रेल के यार्डों में घूमते हुये

सन 1984-85 में मैंने अपनी रेल यातायात सेवा की प्रोबेशनरी ट्रेनिंग की थी। उस दौरान मुझे अनुभव लेने के लिये यार्डों में भेजा गया। माल यातायात के लिये उस समय शंटिंग यार्ड बहुत महत्वपूर्ण हुआ करते थे। रेलवे तब रेक लदान की ओर मुड़ चुकी थी और अस्सी प्रतिशत लदान पूरी रेक का होने लगा था, पर तब भी कई मालगोदाम और औद्योगिक इकाइयां इतनी बड़ी नहीं थीं कि तीस-चालीस आठ पहिया वैगनों का एक मुश्त लदान कर सकें। फुटकर या पीसमील लदान तब भी रेल यातायात का बहुत सा हिस्सा था।

उस समय शंटिंग यार्ड महत्व रखते थे। उनकी कार्यप्रणाली समझना एक यातायात अधिकारी की ट्रेनिंग के लिये आवश्यक घटक था। मेरे उस समय के ट्रेनिंग नोट्स में पांच सात रेल यार्डों का विस्तृत विवरण है। उनमें मैंने पर्याप्त समय व्यतीत किया था।

चित्र ओपनवर्स लाइब्रेरी से लिया गया।

दिल्ली का तुगलकाबाद यार्ड मैंने एक सप्ताह में कवर किया था। पूरे यार्ड में मैं घूमा था। शण्टिंग इंजन पर चल कर शण्टिंग का अनुभव लिया था। मुझे याद है कि हर शाम चीफ यार्ड मास्टर साहब के साथ आधा एक घण्टा उनके दफ्तर में – जो यार्ड की लाइनों के बीच एक दो मंजिला इमारत में था और जहां बैठ कर पूरे यार्ड का विहंगम दृश्य दीखता था – उनसे टिप्स लेते व्यतीत करता था। वे एक कप चाय और एक बालूशाही मगांते थे मेरे और अपने लिये। बालूशाही साधारण ही होती थी। यार्ड के बीच उसका मिलना ही अपने आप में बड़ी बात थी। मैं चीफ यार्ड मास्टर साहब (उनका नाम वेद प्रकाश था) के आतिथ्य, उनके यार्ड की प्रणाली समझाने के तरीके और उनकी सज्जनता से बहुत अभिभूत था। यही कारण है कि चार दशक बीतने को आये पर उनकी याद अभी भी मन में बनी है और उनकी बालूशाही का स्वाद अभी भी मन में है। उनके साथ बैठकों के बाद से ही मुझे बालूशाही पसंद आने लगी! :-)

बाद में हम प्रोबेशनर अफसरों को अपने अपने रेलवे जोन अलॉट हो गये। मुझे पश्चिम रेलवे मिला। उसके बाद अधिकांश ट्रेनिग अपनी जोन में हुई। तब मैंने कोटा मण्डल के ईदगाह, जमुना ईस्ट बैंक, बयाना, गंगापुर, सवाई माधोपुर आदि के यार्डों में ट्रेनिंग की। ट्रेनिंग के दौरान आगरा में मैं ईदगाह के रेस्ट हाउस और आगरा फोर्ट स्टेशन के ऊपर बने यात्री निवास की डॉर्मेट्री में रुका करता था। अकेले रहना होता था, और ईदगाह से आगरा फोर्ट तक पैदल आना जाना होता था। रेल पटरी बहुत गंदी हुआ करती थी। आसपास के स्लम्स के लोग वहीं अपना दैनिक निपटान करते थे। उसकी दुर्गंध से चलना दूभर होता था। इसके अलावा कभी भी पैर विष्ठा पर पड़ने की सम्भावना होती थी। मैं रेल लाइन के साथ बनी सड़क, जिसके किनारे बहुत दूकानें थीं और सड़क बहुत किचिर पिचिर वाली होती थी; से पैदल आया जाया करता था। मुझे पैदल बहुत चलना पड़ता था।

एकाकी जीवन, यार्ड में सीखने के लिये की गयी मेहनत और भोजन का कोई मुकम्मल इंतजाम न होना – यह सब खिन्नता देता था। आगरा मुझे अपनी भीड़ और गंदगी के कारण कभी पसंद नहीं आया। पर इन सब के बावजूद मैंने अपनी ट्रेनिग को बहुत गम्भीरता से लिया। गम्भीरता से न लेता तो ट्रेनिंग बंक कर घर (ईलाहाबाद) भाग गया होता। पार मैने कोताही नहीं की।

मुझे याद है कि मेरे पास पैसे भी कम ही होते थे। भोजन पर खर्च किफायत से करता था। आगरा फोर्ट स्टेशन पर भोजनालय में एक या दो कटलेट और एक स्लाइस ब्रेड-चाय यही नाश्ता होता था। हर रोज वही नाश्ता। वेटर भी जान गया था कि मैं वही लूंगा, जो सबसे सस्ता नाश्ता था। कटलेट की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं थी। मछली के आकार की कटलेट जो कटलेट कम आलू की टिक्की ज्यादा लगती थी और जिसका तेल मुझे अप्रिय था; का कोई विकल्प मैं नहीं तलाश पाया। कभी कभी शाम के भोजन के लिये मेरे चाचाजी – जो आगरा फोर्ट पर जी.आर.पी. में सब-इंस्पेक्टर थे – अपने घर बुला लिया करते थे। उनका डेरा स्टेशन के दूसरी ओर, मस्जिद के पास एक दो मंजिला मकान की बरसाती में था। वहां वे सपरिवार रहते थे। उनके घर जाना अच्छा तो लगता था, पर मैं अपने अंतर्मुखी व्यक्तित्व के कारण उनके बार बार बुलाने पर ही एक दो बार जाया करता था। … ट्रेनिग के दौरान की उदासी और गम्भीरता मेरी अपनी ओढ़ी हुई थी। कभी अपना रक्तचाप नापा नहीं, पर अब लगता है कि उस दौरान भी, अपनी नौजवानी के समय, मुझे उच्च रक्तचाप रहा करता होगा। :-(

आगरा की बजाय मुझे गंगापुर सिटी और सवाई माधोपुर के यार्डों में ट्रेनिग ज्यादा भाई। स्टीम इंजन शंटिंग किया करते थे। यार्ड से सम्बद्ध स्टीम शेड में भी मैंने समय व्यतीत किया। उसी समय से स्टीम इंजनों के साथ का नॉस्टल्जिया बना हुआ है। एक दो डीजल के पप्पू इंजन – डब्ल्यूडीएस 4 भी होते थे। बच्चा इंजन। उनकी खींचने की क्षमता बहुत कम थी। पर फिर भी वे मुझे आकर्षित करते रहते थे।

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गंगापुर सिटी में रेस्ट हाउस में रहने का इंतजाम तो ठीक था, पर भोजन देहाती टाइप था। भगई पहने वहां का अटेण्डेण्ट कभी कभी मेरा पैर भी दबाया करता था, मेरी अनिच्छा के बावजूद। पर जब उसे पता चला कि मैं सिविल इंजीनियरिंग विभाग का अफसर नहीं हूं तो पैर दबाने की उसकी तत्परता काफूर हो गयी। तब उसे अपेक्षा होने लगी कि मैं उसे रुपया-आठ आना टिप दे दिया करूं। लालची टाइप वह बंदा मुझे पसंद नहीं था। पर मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। उसी से मैं उसके सुख दुख पर बात किया करता था। यूं उसकी ठेठ राजस्थानी बोली मुझे कम ही समझ आती थी।

गंगापुर स्टेशन के बाहर छोटी बजरिया थी। करीब एक-डेढ़ दर्जन कस्बाई दूकानें। छोटी मोटी खरीददारी वहीं करता था मैं। वहां कभी कभी कचौरी खरीद कर खाता था (जिसमें बहुत मिर्च होती थी)। अकेले। कोई मित्र तो था नहीं।

यार्ड की ट्रेनिंग के बाद थक जाता था मैं, पर फिर भी रात में सोचने को बहुत कुछ होता था। उस समय की अगर डायरी लिखी होती तो काम का दस्तावेज होती। वैसे उस समय लिखने का कोई अनुशासन नहीं था। हिंदी में लिखना तो कम ही होता था।

अब तो उस समय की यादों की मात्र चिंदियां भर हैं। यादों की कतरनें!

पर चूंकि मैं कोई पुस्तक नहीं लिख रहा; केवल ब्लॉग की खुरदरी पोस्ट लिख रहा हूं; यादों की कतरने ही उसमें उतारना और 1000 शब्द लिख देना पर्याप्त है। नहीं?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

9 thoughts on “रेल के यार्डों में घूमते हुये

  1. ऐसे ही स्मृतियों को कुरेदते रहिये। हम सबको अपने दिन याद आ रहे हैं। यदि प्रोबेशनरों के रहने की अच्छी व्यवस्था रहे तो प्रशिक्षण का काल ज्ञानवर्धन का स्वर्णिम काल हो सकता है। बस वही बाद में सीखना पड़ता है और बहुधा पकड़ ढीली बोने के बाद। अत्यन्त रोचक।

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  2. आपकी स्मृतियों का संकलन बहुत ही यथार्थपरक है।
    स्मृतियां भूतकाल के जीवन को दोबारा जीने का अहसास करा देती हैं, बहुत ही विस्मर्णींय हो जाती हैं।
    आपकी स्मृतियों से मेरी भी रेल जीवन और इससे जुड़े रेलागार एवं व्यक्तियों याद ताजा हो गई।
    कोटा मंडल में मालगाड़ी गार्ड में 1972 में नियुक्ति हुई थी, उससे पूर्व डेड़ माह की लाइन ट्रेनिंग में सभी यार्ड तुगलकाबाद, जमुना ब्रिज, आगरा ईस्ट बैंक, ईदगाह, बयाना, गंगापुर सिटी, सवाईमाधोपुर (यहीं पर मेरी प्रथम नियुक्ति हुई थी 23 अगस्त 1972 को), गुना (यहां 15 अगस्त 1975 को दूसरी पोस्टिंग हुई स्थानांतरण पर), कोटा (यहां 2 जुलाई 1984 पर स्वयं स्थानान्तरण होकर आया, एक मजदूर संघ के नेतृत्व में सक्रिय भागीदारी की वजह से, दूसरे सहायक गाड़ी नियंत्रक में चयन हो जाने के कारण से, यहां से 20 मार्च 2003 में सहायक परिचालन प्रबंधक गुड्स में चयनित होकर पश्चिमी रेलवे हेडक्वार्टर चर्चगेट गया था), शामगढ़ तथा रतलाम और स्टीम इंजनों का रोमांचपूर्ण अनुभव मेरे भी जीवन की चिरस्मरणीय स्मृतियां अंकित हैं जिनमें आप जैसे शांत सदाशयी अधिकारी सहित कई महानुभावों शामिल हैं।
    आभार आपका मेरी भी स्मृतियों को ताजा करने के लिए।

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    1. धन्यवाद!
      आपकी बहुमुखी पर्सनालिटी, कहने और लिखने की क्षमता, विविध अनुभव – इन सब के कारण आपके संस्मरण बहुत पठनीय होंगे। आप तो उन्हें लिखने में जुट जाइये शुक्ला जी! :-)

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    1. पुरानी यादें वास्तव में धरोहर हैं. बस यही मलाल है कि उनका तरतीब से कोई लेखा जोखा नहीं रखा…

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