“मम्मी, एक बकरा था मेरा। बहुत अच्छा था। मम्मी, क्या बताऊं, आज वह मर गया। घर पर उसकी लाश पड़ी है। उसे दफनाने के पैसे नहीं हैं। आप मम्मी बस सौ रुपये दे दें तो उसे दफना दूं।” – पारसिंग बोला।
भारतीय रेल का पूर्व विभागाध्यक्ष, अब साइकिल से चलता गाँव का निवासी। गंगा किनारे रहते हुए जीवन को नये नज़रिये से देखता हूँ। सत्तर की उम्र में भी सीखने और साझा करने की यात्रा जारी है।
“मम्मी, एक बकरा था मेरा। बहुत अच्छा था। मम्मी, क्या बताऊं, आज वह मर गया। घर पर उसकी लाश पड़ी है। उसे दफनाने के पैसे नहीं हैं। आप मम्मी बस सौ रुपये दे दें तो उसे दफना दूं।” – पारसिंग बोला।