ऋचा भट्ट बडोला की पाइन इन द टेल

ऋचा भट्ट बडोला की पुस्तक ‘पाइन इन द टेल‘ अंतत: मैंने पढ़ ही ली। ऋचा जी से परिचय ट्विटर पर हुआ था। उस परिचय के पहले मैं पहाड़ की जिंदगी पर सर्च करते हुये उनकी इस पुस्तक से परिचय पा चुका था और उसका अंश किण्डल पर डाउनलोड भी कर चुका था। यह बहुत पहले की बात है – साल भर से ज्यादा हो गया होगा। नॉन-फिक्शन या ट्रेवलॉग होता तो मैं पूरी पुस्तक खरीद कर पढ़ गया होता। पर पिछले कई दशकों से कहानियाँ नहीं पढ़ीं। या यूं कहूं कि मुंशी प्रेमचंद के बाद कहानी पठन की रुचि विकसित नहीं हुई।

पाइन इन द टेल का कवर स्क्रीनशॉट

शायद मैं बहुत ‘इमोशनली अनस्टेबल’ जीव हूं। कथा के साथ बहने लगता हूं। उसके पात्र मन में अंदर तक घुस जाते हैं। और वे, अगर पूर्णत: हास्य या सटायर न हुआ तो, बहुत व्यथित करते हैं। कभी कभी आंसू भी आने लगते हैं। पात्र जो काल्पनिक हैं, में जीना बहुत कष्टप्रद होता है। यही कारण है कि दशकों से मैंने फिल्में नहीं देखीं और उपन्यास या कहानी नहीं पढी।

सो ऋचा जी की पुस्तक (जो कालांतर में किण्डल पर मुफ्त में मिल गयी और 7 अप्रेल 2021 को मैंने डाउनलोड की थी) मैं अर्से से पढ़ने का प्रयास करता रहा। कतरा कतरा पढ़ी। छूट भी गयी बीच बीच में। अंतत: कल मैंने समाप्त की। कुल आठ कहानियां हैं। गढ़वाल की मिट्टी की महक है उनमें। गढ़वाली अंचल की गरीबी, पलायन, धर्मपरायणता, बदलते जीवन मूल्य, लोगों में सरलता और समय के साथ आते परिवर्तन सब हैं। अंतिम कहानी – ‘टच मी नॉट’ में तो मेरी तरह का रीवर्स माइग्रेशन भी है एक कर्नल हरिदत्त का!

मैंने सोचा था कि ऋचा एक नितांत शहरी जीव होंगी और उनकी गांवदेहात की समझ, हद से हद, सतही ही होगी। पर एक एक कहानी खत्म करने पर यह अहसास पुख्ता होता गया कि ऋचा में जो अंचल की समझ है वह ठोस और गहरी है। उनकी कहानी बुनने की क्षमता, सरल साधारण में भी कथा के सभी अनिवार्य तत्व सूंघ कर सशक्त भाषा में उकेरना प्रशंसनीय है।

उनकी पुस्तक पढ़ने पर मुझे एक व्यक्तिगत लाभ हुआ है। मेरे ब्लॉग पर मेरे अंचल के कई पात्र आने को कुलबुलाते हैं। पर उनमें बहुत कुछ विवादास्पद है। उनके बारे में कई पोस्टें आधी अधूरी लिख कर अंतत: मैंने ‘ट्रेश बिन’ में डाली हैं। ऋचा जी की कहानियों को पढ़ कर यह गहरे से महसूस किया कि मुझे चरित्रों, घटनाओं और वातावरण को जस का तस रखने की बजाय कथा या उपन्यास विधा का सहारा लेना चाहिये। यह सोच मन में पैठना “पाइन इन द टेल” पढ़ने के कारण ही हुआ है। इसके अलावा कथा और उपन्यास साहित्य पढ़ने के प्रति एक लगाव – जो बचपन या किशोरावस्था के साथ ही प्राय खत्म हो गया था – वह पुन: प्रारम्भ करने का मन बना है।

ऋचा भट्ट बडोला – चित्र जैसा ट्विटर पर है।

आज गुडरीड्स की साइट डाउन है। उसपर मैं अपनी पुस्तक रेटिंग नहीं पोस्ट कर पा रहा। अमेजन पर मैंने इसे पांच में से पांच रेट किया है। ऋचा से परिचय न होता, तो भी मैं निरपेक्ष भाव से, इसे चार से पांच के बीच ही रेट करता। मुझे अगर ऋचा की कहानियां अपनी कलम से लिखनी हों तो एक दो में अंत बदलना चाहूंगा। पर शायद मेरी वह सोच गढ़वाल की आंचलिकता – जिसकी समझ ऋचा बडोला को निश्चय ही सशक्त है – से तालमेल न रखे। वह शायद बेकार में गढ़वाली और पूर्वांचली आंचलिकता का बेमेल फ्यूजन हो जाये! लिहाजा, पाइन इन द टेल वैसी ही रहनी चाहिये, जैसी है! एक एक कहानी पढ़ने-सोचने को बहुत कुछ देती है।

गुडरीड्स पर रेटिंग देने का अवसर आयेगा तो मैं पांच में से पांच ही दूंगा। पुस्तक रिव्यू लिखना मुझे आता नहीं सो इसी ब्लॉग पोस्ट को रिव्यू माना जाये।

ऋचा भट्ट बडोला को शुभकामनायें!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

7 thoughts on “ऋचा भट्ट बडोला की पाइन इन द टेल

  1. अमित जोशी ट्विटर पर –
    मुझे प्यारे मेरे पहाड़ । रिवर्स माइग्रेट होने की तैयारी में जुटा हुआ मेरा मन और आपका ब्लॉग । ये किताब जल्द ही अमेज़न से आर्डर करता हूँ

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  2. आपकी समिछा देखकर इस किताब को पढ़ने का मन हो रहा है।कुल कितने पृष्ठ की है?

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  3. आंचलिक कहाँनियाँ और उनके चरित्र अभी लोग जानते ही कहाँ हैं। पुराने पात्रों का स्थान नये पात्रों ने ले लिया है। आपके ब्लॉग में में बहुधा पाये भी जाते हैं। आपको अपनी कहानी सी लगी अतः अच्छी लगी।

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      1. कतई देर मत कीजिए। इसे भी आजमा ही डालिए, नहीं तो यह जो भाव मन में आया है उसे तिरोहित होने में देर नहीं लगेगी क्योंकि आपके मस्तिष्क को आकर्षित करने के तमाम दूसरे विषय और विधाएं भी हैं। :)

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