अप्रेल शुरू हो गया। आज ज्यादा ही दिखे बच्चे महुआ बीनते। महुआ टपकना तो सप्ताह भर पहले शुरू हो गया था; अब तेजी आ गयी है। पहले इक्का दुक्का बच्चे दिखते थे महुआ बीनने में लिप्त। अब झुण्ड के झुण्ड सवेरे सवेरे काम पर लग जाते हैं।
जब सर्दी थी, स्कूल कोरोना के नाम पर बंद थे तो बच्चे दिन भर एक एक बोरी थामे सूखी पत्तियाँ और टहनियां बीनते थे। फिर स्कूल खुल गये तो सभी यूनिफार्म पहन कर स्कूल जाने लगे। यूनीफार्म का पैसा तो अभिभावकों के अकाउण्ट में सीधे आया होगा; सो यूनिफार्म तो खरीदी नहीं गयी होगी। एक साल पहले वाली ही पहन रहे होंगे बच्चे। अब महुआ का सीजन आने के साथ साथ स्कूल जाना फिर रुक गया। बच्चे अब महुआ बीनने में व्यस्त हो गये हैं।

स्कूल की अहमियत यूनीफार्म, जूते, मिड डे मील जैसी चीजों के लिये है। उसके साथ कुछ पढ़ना आ जाये तो वह बोनस। अन्यथा पढ़ाई में न बच्चे उत्सुक हैं, न अभिभावक और न स्कूल के अध्यापकगण। स्कूल की रंगाई पुताई और फर्नीचर आदि सुविधाओं का हार्डवेयर अपग्रेड हो गया है। पर पढ़ाई के स्तर का सॉफ्टवेयर तो ठस ही है।
… उस बच्चे का पिता मिस्त्री का काम करता है। बच्चा अपनी उम्र के हिसाब से छोटा है। उम्र के हिसाब से उसका वजन भी कम है और लम्बाई भी। बच्चा स्कूल नहीं जाना चाहता। अपने पिता के साथ जाना चाहता है। पिता मिस्त्री का काम करता है तो वह उसके साथ लेबराना करना चाहता है। “ईंट तो उठा ही सकता हूं। लेबराना (मिस्त्री का हेल्पर) करूंगा, तभी तो मिस्त्री बनूंगा।” – बच्चे को अपनी लाइन, अपना भविष्य बड़ा स्पष्ट है। वह लेबराना सीख कर जल्दी से जल्दी मिस्त्रियाने में दक्ष होना चाहता है। स्कूल जाना उसमें एक अड़चन के सिवाय कुछ नहीं। और यह दशा 1970-72 की नहीं, सन 2020-22 की है।
खैर, अब महीने भर महुआ बीना जायेगा। सवेरे साइकिल सैर में उसके चित्र लेना हर साल की तरह इस साल भी आनंद देगा। घूमते हुये मैं गुनगुनाऊंगा – महुआ चुअत सारी रैन हो रामा, चईत महीनवाँ!
जी हां महुआरी से गुजरते हुये महुआ की मदहोश करने वाली गंध आने लगी है। बच्चों की टोली, हर हाथ में एक दो प्लास्टिक की पन्नियाँ लिये एक एक महुआ के फूल को बीनने की होड़ में व्यस्त हैं।

बहुत नीक लगता है महुआ का टपकना और उसका बीनना देखना। अभी बच्चे ही बीन रहे हैं। कुछ दिन में बड़े लोग भी इस काम में लग जायेंगे। महुआ के पेड़ के नीचे पुरानी साड़ियाँ-धोतियाँ रात में बिछ जायेंगी जिससे महुआ आसानी से चुना जा सके।
एक दो बार तो और लौटूंगा ही महुआ के विषय पर इस ब्लॉग में, इस सीजन में।
महुआ के वृक्ष फूल और उससे बने मादक पेय के बारे में सुना तो बहुत है मगर जाना बहुत कम । झारखंड में आदिवासियों के बीच महुआ का एक सांस्कृतिक महत्व है, कुछ जैसे उत्तरी पूर्वांचल में आम को।
कृपया अपने अगले पोस्ट में महुआ के पेड़ की तस्वीर भी डालें।
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