कबूतरों और गिलहरियों का आतंक

घर में गिलहरी और कबूतरों की संख्या बढ़ी है। और भी जीव बढ़े हैं। बुलबुल, मैना, मुनिया और इण्डियन रॉबिन – ये भी बहुत आने लगे हैं। पर कष्ट केवल कबूतरों और गिलहरियों से है।

गिलहरी मेरे घर से छोटे कपड़े चुरा ले जाती है। घोंसला बनाने के लिये उन्हें उधेड़ कर उनके रेशे इस्तेमाल करती है। दो मोजे चुरा चुकी है। एक एक पैर के दो मोजे। बचा हुआ एक पैर का मोजा किसी काम का नहीं। पर वह भी रख देने पर उसे नहीं ले गयी। दूसरे कपड़े चुराने में व्यस्त हो गयी।

गेंहू धो कर सुखाने में खाट पर चढ़ कर सभी जीव अपना हिस्सा ले लेते हैं। पर गिलहरी ज्यादा ही ढीठ है। वह जितना खाती है, उससे ज्यादा खटिया से जमीन पर गिरा कर बरबाद करती है।

गेंहू धो कर सुखाने में खाट पर चढ़ कर सभी जीव अपना हिस्सा ले लेते हैं। पर गिलहरी ज्यादा ही ढीठ है। वह जितना खाती है, उससे ज्यादा खटिया से जमीन पर गिरा कर बरबाद करती है। एक बार में दर्जन भर गिलहरियों को गेंहू पर हमला करते देखा है। उन जीवों के लिये दिन में दो तीन बार अन्न डाला जाता है। पर इस गेंहूं को खाने-बरबाद करने में जाने क्या मजा आता है उन्हें।

यह लगने लगा कि बिजली के मीटर के केस पर रैट किल वाला गोंद बिछा दिया जाये या एक छर्रे वाली बंदूक खरीद कर एक दो कबूतर मार कर लटका दिये जायें। पर बाभन संस्कार ने वे हिंसावादी विकल्प खारिज कर दिये।

पक्षियों के लिये जो सवेरे दाना रखा जाता है; उसको कबूतर ही कुटुर कुटुर आवाज करते हुये ज्यादा खाते हैं। बड़ी तेजी से। उनके खाने पर आपत्ति नहीं है; पर वे बाकी सभी पक्षियों को भगा देते हैं। दो कबूतर पर्याप्त हैं बाकी जातियों के पक्षियों और गिलहरियों को भगाने में। उनमें से एक गप्प गप्प खाता है और दूसरा बाकी सभी प्रकार के पक्षियों को भगाता है। पूरे तालमेल से आतंक मचाते हैं। अपने से बड़े पक्षी – मसलन कव्वे को – भी भगा देते हैं।

Photo by Genaro Servu00edn on Pexels.com

बिजली के मीटर और स्विचबोर्ड के पास अपना घोंसला बनाने के लिये गिलहरी ने अड्डा जमाया और बिजली के तार काट डाले। एक बार तो घर भर की बिजली गुल हो गयी। ठीक करने वाले को बुलाया तो पुन: वायरिंग करनी पड़ी।

गिलहरी से बचाव के लिये बिजली के उपकरणों को एक जालीदार केस से सुरक्षित किया। उनका का वहां जाना बंद हुआ, पर उस केस के ऊपर जगह बन गयी जिसपर कबूतर आ कर बैठने लगे। दिन भर उनकी आवाज और पंखों की फड़फड़ाहट मनहूस लगते लगी। और चिड़ियां तो मधुर गाना गाती हैं पर कबूतर की आवाज अच्छी नहीं लगती। उनको हटाने के लिये उस जगह थर्मोकोल के खाली डिब्बे भर दिये। पर थर्मोकोल का वह स्पेस गिलहरी को पसंद आ गया। वह उसमें काट काट कर अपना घर बनाने लगी। उसके द्वारा कुतरा थर्मोकोल पूरे पोर्टिको मेंं फैलने लगा। सो थर्मोकोल निकाल कर फैंका।

थर्मोकोल हटाने से गिलहरी आना बंद हो गयी पर कबूतर फिर बैठने लगे। उनकी मनहूस आवाज और दिन भर होने वाले शोर से मन आजिज आ गया। यह लगने लगा कि बिजली के मीटर के केस पर रैट किल वाला गोंद बिछा दिया जाये या एक छर्रे वाली बंदूक खरीद कर एक दो कबूतर मार कर लटका दिये जायें। पर बाभन संस्कार ने वे हिंसावादी विकल्प खारिज कर दिये। 😆

फैंसिंग के लिये मंगाये कंटीले तार का एक बण्डल बचा रखा है। उस बंडल को खोज कर निकाला गया और उस जगह पर, जहां कबूतर बैठते हैं, अड़ा दिया।

फिर अचानक ध्यान आया कि घर में फैंसिंग के लिये मंगाये कंटीले तार का एक बण्डल बचा रखा है। उस बंडल को खोज कर निकाला गया और उस जगह पर, जहां कबूतर बैठते हैं, अड़ा दिया। कल शाम यह उपक्रम किया – पत्नीजी और वाहन चालक गुलाब चंद्र के साथ। तब से आज सवेरे तक कबूतर नहीं आ रहे। लगता है जुगाड़ काम कर जायेगा। पर पक्का नहीं कह सकते। कबूतर और गिलहरी के साथ “डाल-डाल पात-पात” वाला समीकरण रहा है आज तक। पिछले छ साल में दोनो प्रजातियों की पॉपुलेशन में दस गुना वृद्धि हुयी है। कभी कभी लगता है कि हमें धकेल कर वे ही घर पर कब्जा कर लेंगे।

कबूतर और गिलहरियों के आतंक के साथ एक सतत और लम्बी जंग लड़नी होगी। अगर हम नॉनवेजिटेरियन होते तो यह लड़ाई बड़ी जल्दी जीती जा सकती थी। पर शाकाहारी होने के कारण हमारा आत्मविश्वास पुख्ता नहीं है। आप ही बतायें, यह जंग हम जीत पायेंगे? घर हमारा रहेगा कि उनका हो जायेगा? 😆

Photo by Samuel Sweet on Pexels.com

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

14 thoughts on “कबूतरों और गिलहरियों का आतंक

  1. पंडित जी,जीवों को भी सहारा दीजिए/अच्छा है आपकी कमाई का कुच्छ भाग इसी बहाने धर्म के खाते मे जा रहा है/ देने वाला है ऊपरवाला और लेने वाले है हम सब,” जीवै जीव आहारा ” इसे याद रखिए

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    1. आप सही कह रहे हैं बाजपेई जी। एक हिस्सा आमदनी का उनके लिये होना ही चाहिये।

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  3. आलोक जोशी, ट्विटर पर – मैंने एक लेख में कहीं पड़ा था की काले रंग की पॉलीथिन में कुछ हल्की सी वस्तु रखकर उसे कबूतर बैठने की जगह पर लटका दिया जाए तो कबूतर किसी जानवर की आशंका और डर के चलते उस जगह पर बैठना छोड़ देते हैं। उक्त महाशय को इस प्रयोग से सफलता मिली थी। आप भी आजमा कर देख लीजिए..😊

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  4. जब मैं दार्जीलिंग में था तो वहाँ बाग़डोगरा airport के पास एक जगह है बेंगडूबी,वहाँ आर्मी का बड़ा area है और उनके रहने का बहुत बड़ा area है।वहाँ हाथी समूह में आते थे और घरो के कीचेन के खिड़कियों को सूँड़ से निकाल देते और खाना आटा वग़ैरह निकाल कर खाते थे।
    उनके जाने के बाद सरकार छतीपूर्ति के रूप में पैसे देती थी,कुछ लोगों का ५००० का नुक़सान हो तो २५००० क्लेम कर देते थे।
    कई लोग आग दिखाकर या firing करके डराने की कोशिश करते तो जान भी धोनी पड़ी,क्योंकि वो हाथिया दौड़ाकर मार देती थी।

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    1. मुझे लॉरेंस एंथोनी की क्लासिक पुस्तक – The elephant whisperer – My life with the herd in the African Wild याद हो आयी। गजब पुस्तक है!

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  5. आपके यहाँ इनका आतंक है तो मेरे यहाँ औराई में बंदर,नेवला और चूहों का आतंक चल रहा है। सुना है कई साल पहले कोई एक ट्रक से काफ़ी बन्दर छोड़ दिया था।

    आपकी बात बिलकुल सही है इनसे कोई जीत नही सकता। यहाँ शिकागो में भी गिलहरीया आती हैं फिर सारे चिड़ियों को और ख़रगोश को भगा देती हैं।
    बेचारे ख़रगोश भी डर के मारे भग लेते हैं,२ वर्ष पूर्व ख़रगोश ने मेरे पैटीओ में घर बनाया था और कई बेबी हुए थे,लेकिन पिछले साल इन्होंने उन सबको भगाया और खुद बेबी दिये।

    समरथ के नहि दोष गोसाईं। 😀

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    1. आपके पक्षी और जंतु प्रेम पर एक पोस्ट लिखना शेष है! जल्दी ही लिखने का प्रयास करूंगा। 🙂

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  6. ब्रूस वायने (जय सिन्ह) ट्विटर पर – यह युद्ध जीतना सम्भव नहीं है…. ये उनकी दुनिया है और हम लोग अतिक्रमणकारी हैं . हम नॉनवेजेटेरीयन हो कर भी यहाँ बॉम्बे में कबूतरों के ख़िलाफ़ एक हारी हुई जंग लड़ते रहते हैं लेकिन हताशा के अलावा कुछ नहीं मिलता. 😂😂
    ज्ञानदत्त – Haha 😂. 24 घंटे हो गए और कबूतर मेरे पोर्टिको में नहीं आए. और एक बुलबुल तुलसी के झाड़ में घोसला बनाने लगी.
    कबूतरों की दादागीरी नहीं चलनी चाहिए. 😊

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  7. Twitter पर संवाद –
    दीपक पटेल
    – असल सवाल ये है की आतंकी कौन है यहाँ? आप सुविधा के लिए कर रहे हैं और वो सर्वाइवल के लिए।
    ज्ञानदत्त – आतंकी शायद कबूतर और बबूल जैसे हैं जो अपने अलावा अन्य पक्षी, वनस्पति आदि को पनपने नहीं देते.
    शायद इस लिए कह रहा हूं, कि मैंने अपनी सोच को पुख्ता नहीं किया है.
    दीपक पटेल – शायद वैसे ही जैसे इंसान अपने अलावा किसी भी और चीज़ को पनपने नहीं देता। इस Cycle में भी हम सबसे ऊपर हैं।

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  8. राज भाटिया, फेसबुक पेज पर –
    मेरे पोधो को काले रंग की चिड़या गमलो से मिटटी खोद खोद के खराब कर देती थी , आधे से ज्यादा पौधे ख़राब कर दिए , अब सारा दिन कैसे हिफाजत करते पोधो की , एक दिन दिमाग में आया , तो एक कुर्सी पोधो के पास दीवार से सटा कर रख दी , कुर्सी की टांगो में पुरानी जींस , और पीठ वाली जगह पर पुरानी टीशर्ट पहना दी , नीचे जुते भी रख दिए , सर की जगह खूब सारे कपड़ो को लपेट कर सर बना दिया , उस पर टोपी पहना दी , बस उस दिन के बाद चिड़ाओ ने आना बंद कर दिया , आप भी कुछ ऐसा करे.

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  9. हम ठहरे बंगाली, शाकाहार मासाहार सब कुछ हमारे यहाँ चलता है, परन्तु यह जंग हम भी जीत नहीं पाए थे। फिर ऐसा भी हो गया कि गेहूँ धोकर पिसवाने वाला वर्कफ़्लो बदलकर हमलोग पैकेट का आटा खाने लगे, तो कम से कम गेहूँ पहरा देने के काम से निजात मिला। दिन में दस बार दाना डालो, सब खा जायेंगे कबूतर आकर, गौरैया वगैरह को तो खाने ही नहीं देंगे, और फिर गिलहरियाँ ? एकदम हाय तौबा मचा रखी थीं । बालकनी में मधुमखियों ने छत्ता बनाया, तो उस पर भी चढ़कर गिलहरियाँ छत्ते से छोटे छोटे टुकड़े नोच के दोनों हाथ में थाम के शहद चूसती थीं। टोटल टेरोरिस्ट हैं ये सब।

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