महादेव के भरोसे ही तो चल रहे हैं प्रेमसागर। जीजीविषा है, संकल्प है, पर महादेव की सहायता के चमत्कार भी बहुत हैं। फटक गिरधारी, न लोटा न थारी की तरह यात्रा पर निकल लिये हैं और सब इंतजाम हुये जा रहा है! यह मिरेकल ही तो है!
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रेल के यार्डों में घूमते हुये
एकाकी जीवन, यार्ड में सीखने के लिये की गयी मेहनत और भोजन का कोई मुकम्मल इंतजाम न होना – यह सब खिन्नता देता था। आगरा मुझे अपनी भीड़ और गंदगी के कारण कभी पसंद नहीं आया। पर इन सब के बावजूद मैंने अपनी ट्रेनिग को बहुत गम्भीरता से लिया।
मेरी रेलवे की यादों को कुरेदती फिल्म भुवन शोम
मैं अपने तनाव, शरीर और मन की उपेक्षा और रोज रोज की चिख चिख से अपने को असम्पृक्त नहीं कर सका। अगर वह सीख लेता – और उसके प्रति सचेत रहता – तो आज कहीं बेहतर शारीरिक/मानसिक दशा में होता।
दूसरी पारी की शुरुआत – पहला दिन
मजेदार बात यह रही कि मेरे फोन नम्बर पर दो तीन अधिकारियों-कर्मचारियों के फोन भी आये। वे मुझे माल गाड़ी की रनिंग पोजीशन बता रहे थे। मैं तो रेलवे को छोड़ रहा था, पर वे मुझे छोड़ना नहीं चाह रहे थे।
सवेरे तीन बजे उठ जाना
मैंने रेल जीवन या रेल यात्राओं के बारे में बहुत नहीं लिखा। पर वह बहुत शानदार और लम्बा युग था। जब मैंने अपने जूते उतारे तो यह सोचा कि यादों में नहीं जियूंगा। आगे की उड़ान भरूंगा गांव के परिदृष्य में। पर अब, आज सवेरे इकतीस दिसम्बर के दिन लगता है कि फ्लैश-बैक में भी कभी कभी झांक लेना चाहिये।
सतर्क रेल कर्मी, बसंत चाभीवाला
आठ किलोमीटर की पेट्रोलिंग करता है बसंत रोज। उसके कंधे पर जो औजार और फ्लैग पोस्ट होता है, उसका वजन आठ-दस किलो होता है। सवेरे सवेरे, भोर की वेला में सर्दी-गर्मी-बरसात झेलता उस वजन के साथ रेल पटरी-गिट्टी पर चलता है बसंत। निगाहें पटरी की दशा और चाभियों की कसावट पर रखनी होती है। … आजकल सेना के जवानों का प्रशस्ति गायन फैशन में हैं। पर बसंत चाभीवाले की नौकरी कौन कम साधुवाद की है?!