प्रेमसागर की नित्य की पच्चीस तीस किलोमीटर की यात्राओं को दिनों दिन ट्रैक करना और उसपर लिखना मुझे बहुत भाया था। अब वह फेज नहीं रहा। प्रेमसागर अपने गांव-देश लौट गये हैं। मैं अपने परिवेश में सिमट गया हूं।
एक दिन मन में विचार आया कि नित्य 20-25किमी साइकिल तो मैं चला ही सकता हूं। क्यूं न साइकिल पर निकला जाये। बीस किमी के आगे कहीं भी रुका जाये और अगले दिन वहां से आगे। एक महीने में एक हजार किमी चला जा सकेगा। अभी भी तो तीन सौ किमी चल ही रहा हूं साइकिल से। नियमबद्ध चलूंगा तो चित्र भी खींचूंगा, लोगों से मिलूंगा और ट्रेवलॉग लिखूंगा। रोज के एक हजार शब्द। सब कुछ बहुत मोहक लगा। एक ट्रायल के लिये मैंने योजना बनाई – घर से बनारस के लिये निकलूंगा। दो रात्रि विश्राम बीच में। पहला तुलापुर में लल्लू मामा जी के घर। दूसरा सुरेश पटेल जी के घर। तीसरे दिन बनारस।
सब कुछ अच्छा लग रहा था। मैंने अमेजन पर साइकिल पर टांगने के लिये बैग भी तलाशे। वे खरीदे नहीं, विश-लिस्ट में डाल लिये। साथ में ले जाने वाले सामान की एक सूची मन में बनाई। सब मैनेजेबल लग रहा था। पर कमोड पर सूई अटक गयी। गठिया की समस्या के कारण दीर्घ-शंका के लिये मुझे कमोड की जरूरत पड़ती है। उसके बिना काम नहीं चलता। पिछले डेढ़ दशक से कमोड का ही प्रयोग कर रहा हूं। वैसे किसी स्थान की कल्पना भी नहीं कर सकता जहां पेट में दबाव महसूस हो रहा हो और कमोड की उपलब्धता न हो। पर क्या साइकिल की यायावरी में वह सुनिश्चित हो पायेगा? भारत में, गांवदेहात में तो वह मुश्किल है।

मैने अमेजन पर फोल्डिंग कमोड तलाशा। उसका आकार और वजन देखा। वजन तो ज्यादा नहीं था, पर उसे ले कर चलने में जरूर नुमाईश हो जायेगी। मुझे अमिताभ बच्चन की वह फिल्म (पीकू) याद हो आई जिसमें वे कलकत्ता की कार यात्रा में कार की छत पर कमोडनुमा कुर्सी ले कर यात्रा करते हैं। … कमोड साथ में गठियाये चलने पर यायावरी का आनंद एक तरफ, एक नमूना लगूंगा मैं! पर, अगर यूं निकलना है तो और कोई चारा भी तो नहीं!
दो तीन दिन मन में फोल्डिंग कमोड वाला विचार चला। अपने मन को नुमाईशी-साइकिल यात्रा के लिये तैयार करता गया। फिर सारा विचार बेहूदा लगा। आईडिया ड्रॉप हो गया।

मुझे जॉन स्टीनबैक की “ट्रेवल्स विथ चार्ली” याद हो आई। मैने अपने को दिलासा दी – अभी तो इतने पैसे नहीं हैं, पर एक दशक में अगर मेरा पोर्टफोलियो ठीकठाक बढ़ा तो एक वैन खरीदूंगा। उसमें एक बिस्तर होगा। एक कुर्सी और एक फोल्डिंग कमोड। मेरे साथ चार्ली तो नहीं होगा, पर वैन का ड्राइवर होगा। हम मजे मजे में भारत भ्रमण करेंगे।
लेकिन, फिर सोचता हूं कि यात्रा का अनुभव लेने के लिये लम्बी यात्राओं की क्या जरूरत है? प्रेमसागर की यात्राओं में मैं तो घर से बाहर निकला ही नहीं पर घर बैठे मैने नर्मदा तट की यात्रा कर ली। गुवाहाटी से द्वारका और माहेश्वर से बद्री-केदार तक हो आया। यात्रा का पुण्य तो प्रेमसागर को मिला होगा पर अनुभव का एक बड़ा हिस्सा मुझे भी मिला।
फिर गंगा किनारे की कितनी लघुयात्रायें मैने कर ली हैं! शिवकुटी का कछार मात्र 2-चार वर्ग किमी का होगा। पर उसके सवेरे के पैदल भ्रमण में मैने गंगा के विविध रूप देखे हैं। वैसा अनुभव कितने लोगों ने लिया होगा?
कई दिनों-महीनों से मैं घर-परिसर में ही साइकिल चला रहा हूं। परिसर में एक चक्कर करीब 200मीटर का होता है। नित्य एक दो घण्टा साइकिल चलाता हूं। कान में हेड-फोन लगाये कोई पुस्तक को ऑडीबल पर सुनते हुये। पांच सात मोटी पुस्तकें जो मैं वैसे कवर-टू-कवर न पढ़ पाता, मैने इन कोल्हू-के-बैल वाली यात्राओं में पढ़/सुन ली हैं।
दो तीन दिन से कुछ अधिक दूर तक निकल रहा हूं साइकिल ले कर। सवेरे जब निकलता हूं, तो हल्का कोहरा पड़ रहा होता है। गांव की सड़क पर वाहन नहीं होते। लोग उठ रहे होते हैं। बगल की महिला, जिसके घर में हैण्डपम्प नहीं है, इधर उधर से पानी की बाल्टियां ढोती दीखती है।

बिसुनाथ एक कमरे के घर में ओसारे में सोता है। एक ही कमरा है तो उसका उपयोग पतोहू-लड़का करते हैं। सवेरे वह अपने तख्ते पर सुखासन में बैठा दिखता है। आगे महुआरी में सामुहिक गतिविधि नजर आने लगती है। औरतें उपले बनाती हैं। पुआल की गांज के स्तूप बने हैं। एक आदमी सवेरे सवेरे अपनी भैंस को एक खूंटा गाड़ कर बांधता दीखता है। शायद भोर में उसने दूध दुह कर भैंस को महुआरी में बांधने ले आया है। आगे अमरनाथ की गुमटी खुल चुकी है। वहां कुछ लोग बोलते-गपियाते और कुछ कऊड़ा तापते दीखते हैं। एक दो मुझे नमस्कार भी करते हैं।

आगे भगवानपुर की ओर कोहरे की एक पट्टी नजर आती है। मानो सलेटी रंग का कोई बहुत मोटा अजगर जमीन पर लेटा और धीरे धीरे रेंग रहा हो। उसके पीछे सूर्योदय हो चुका है। पर उनका ताप कोहरे के अजगर को खतम नहीं कर सका है। कोहरा आधा घण्टा और चलता है। उसमें से निकलते पैदल और साइकिल सवार यूं निकलते हैं मानो जादू से बन रहे हों।
भगवानपुर तक की यात्रा पूरे आधा किमी की है। मैं पैडल की गिनती से नापता हूं। 104 पैडल की दूरी है मेरे घर से। राउण्ड-ट्रिप में एक किमी और कुल छ मिनट लगते हैं। भगवानपुर तक के दस चक्कर लगाने पर सवेरे की साइकिल सैर पूरी होती है।

भगवानपुर में पानी की टंकी बन रही है। काम करने वाले कर्मी आज सवेरे ही आये हैं छुट्टी के बाद। आते ही पहला काम कऊड़ा तापने का करते हैं। उनका दृश्य ऐसा है कि मैं अपनी साइकिल रोक कर उनसे बातचीत करने और चित्र लेने पंहुच जाता हूं। इसी बीच गांव का एक नौजवान आ कर मुझे अभिवादन करता है। वह कौशल मिश्र है। उन मजदूरों को कौशल परिचय देता है कि मैं उसका रिश्तेदार हूं। मजदूर जो अब तक मेरे आने से असहज से थे, उनका जो हल्का सा तनाव था, खत्म हो गया है। बताते हैं कि टंकी का प्लेटफार्म तैयार होने में एक महीना लगेगा। उसके बाद टंकी बनेगी।

टंकी की सीढ़ियां महुआ के पेड़ में गुंथी लगती हैं। मानो कोई पूर्वोत्तर का, मेघालय का दृश्य हो।
भगवानपुर के चक्कर लगाते हुये मन में विचार आता है कि आधे किमी के इलाके में इतनी विविधता है कि उनपर रोज 1000 शब्द लिखते पचास साठ ब्लॉग लिखे जा सकते हैं। साल भर के हर मौसम में बदलते ग्रामीण परिदृश्य का लेखाजोखा। एक लघुभ्रमणिका – माइक्रोट्रेवलॉग – लिखी जा सकती है।
अगर अनुभव करना और लिखना ही ध्येय हो तो यह आधे किमी की पट्टी भी सार्थक यात्राअनुभव दे सकती है। वह लघुयात्रा जिसमें कमोड ढोने का झंझट नहीं!
यही किया जाये जीडी! लघुभ्रमणिका लेखन किया जाये! :-)

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