जुगाड़ चूल्हा

आधा किलोमीटर के लघुभ्रमण – जिसमें पूरे एक किलोमीटर का राउण्ड ट्रिप होता है, में मुझे छ मिनट लगते हैं। घर से निकल कर कान में ईयरफोन खोंसता हूं। उसे अपने मोबाइल से पेयर कर ऑडीबल पर कोई पुस्तक ऑन करता हूं और साइकिल पर घूमते हुये इस गोल घूमने के दस फेरे लगाता हूं। बीच में लोगों से बोलने बतियाने के लिये तीन चार बार रुकना होता है। इसके अलावा दर्जन भर चित्र तो फीचर फोन के दो मेगापिक्सल वाले कैमरे से साइकिल चलाते हुये ही खींचे जाते हैं। वे चित्र डायरी में नोट्स लेने की बजाय याद रखने के काम भी आते हैं। जेब में नोटबुक और कलम भी होते हैं पर उनका प्रयोग शायद ही कभी होता हो।

कभी कभी मैं सोचता हूं कि एक डिक्टाफोन खरीद लिया जाये। उसकी सहायता से पॉडकास्ट भी किया जा सकेगा। पर कितने गैजेट्स रखे जायें?! मेरी मनोवृत्ति उस छोटे बच्चे सरीखी है जो बफे डिनर में अपनी प्लेट ठूंस ठूंस कर भर लेना चाहता है बिना यह आकलन किये कि उसका पेट कितना छोटा है!

विचार यह बना है कि इस लघुभ्रमण के आधार पर ब्लॉग पोस्टें लिखी जायें। वे पोस्टें जो पांच सौ मीटर में पांच सौ किलोमीटर का आभास दें। आखिर एक परमाणु भी तो पूरे ब्रह्माण का माइक्रोकॉजम है! पांच सौ मीटर में विश्व का विराटरूप दर्शन! :-)

इस लघु यात्रा पर पिछली पोस्टें हैं –

लघुभ्रमणिका

गांज


कल भगवानपुर के महुआ के पेड़ के बगल में “नल से जल” अभियान वालों की बनती टंकी पर फिर रुक गया। सवेरे के पौने सात बजे थे। ईंटों को जोड़ कर दो बर्तन का चूल्हा बनाया था उन्होने। जुगाड़ चूल्हा। आननफानन में बनाया हुआ। चूल्हे में आग जल रही थी और दो पतीले चढ़े हुये थे। एक श्रमिक भोजन बनाने में जुटा हुआ था। बाकी सहायक के रोल में थे।

गैस चूल्हे पर खाना नहीं बना रहे? – मैने पूछा।

“गैस खतम हो गयी है। सवेरे चाय बनाई और चाय बनते ही गैस खतम। तब सोचा कि आज लकड़ी पर ही खाना बनाया जाये।” – उस भोजन बनाने वाले ने बताया। उन सज्जन का नाम पूछ्ना भूल गया। सो नाम रख लिया जाये जगन। जगन ने कहा कि दस लोगों का खाना बनता है। सुबह शाम दोनो बार। “मेहनत करते हैं तो खाना गरम ही खाते हैं।”

श्रमिक भी अपनी रईसी के निमित्त तलाश लेता है। श्रम के बाद गर्म भोजन उसकी रईसी है। घर से टिफिन ले कर गया मध्यवर्ग का बाबू क्या जानेगा गर्म खाने का आनंद!

चूल्हे का डिजाइन मिनिमलिस्ट है। उसमें दो कतारें हैं ईंटों की। एक कतार में तीन तीन ईंटों के दो जोड़े। कुल बारह ईंटें जमा कर रखने से चूल्हा बन गया। चूल्हे में दोनो तरफ से लकड़ियांं लगाई गयी हैं। लकड़ियां भी पानी के टंकी बनाने में प्रयुक्त लकड़ी-बल्ली है। शायद काम के बाद की फालतू लकड़ी।

चूल्हा इतना बड़ा है कि उसपर दो बड़े आकार के पतीले चढ़ाये गये हैं सरलता से। पूरी आग का समग्र प्रयोग हो रहा है।

दो पतीलों को देख कर मैने पूछा – क्या बन रहा है? दाल चावल?

जगन ने कहा – “चावल है। पर दाल नहीं। बेसन का प्रयोग हुआ है।” मैने कड़छुल से चला कर देखा। मुझे लगा कि वह सोयाबीन की वड़ी की ग्रेवी जैसा है। पर जगन ने बताया कि वह बेसन है। बेसन को गूंथ कर गट्टे की तरह काटा गया है। बेसन के गट्टे की तरी वाली सब्जी।

बेसन की तरी वाली सब्जी देखने में अच्छी लग रही थी। ज्यादा तेल झोंका नहीं गया था तो मेरे मन माफिक थी। एकबार तो मन हुआ कि जगन से कहूं – दस की बजाय इग्यारह आदमी का खाना बनाओ भाई! आधा किलोमीटर दूरी पर मेरा घर नहीं होता तो कह भी देता शायद! :-)

जगन ने एक अन्य संगी श्रमिक को आटा गूंथने के लिये कहा। भोजन में केवल भात-सब्जी ही नहीं होगा। रोटियां भी सिंकेंगी। वाह! सम्पूर्ण भोजन होगा! … उनके लिये यह भोजन तो नित्य की आवश्यकता है। मुझे करना हो तो मेरे लिये वह री-क्रियेशन हो जाये। पिकनिक!

“आज शाम को भी भोजन ऐसे ही ईंट पर बनेगा? या अभी बना कर रख लेंगे?”

“देखो, दिन में गैस सिलिण्डर का इंतजाम करेंगे। गैस आने पर तो गैस पर ही खाना बनेगा। नहीं इंतजाम हो पाया तो यह चूल्हा तो है ही। शाम को फिर जलेगा।”

यह वार्तालाप मेरे साइकिल भ्रमण के पहले राउण्ड में हुआ था। उसके बाद नौ राउण्ड और लगे। हर राउण्ड में मैं उनकी भोजन बनाने की गतिविधि देखता जाता था साइकिल चलाते हुये। तीसरे चौथे राउण्ड में तवे पर रोटियां बनने लगी थीं। उन्हें फुलाने का काम सीधी आंच पर हो रहा था। बीच में एक श्रमिक को पास के हैण्डपम्प से पानी लाते भी देखा। वे लोग पानी की टंकी बना रहे हैं जो दो तीन गांवों को नल से जल देगी। पर अभी उन्हे खुद भी जल ढो कर लाना पड़ रहा है।

मेरा सवेरे का भमण समाप्त होते होते उनका भोजन बन गया था। वे लोग सवेरे की भोजन कर रहे थे। मैने जगन को भी रोटी का कौर मुंंह में डालते देखा।

घर आ कर मैने पत्नीजी को कहा – एक दो दिन में बेसन के गट्टे की सब्जी बनाना। बहुत दिन हो गये गट्टे की सब्जी खाये!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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