान। आठ बजने वाले हैं। भ्रमण, प्लेटफार्म पर सुस्ताना और फिर दातुन-स्नान – यह उनकी सवेरे की दिनचर्या समझ आयी।

हम व्यर्थ की आशंकाओं, चिंताओं में ग्रस्त रहते हैं। घुमई सिर की चोट, चलने फिरने में तकलीफ और गांव की जिंदगी के अन्य कष्टों के बावजूद प्रसन्न और आशावाद से सराबोर दिखते हैं। उनसे सीखा जा सकता है, बहुत कुछ!

घुमई सोशल मीडिया के लिये अपरिचित चेहरा नहीं हैं। उनपर 3 अगस्त को यह ट्वीट भी है! 😀
घुमईजी के प्रसन्नचित्त चित्र गाँव के सुखी जीवन के विज्ञापन हो सकते हैं। विदेशिये तो शहर के किसी भिखारी को दयनीय फोटो उतार पूरे देश का चित्रण कर डालते हैं।
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घुमई वास्तव में संक्रामक प्रसन्न्ता वाले जीव हैं.
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जी सचमुच घुमई जी से काफी कुछ सीखा जा सकता है।
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