गांवदेहात में बौद्धिक आदान-प्रदान लगभग नहीं के बराबर होता है। लोग जिस तरह जीवन यापन कर रहे हैं; प्रकृति किस तरह व्यवहार कर रही है; आदमी का अत्याचार कैसे झेल रही है – वह सब देखने के लिये और उसपर मनन करने के लिये पर्याप्त अवसर है। पर उसपर चर्चा के लिये लोग नहीं हैं।
वैल्डनपॉण्ड का प्रयोग करते हुये हेनरी डेविड थॉरो जब अकेले झील के किनारे कुटिया बना कर रह रहे थे, तब भी उनसे मिलने के लिये लोग आया करते थे और उनमें बहुधा बौद्धिक आदान प्रदान होता था। एक समय आया था जब थॉरो को कुटिया में जगह की कमी महसूस होने लगी। वैसा कुछ यहां गांव में मेरे साथ नहीं होता। गाहे बगाहे ही कोई मिलने आता है। वैसे मेरे घर का बाहर का गेट बंद होने पर भी पक्षी, नेवले, गिलहरियां और सांप निर्बाध परिसर में आते जाते हैं। पर उनकी अपनी दुनियां है। वे इस घर-परिसर को मेरी बजाय अपना ही समझते हैं। पहले वे हमें (मेरी पत्नीजी और मुझे) आउटसाइडर मानते थे; अब उत्तरोत्तर अपना समझने लगे हैं – बस यही फर्क आया है।
बौद्धिक आदान-प्रदान तो नहीं ही होता! वैसे गांव में रीवर्स माइग्रेशन करते समय बौद्धिक आदान-प्रदान कोई जरूरत नहीं मानी थी मैने।

मैं सवेरे उठता हूं। आजकल तो दो तीन बजे सवेरे। पत्नीजी सो रही होती हैं तो केवल टेबल लैम्प जलाता हूं। लैपटॉप कोई आवाज न करे, इसके लिये उसका स्पीकर आउटपुट हेड फोन के जरीये सुनता हूं। सवेरे अकेले होता हूं तो आदान प्रदान के लिये कोई नहीं होता। मन में विचार आते हैं, प्रश्न उठते हैं तो पहले गूगल सर्च का उपयोग किया करता था। अब उत्तरोत्तर वह काम चैट-जीपीटी के साथ होने लगा है।
आज बिजनेस स्टेण्डर्ड पर यानिस वारोफेकिस (Yanis Varoufakis) की पुस्तक की चर्चा है। ग्रीक अर्थशास्त्री यानिस अपने देश के वित्तमंत्री भी रह चुके हैं। वे बात करते हैं कि पूंजीवाद का समय खत्म हो गया है। उसका स्थान अब टेक्नो-फ्यूडलिज्म ने ले लिया है। अब विश्व इन टेक फ्यूडल लॉर्ड्स का बंटाईदार बन गया है। किरायेदार।

यह रिव्यू मुझे रोचक लगा। और जानकारी की इच्छा हुई। पूंजीवाद और सामंतवाद की परिभाषा की अज्ञानता के कारण मैने चैटजीपीटी से आदानप्रदान प्रारम्भ किया।
चैट जीपीटी खुद ही इस टेक्नो-फ्यूडलिज्म की उपज है। फिर भी मैने उससे पूछा। और उसके उत्तरों में कोई टेक-सामंतों के पक्ष में पूर्वाग्रह नहीं झलका। बड़े अच्छे से चैटजीपीटी ने इन वादों की परिभाषा, इनमें अंतर, आजकल की दुनियां पर टेक-सामंतों का प्रभाव, उनके खिलाफ लोगों और सरकारों की गतिविधियां और नकेल कसने के प्रयास – ये सब बताये।
पर यह सब मुझे पढ़ना नहीं पड़ा; स्पीचीफाई से यह सुनने को मिल गया!

कुछ दिन पहले मैने स्पीचीफाई का सबस्क्रिप्शन लिया है। मेरे लैपटॉप और मोबाइल पर यह एप्प है। यह एप्प वेब पेज या कोई पुस्तक मुझे पढ़ कर सुना देता है। मजे की बात यह हुई कि जैसे ही चैटजीपीटी ने दनदनाते हुये अपने उत्तर छापने प्रारम्भ किये, स्पीचीफाई ने मेरी मन माफिक आवाज में वह टेक्स्ट पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। बड़ा ही रोचक था। मुझे स्पीचीफाई को क्लिक कर सुनाने के लिये कहना भी नहीं पड़ा। यह सब वैसा ही था, मानो चैटजीपीटी मुझे अपने उत्तर बोल कर दे रहा हो और साथ में उसकी ट्रांस-स्क्रिप्ट भी मुहैय्या करा रहा हो। लैपटॉप से इण्टरेक्शन का यह एक नया स्तर था जो मैने आज अनुभव किया।
उम्र बढ़ रही है। आंखों पर जोर देना रुचता नहीं। पढ़ने की बजाय सुनना अब ज्यादा भाने लगा है। ऐसे में सुनाने वाले स्पीचीफाई जैसे एप्प मेरे लिये ज्यादा फायदेमंद होने लगेंगे। यह भी सम्भव है कि छ महीने-साल भर में यह एप्प मेरी ही आवाज में वेब पेज या पुस्तक सुनाने लगे। वह कुछ वैसा होगा मानो मैं खुद सस्वर पढ़ रहा होऊं!
सुनने का अनुभव मजेदार भी है और समय भी कम लगता है पढ़ा हुआ ग्रहण करने में। स्पीचीफाई के अनुसार आधा समय लगता है।
टेक्नो-फ्यूडलिज्म पर वापस लौटते हुये …
यहां गांव में आर्थिक और सामाजिक असमानता की बहुलता मैं व्यापक तौर पर देखता हूं। एक दो फ्यूडल लॉर्ड हैं। बाकी प्रजा। ऐसा सदियों से चलता आया है। कुछ ढह रहा है सामंती प्रभाव, पर अब भी, उसका काफी असर है।

यानिस वारोफेकिस वैश्विक अर्थजगत में जिस टेक्नो-फ्यूडलिज्म की बात कर रहे हैं, उसमें और इस गंवई-सामंतवाद में सटीक मैपिंग नहीं दिखती पर कुछ समानता तो है।
गांव के स्तर पर मेरे साले साहबों का दबदबा है। गूगल, मेटा, अमेजन और एप्पल जैसे हैं ये। आपस में द्वेष/वैमनस्य (मैं उसके लिये परिद्वद्न्व – परिवार+द्वंद्व नामक शब्द बनाता हूं) के बावजूद कहीं न कहीं उनमें डेमी-गॉड और शेष सब प्रजा होने वाला भाव है।
तकनीकी स्तर पर टेक कम्पनियों का वैसा ही हाल है। इन सब में भी गलाकाट स्पर्धा के लिये शब्द है frenimy. इन सब में मित्रतापूर्ण शत्रुता है।
टेक कम्पनियों की सामंतशाही शायद अनचैलेंज्ड नहीं है। वैश्विक जनता उतनी भोंदू नहीं है जितनी गांव के स्तर की ‘प्रजा’ है। सरकारें भी इन टेक कम्पनियों पर नकेल कसने का प्रयास करती रही हैं। पर आर्थिक असमानता गांव के स्तर पर जैसी है, वैसी ही इन कम्पनियों और बाकी सब के बीच है।
पिछले सौ दो सौ साल में गांव के सामंतों ने गरीबों से जमीन औने पौने भाव पर लिखाई-हड़पी है। अब जमीन पर प्रीमियम कम होने लगा है इसलिये जमीन का अब व्युत्क्रमित स्थानांतरण होने लगा है। अब सवर्णों से जमीन अहीर, मौर्य, पटेल आदि खरीदने लगे हैं। इस लिखाने/हड़पने की तर्ज पर बहुत सी कम्पनियां दिखती हैं जिन्हे इन टेक-जायेण्ट्स ने अपने मेंं मिला लिया है। मैं एण्ड्रॉइड पर स्विफ्ट-की का प्रयोग करता रहा हूं। अब वह माइक्रोसॉफ्ट के पास आ गयी है। गुडरीड्स अब अमेजन के पास है। मोटोरोला गूगल के थैले में है। इसी तरह आगे आने वाले समय में स्पीचीफाई और चैटजीपीटी भी किसी न किसी बड़ी छतरी के अंदर आ जायेंगे। देर सबेर!
टेक्नो-फ्यूडलिज्म के तत्व दुनियां में नजर आते हैं! पर लोगों में जागृति, सरकारों का सजग होना और आपस में सहयोग करना, डाटा के स्वामित्व पर परिष्कृत सोच – यह सब शायद टेक सामंतशाही को महाबली बनने से पहले ही वश में कर ले।
साम्यवाद तारतार हो गया मेरे जीवन के दौरान। समाजवाद (भारत में) परिवारवाद मात्र बन कर रह गया है। पूंजीवाद क्या इसी तरह खत्म हो कर टेक-सामंतवाद को इलाका सौंप दे देगा? आगे क्या होगा, समय ही बतायेगा।
फिलहाल, मैं सोचने लगा हूं कि यानिस वारोफेकिस की टेक्नो-फ्यूडलिज्म पर किताब खरीदी जाये या नहीं। :lol:

An hour ago, I was scrolling through twitter, came across a tweet of yours, checked the profile, saw the link of blog, clicked it and read multiple articles. Both, you and Mr. Premsagar, are quite interesting. I would really love to read more. Tis quarter past midnight, so, can’t just finish right but will. Thank you❤🙏. (Wrote in English, because it would take an hour for me to type the same in Hindi.)
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Thanks! I would like to write sometomes in English, but my readers do not want me to do that! Besides, my practice of using English Key Borad has also become sluggish. But I shall try!
Besides, you can always comment in English! Welcome.
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आपने ये पोस्ट लिख कर लोगों को लगता है सकते में डाल दिया है। सन्नाटा छा गया है। वैचारिक रूप से गाँव में शायद बौद्धिक आदान-प्रदान की उतनी आवश्यकता नहीं पड़ती है, इसलिए शायद लोग उतना दिमाग नहीं खपाते हैं बौद्धिक चर्चा में। फिर भी आप इतना कुछ कर पा रहे हैं ये पढ़ कर हैरानी होती है। कुछ वर्षों पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
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आपने मेरी प्रशंसा में यह सब कहा, वह पढ़ कर मुझ पर दबाव बन गया है। दबाव यह कि मात्र दिखावा न करूं, वास्तव में अपनी बौद्धिक उन्नति पर ध्यान दूं!
आपको बहुत धन्यवाद!
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