कल पंद्रह जुलाई 2022 का दिन आंख और आंख से सम्बंधित सोच ने ले लिया। कुछ लोग कहते हैं कि आजकल आंख के इलाज का विज्ञान और तकनीक इतनी विकसित हो गयी है कि मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा में सब कुछ बहुत सरल, बहुत कुछ मानक हो गया है। पर विज्ञान और तकनीक का विकास किसी ब्लैक-स्वान ईवेण्ट की आशंका और मानसिक व्यग्रता को मिटा नहीं पाता। आंख की जीवन में अहमियत दिन भर सोच पर हावी रही।

मेरी पत्नी जी ने सवेरे सात बजे मुझे कहा कि उन्हें हल्की खांसी आ रही है। ऐसे में डाक्टर साहब ऑपरेशन कर पायेंगे? उनसे जरा पूछ लो। मैं झिझका। सवेरे पांच बजे से हम दोनो निठल्ले लोग जाग रहे हैं, पर डा. आलोक जो सम्भवत: दिन में बारह-चौदह घण्टे काम करते होंगे, वे नींद से उठ गये होंगे? उनके पास हमारे इस फोन कॉल के लिये समय होगा? क्या अपनी व्यग्रता में मेरी पत्नीजी ज्यादा ही लिबर्टी नहीं ले रहीं एक व्यस्त डाक्टर के साथ?
मेरे उहापोह के बावजूद जब उन्होने तीन चार बार मुझे कहा तो मैंने डाक्टर आलोक को एक संदेश भेज दिया। कुछ देर बाद उनका सहृदय उत्तर भी आ गया – नहीं, कोई समस्या नहीं। हल्की खांसी कोई बाधा नहीं होगी और जरूरत पड़ी तो वे कुछ खांसी दबाने की दवा दे कर ऑपरेशन कर देंगे।
सो, हम लोग – वाणी, विवेक, रीता और मैं नियत समय पर डाक्टर साहब के क्लीनिक में उपस्थित हो गये। ऑपरेशन के पहले डाक्टर साहब ऑपरेशन के मरीजों ने मिल रहे थे। मेरी पत्नीजी को उन्होने कहा – “आप मुझ पर फेथ रखें। जैसे विवेक जी हैं वैसे ही मुझे भी मान कर चलें। सब ठीकठाक होगा”। डा. आलोक का यह पारिवारिक तरीके से दिया गया आश्वासन मेरी पत्नी जी को गहरे से जरूर छू गया होगा। उन्होने अपना गला साफ कर कहा कि वे डाक्टर साहब पर पूरे यकीन से सब कुछ छोड़ कर चल रही हैं।

एक दिन पहले डा. आलोक के सहकर्मियों ने मोतियाबिंद के लेंस के आकलन के लिये बायोमेट्रिक जांच की थी। रीता जी की दोनो आंखों की पावर में व्यापक असमानता को देखते हुये डाक्टर साहब ने एक बार खुद जांच कर पुन: कर अपने को संतुष्ट किया। फिर रीता जी को ऑपरेशन के लिये प्रतीक्षा करने को कहा। दांई आंख में दवा डाले, आंख बंद कर रीता को ऑपरेशन का लबादा पहना कर एक बिस्तर पर लिटा दिया गया।
डाक्टर साहब ऑपरेशन के उस बैच के अन्य मरीजों के साथ कॉन्फीडेंस-बिल्डिंग-कवायद में लग गये और उनके सहकर्मी ऑपरेशन थियेटर की तैयारी में।
मेरी बिटिया अपनी माँ के साथ बनी रही और मौका पा कर दामाद जी मोबाइल पर सम्भवत: अपने दफ्तर के काम में लग गये। ऑपरेशन थियेटर में जाने के पहले लगभग बीस मिनट का समय था वह।

डा. आलोक ने मुझे ओपरेशन थियेटर (ओटी) में आ कर शल्य चिकित्सा देखने का प्रस्ताव रखा। यह तो वैसा ही था कि अपनी रेल अफसरी के दौरान किसी सामान्य यात्री को ट्रेन इंजन में लोको चालक की सीट के बगल में बैठ कर यात्रा करने का ऑफर दूं। मैंने उस पेशकश को सहर्ष लपक लिया। मुझे अपनी पोषाक चेंज रूम में उतार कर डाक्टर द्वारा पहने जाने वाली ड्रेस पहनने को कहा गया। गाढ़ा हरे रंग का पायजामा, कमीज नुमा बंडी और सिर पर हरा कण्टोप और मास्क। एक स्टूल ले कर मुझे ओटी के एक कोने में बैठने का अवसर मिला। मेरे पास मेरा मोबाइल था और स्क्रिबल करने के लिये पॉकेट डायरी और कलम।
दोनो स्थितियों में कोई समानता नहीं थी, पर ऑपरेशन थियेटर के कोने में बैठ कर मुझे बरबस अपने ट्रेन इंजन – स्टीम/डीजल/इलेक्ट्रिक/सबर्बन ईएमयू के ड्राइवर केबिन के कई वाकये याद आने लगे। 😀

ओटी के उस कोने पर एक रैक में ढेरों लेंस पैकेट रखे थे जो केटरेक्ट शल्य चिकित्सा में इस्तेमाल होने थे। डा. आलोक ने बताया था कि पिछले दिन उन्होने इक्यासी ऑपरेशन किये थे। के.एम.मेमोरियल अस्पताल के मुख्य प्रबंधक बैनर्जी दादा ने डा. आलोक के द्वारा उनके यहां किये गये हजार-दो हजार ऑपरेशंस की बात मुझे बताई थी। आलोक जी उसके अलावा अन्य अस्पतालों और दूर दराज में लगने वाले कैम्पों में भी शल्य चिकित्सायें करते होंगे। … वे भारत की दृष्टि अंधता/रुग्णता दूर करने के पुनीत काम में लगे हैं। पता नहीं समाज उन्हें ड्यू-क्रेडिट देता है या नहीं। 😦
उन जैसे उत्कृष्ट डाक्टर के इर्दगिर्द इसी तरह के सफल ऑपरेशंस के आंकड़े बनने लगते हैं। शायद डा. आलोक के अस्पताल की लॉबी में उनके चित्र के बोर्ड के साथ उनके स्कोरबोर्ड का एक काउण्टर लग जाना चाहिये। रोज, सातोंं दिन, बारहों महीने और सालों साल किये गये काम का आंकड़ा बताता काउण्टर। वह मरीज में फेथ-बिल्डिंग के अलावा वह साथ जुड़े पैरामेडिक्स के लिये भी बहुत जोश भरने वाली चीज हो सकती है।

वहां उपस्थित सर्जन और दोनो सहायक कर्मी जानते थे कि आगे किस चीज की और कब जरूरत होनी है। कोई सरप्राइज एलीमेण्ट नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि ऑपरेशन थियेटर में थियेटर – रंगमंच – शब्द जुड़ा है!
पहले की पोस्टें –
बढ़ती उम्र और रीता पाण्डेय की आंखें
डाक्टर साहब का क्लीनिक/अस्पताल कुछ ही महीने पहले खुला है। तब भी मेरी पत्नीजी उनकी दो हजारवीं शल्य चिकित्सा की मरीज हैं – ऐसा मुझे उन्होने बताया था। मोतियाबिंद के अलावा एक आंख की मोटे लेंस वाली, डीजेनरेटिव रोग की ‘विशिष्ट’ मरीज!
ओटी में दो सहकर्मी – एक लड़की और एक नौजवान तैयारी करते हैं। ऑपरेशन के सारे सामान बहुत कुछ वैसे सजाते हैं जैसे कोई दुकानदार सवेरे दुकान खोलने पर जमाता है। उसके बाद डाक्टर साहब के आने पर वे उनकी हरी रंग की पोषाक के ऊपर सर्जन वाला लबादा पहनाने में सहायता करते हैं। मेरी घड़ी के अनुसार 2:58 हुआ है। डाक्टर साहब दक्षता से अपना काम शुरू करते हैं। पूरी तरह स्टरलाइज्ड वातावरण है। उन तीनो व्यक्तियों में एक अलग तरह चुस्ती आ गयी लगती है।

ब्लॉग लिखने में शल्य चिकित्सा के बारे में बताते हुये मेरे पास दो विकल्प हैं। मैं पूरी जानकारी ले कर एक आम व्यक्ति की भाषा में प्रक्रिया समझाने का प्रयास कर सकता हूं। पिछली पोस्टों की टिप्पणी में जानकार पाठकों ने वैसा ही किया है। नयी तकनीक, नये लेंस और नये प्रोसीड्यर/पोस्ट-ऑपरेटिव अनुभव के बहुत से कथानक हैं लोगों के पास। मेरे कुछ मित्रों ने किसी तीसरे की हॉरर स्टोरीज भी सुनाई हैं और प्रसन्नता के अहो-अनुभव के किस्से भी। मैं वह सब व्यक्त कर सकता हूं या मैं एक कोने में दृष्टा भाव से हो रही अपनी मानसिक हलचल व्यक्त कर सकता हूं। मुझे अपनी मानसिक अभिव्यक्ति ज्यादा रुचती है।


[डाक्टर साहब के आने पर वे उनकी हरी रंग की पोषाक के ऊपर सर्जन वाला लबादा पहनाने में उनकी सहायता करते हैं। मेरी घड़ी के अनुसार 2:58 हुआ है। मैं समय मार्क करता हूं और डाक्टर साहब दक्षता से अपना काम शुरू करते हैं।]
एक कुशल नाट्य की तरह वहां हर कृत्य नपा तुला, बिना किसी हड़बड़ाहट के होता दीखा। किसी को आवाज ऊंची कर कहने का कोई मौका नहीं आया। बोलने की आवश्यकता ही नहीं थी। वहां उपस्थित सर्जन और दोनो सहायक कर्मी जानते थे कि आगे किस चीज की और कब जरूरत होनी है। कोई सरप्राइज एलीमेण्ट नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि ऑपरेशन थियेटर में थियेटर – रंगमंच – शब्द जुड़ा है!
सब प्रकृति की सहज गति से खुलता सा था वहां उस रंगमंच पर। महर्षि श्री अरविंद मातृशक्ति के चार वपुओं की बात करते हैं – महाकाली, महालक्ष्मी, माहेश्वरी और महासरस्वती। महासरस्वती का कार्य सर्जनात्मक और लय-ताल के साथ होता है। ओपरेशन थियेटर में महासरस्वती का साम्राज्य नजर आया मुझे।
मेरी बिटिया डा. आलोक के बारे में अपना आकलन व्यक्त करते हुये कहती है – ये डाक्टर अपने काम में कुशल तो होंगे ही; पर मुख्य बात है कि वे बैलेंस्ड आदमी हैं।
महासरस्वती का साम्राज्य बहुत बैलेंस्ड होता है! 🙂

द बेयरफुट आई सर्जन के कुछ चित्र कौंधते हैं। नेपाल की गरीबी, टोकरी (बास्केट-टेक्सी) में लाद कर अपनी बहन कांची माया को ऑपरेशन के लिये लाया उसका भाई। ऑपरेटिंग टेबल पर गरीब कांची डा. संदुक रुईत को बताती है कि वह किस प्रकार मक्के की खेती और बकरियाँ पाल कर घर चलाने की जद्दोजहद करती है। जब वह मोतियाबिंद से अंधी हो गयी तो उसके आदमी ने उसे छोड़ दिया… उसकी परिवार में उपयोगिता ही नहीं बची।
डा. आलोक मुझे उदाहरण देने के लिये बताते हैं उस बुढ़िया माई के बारे में; जो घर के कोने में लेटी रहती है और जो अंधी हो चुकी है। घर वाले उसकी सेवा करने में असुविधा महसूस करते हैं तो लाद-फांद कर डाक्टर के पास ले आते है जिससे वह बुढ़िया उनपर कमतर बोझ बने। पूर्णत: परित्यक्त, पूर्णत: उपेक्षित के जीवन में केटरेक्ट की शल्य चिकित्सा उस बुढ़िया के लिये कितना मायने रखती होगी!

मैं जितना डा. आलोक को दक्षता से ऑपरेशन करते देखता हूं, उतना ही उन विपन्न लोगों के जीवन में इस ऑपरेशन की अहमियत के बारे में भी सोचता हूं। यहां से जाने के बाद शायद मेरे नजरिये में बदलाव आ जाये। शायद मैं विज्ञापनों के आधार पर जरूरतमंद चक्षु मरीजों को कुछ सहायता भी कर सकूं। … यह निश्चय ही मेरे लिये और मेरे जैसे अपेक्षाकृत साधन युक्त लोगों के लिये आंख खोलने वाली सोच है।
डा. आलोक से मैं उनसे समाज के इस जरूरतमंद सेगमेण्ट के बारे में उनके योगदान के बारे में पूछता हूं तो उनका बहुत यथार्थपरक उत्तर मिलता है। बिना व्यर्थ की लागलपेट के। उनका कहना है कि उनकी सेवायें उस तबके के लिये निशुल्क होती हैं, पर दवाओं और लेंस आदि पर जो खर्च होता है उसके लिये तो योगदान चाहिये ही। वे एक एनजीओ के साथ काम कर अपनी सेवायें फ्री देते हैं। साइटसेवर्स के सहयोग से दवाओं/लेंस आदि का प्रबंधन होता है। इसके अलावा बहुत से मरीज रु.2000 के आसपास का दवा/लेंस आदि का खर्च वहन करने में सक्षम होते हैं। इस वर्किंग मॉडल पर समाज के बहुत बड़े तबके की सहायता हो जाती है।

यह सब बताने में डाक्टर आलोक अपनी सेवाओं की डींग हाँकते नहीं, अपने योगदान को मॉडेस्ट बता कर और सेवा फाउण्डेशन/साइटसेवर्स के योगदान को प्राथमिकता से बताते हैं। विनम्र योगदान की वृत्ति – यही बड़प्पन है। … यह डाक्टर मेरी अगली पीढ़ी का है। वाणी और विवेक की पीढ़ी का।
सामान्यत: मेरी पीढ़ी अगली पीढ़ी को नकारा बताने के साडिस्ट मनोविनोद में लिप्त रहती है। यहां मैं डा. आलोक की पर-उपकार की विनम्र वृत्ति का कायल हो गया। मैं और मेरी पत्नीजी यह सोचने लगे कि अपनी पेंशन का कुछ अंश तो साइट सेवर्स जैसी संस्था को दिया करेंगे।
करीब साढ़े छ मिनट में मेरी पत्नीजी का मोतियाबिंद ऑपरेशन सम्पन्न हो गया। ऑपरेशन थियेटर से निकल कर मैंने वहां की हरी पोशाक उतार अपने कपड़े पहने। रीता को आधा घण्टा एक बिस्तर पर आराम करने को कहा गया। आंख पर पट्टी बंधी थी। उन्हें एक दवा और चश्मे का किट और निर्देशों का कागज दिया गया जिसका प्रयोग अगले दिन पट्टी हटाने पर करना प्रारम्भ करना था।
हम लोग दो बजे क्लीनिक में गये थे। चार बजे तक घर वापस आ गये।
अगले दिन – आज 16 जुलाई की सुबह नौ बजे हम लोग डाक्टर साहब के पास गये। मेरी बिटिया और मैं रीता पाण्डेय के साथ। डाक्टर साहब के सहकर्मियोंं ने पट्टी खोली और आंख की सफाई की। फिर डाक्टर आलोक ने उनका निरीक्षण किया, संतोष व्यक्त किया और हम लोगों को हिदायतें दीं। अगले चार दिन बाद उनके यहां एक विजिट होगी। उसके पश्चात हम बोकारो से अपने घर के लिये रवाना होंगे।
चलते चलते डाक्टर साहब ने कहा कि मैं ब्लॉग पर अच्छा लिखता हूं। हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी भी सधी हुई है मेरी। अपनी प्रशंसा किसे अच्छी नहीं लगती। उम्र बढ़ने के साथ जब आदमी और भी हाशिये पर जाने लगता है तो प्रशंसा और भी अच्छी लगती है। मुझे वैसा ही लगा जैसे खाने में अच्छी, गाढ़ी अरहर की दाल परोसी हो और उसमें देसी घी का तड़का भी बिना कोई कंजूसी किये लगा हो। … क्या जीडी, तुम पेटू बाभन ही रहे। कॉम्प्लीमेण्ट स्वीकारने में भी पेट पूजा की सामग्री की उपमा खोजते हो! 😆
Sir OT m bhi apne apne blog ki samigri talash hi li .Dr saheb ka character is really appreciable bahut hi sahrady avam balanced h really .Apka aik naye chhetr ka anubhav anokha anubhav raha hoga apne apne blog m bakhoobi mention Kiya h .Mam ka operation thik ho gaya sunkar santosh hua .ab man jaldi swasth ho kar achchhe se dekh payengi
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आज पट्टी खुलने पर बहुत बेहतर लग रहा है – मेरी पत्नीजी को भी और बाकी हम सब को भी.
आपको बहुत बहुत धन्यवाद!
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