जैतूना से बदामा खातून – मनिहारिन की पीढ़ियाँ

मनिहारिन/चुड़िहारिन का पेशा अभी भी गांव में जिंदा है और पीढ़ियों से महिलायें उस काम में लगी हैं। पांच अप्रेल को मैंने नूरेशाँ मनिहारिन के बारे में एक स्टेटस पोस्ट लिखी थी। अब मेरे घर पर बदामा मनिहारिन दो बार आयी है।

Maniharin
दऊरी उठाये महिहारिन

मेरी पत्नीजी के बचपन में जैतूना खातून आया करती थी। वह सीधे घर के आंगन में जाती थी – जनानखाने में। उसे घेर कर सभी महिलायें, लड़कियां आसपास इकठ्ठा हो जाती थीं। सभी को चूड़ी पहनाती थी। उनके मांग के अनुसार लिपिस्टिक, स्नो (क्रीम) आलता-सिंदूर-ईंगुर, बिंदी, आईना, पाउडर आदि दिया करती थी। फीता या लाल रिबन का चलन था। काला परांदा भी बिकता था। घण्टा डेढ़ घण्टा मजमा लगता। दाम चुकाने में रुपया पैसा तो चलता ही, अनाज के साथ बार्टर भी होता था।

मनिहारिन-चुड़िहारिन का लोक संस्कृति में बड़ा स्थान था।

मुझे अच्छा लगा कि वह स्थान अब भी कमोबेश कायम है। बदामा मनिहारिन ने बताया कि जैतूना उसकी अजिया सास थीं। इसका मतलब कम से कम तीन पीढ़ी से उसके परिवार की महिलायेंं इस व्यवसाय में हैं। बदामा विधवा है। नूरेशाँ भी विधवा थी। बदामा बताती है कि उसका आदमी अठारह साल पहले गुजर गया था। उसकी जेठानी भी विधवा है और इसी तरह मनिहारिन का काम करती है। मुझे याद नहीं रहा नूरेशाँ के बारे में अपनी पुरानी पोस्ट का अन्यथा पूछता कि वही तो नहीं है इसके जेठानी। वह भी अपने को वहीं – महराजगंज के आसपास का बताती थी।

नूरेशां मनिहारिन
नूरेशाँ मनिहारिन

नूरेशां और बदामा – दोनो में कई समानतायें हैं। दोनो महिलाओं के सामान का सेगमेण्ट डील करती हैं। दोनो महिलायें हैं तो उनसे महिलायें सहजता से बातचीत करती हैं। कुछ सामान – जैसे सेनिटरी पैड्स या अण्डरगारमेण्ट्स – जो महिलायें अभी भी गांव/कस्बे के जनरल स्टोर्स से लेने में झिझकती-शर्माती हैं उन्हें ये सहजता से उपलब्ध करा देती हैं। बदामा ने बताया कि वह सेनीटरी पैड्स ला कर देती है। कीमत पैंतीस से ले कर सत्तर रुपये तक होती है। गांवदेहात में भी, उत्तरोत्तर सेनीटरी पैड्स का प्रयोग बढ़ रहा है। सरकार अगर महिलाओं का सशक्तीकरण करना चाहती है तो उसके फुट-सोल्जर ये मनिहारिनें हो सकती हैं जो हाइजीन की बातें महिलाओं से करें और उन्हें सेनीटरी पैड्स के प्रयोग को प्रेरित करें।

बदामा मनिहारिन
वाणी पाण्डेय ने आसपास की तीन चार महिलाओं – बच्चियों को बुला कर उन्हें अपनी ओर से चूड़ी पहनवाई। मनिहारिन बदामा है।

मेरी बिटिया वाणी पाण्डेय आयी हुई है। वह बोकारो में एक महिला सशक्तीकरण ग्रुप – साथ फाउण्डेशन का काम देखती है। उसने आसपास की तीन चार महिलाओं – बच्चियों को बुला कर उन्हें अपनी ओर से चूड़ी पहनवाई। पैर में काला धागा, जिसमें नकली मोतियां लगी होती हैं और जिसे बच्चे, महिलायें नजर न लगने के लिये पायल की तरह पहनते हैं; ‘काला धागा नजरिया वाला’ कहा जाता है; वह भी (उनकी फरमाइश पर) पहनवाया। छोटे शिशुओं के लिये ये मनिहारिने करधनी भी बेचती हैं।

बदामा के दो लड़के सूरत में काम करते हैं। सरिया ढलाई (?) का काम करते हैं। घर का खर्चा बदामा अपने बल पर चलाती है। चूड़ी, कंगन, क्लिप, आलता, ईंगुर सिंदुर, बिंदी, अण्डर गारमेण्ट्स आदि लिये चलती है अपनी दऊरी में। ग्राहक उसके महिलायें किशोरियाँ ही हैं। बता रही थी एक मरसेधू उससे सेफ्टी रेजर पूछ रहा था। वह मना करने पर पत्ती (ब्लेड) पूछने लगा। उसका मनचलापन देख कर बदामा में जवाब दिया – “तोहरे बदे कुच्छो नाहीं बा। तूं जा महामाई के (तुम्हारे लिये कुछ भी नहीं है, तुम्हें महामाई – संक्रामक बीमारी – खायें!)!”

बदामा मनिहारिन - मनिहारिनों की समाज में आदर इज्जत पहले भी थी, अब भी है।
बदामा मनिहारिन – मनिहारिनों की समाज में आदर इज्जत पहले भी थी, अब भी है।

आजकल लड़कियों महिलाओं की पसंद में पहले से अंतर आया है। अब रिबन या परांदा नहीं बिकता। अब लड़कियां रबर बैण्ड मांग करती हैं। बुकनी की मांग कम हो गयी है। कान नाक में बुंदे पहनने वाली महिलायें भी अब नहीं हैं। अब सेनीटरी पैड्स, रुमाल और अण्डर गारमेण्ट्स बिकते हैं। नकली मोतियों की माला, सस्ती ज्वैलरी, काजल के पेंसिलें बिकती हैं। अब महिलायें घर के जनानखाने में, आंगन में नहीं बाहर ओसारे में भी बैठक लगाती हैं। आंगन का कॉन्सेप्ट उत्तरोत्तर खतम होता जा रहा है।

मेरी पत्नीजी बताती हैं कि पहले चूड़ी पहनाये जाने पर वे मनिहारिन की दऊरी को धरती छू कर प्रणाम करती थीं। ज्यादातर उनके पास पैसा नहीं होता था, वे बदले में अनाज देती थीं। अब वह प्रणाम करना या अनाज से बार्टर करना खत्म हो गया है। पर मनिहारिनों की समाज में आदर इज्जत पहले भी थी, अब भी है।

गांव में तरह तरह के फेरीवाले मुझे दिखते हैं। तरह तरह का फेरी का नये प्रकार का बाजार बढ़ा है। कोरोना लॉकडाउनके दौरान वे कम दिखते थे, पर अब तो बहुत से दिखते हैं। उनके बीच यह मनिहारिन सेगमेण्ट बहुत अर्से से चल रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। बदामा की अगली पीढ़ी भी इस बिजनेस में तैयार होगी, इसकी आशा और यकीन है।

Bangles
मनिहारिन की दऊरी का सामान

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “जैतूना से बदामा खातून – मनिहारिन की पीढ़ियाँ

        1. दुकानें थी, बहुत जमी हुई, दो दुकानें जो हमारे मोहल्‍ले में थी, बहुत फेसम थी, फाता की और गफूरकी की दुकानें। अब समाप्‍त हो गई हैं। मनिहारी के सामान की बड़ी दुकानें हो गई हैं। टीवी तय करता है कि कौनसा फैशन चलेगा।

          कुछ नकारात्‍मक बात यह है कि चाहे बीकानेर में हो या विक्रमपुर में, ऐसे बहुत से व्‍यवसाय मुस्लिम संप्रदाय के लोगों के पास ही क्‍यों हैं। तीन पीढ़ी से वह आपके घर आंगन में आ रहे हैं, उससे पहले कौन आता था, कहां गए वो लोग, कन्‍वर्ट भी हुए तो कैसे हुए, बाकी कैसे बचे और केवल यही कन्‍वर्ट कैसे हुए? कन्‍वर्जन के बाद भी ब्राह्मणों के आंगन तक उनका प्रवेश कैसे रहा ??

          अन्‍यथा मत लीजिएगा, बस सोच ही रहा हूं, बहुत से कारण और परिस्थितियां बनी होंगी, आज उनके बारे में बस अनुमान ही किया जा सकता है।

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        2. सबसे पुरानी याद मुझे अपने बचपन की है. नानाजी के यहां आने वाली मनिहारिन की. और वह मुस्लमानिन ही थी. 60 साल पहले की बात होगी. फिरोजाबाद में कांच का सामान बनता है. वहां भी मैंने मुस्लमान ही देखे.
          यही हाल बनारसी साड़ी बुनकरों का है. मुहल्ले के मुहल्ले उन्हीं के हैं. सेठ जरूर हिन्दू हैं जो साड़ी व्यवसाय में हैं.
          जाति और धर्म का प्रभुत्व कई वर्गों और कामों में दिखता है.

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