दीनानाथ की मेहरारू

वह शिवाला बगल के गांव, भगवानपुर में, मेरे घर से आधा किलोमीटर की दूरी पर है। वहां से साइकिल मोड़ कर घर लौटने के एक चक्कर में एक किलोमीटर साइकिल चलाना होता है। कुल 204 पैडल। साढ़े सात मिनट का समय। सब कुछ नपा तुला है। सामान्यत: शिवाला पर मैं रुकता नहीं, पर उस शाम शिवालय के सामने के परित्यक्त कुंये की मुड़ेर पर मैं बैठ गया।

कुछ समय पहले ही सफाई हुई थी मंदिर में। धोने के कारण नंदी के आसपास का फर्श गीला था। शिव जी आराम कर रहे थे। एक पर्दा लगा था उनके कक्ष पर। नंदी अवश्य मुस्तैद थे। मिनियेचर नंदी। उनके कान में अगर शिवजी के लिये अर्जी फूंकनी हो तो जमीन पर बैठ कर नहीं कहा जा सकता, लोटना ही होगा। वैसे इस शिवाला पर भीड़ नहीं जुटती; सो अपनी दरख्वास्त कान में कहने की बजाय अलानिया भी कही जा सकती है। … छोटे नंदी, छोटे शिवलिंग; पर श्रद्धा और दरख्वास्त तो बड़ी हो सकती है। मैं यह सब सोच रहा था।

हम सब किसी काम के निमित्त, किसी मनोकामना के वशीभूत ही तो जाते हैं भगवान के पास। मैं भी भगवान शंकर से याचना करता – सफलता दो भगवन। अढ़सठ की उम्र में भी सफलता की चाह! राजसिक वृत्ति अभी गली नहीं है।

मंदिर के शिलालेख से पता चलता था कि वह सन 1958 में बना। मेरे जन्म के ढाई साल बाद। मैं सीनियर सिटिजन बन गया हूं तो शिवाला भी पुरातन हो गया है। आबादी की दो तीन पीढ़ियाँ देख चुका है।

मुझे यूं ही बैठा देख बगल के घर से एक वृद्ध महिला निकल कर आई। शिवाला सम्भवत: उन्ही के परिवार का बनाया है। शायद उन्हीं की जमीन पर हो। मेरा परिचय पूछा उन्होने। यह जानकर कि मैं बाहरी नहीं, बगल के गांव का ही हूं, उन्हें कुछ संतोष हुआ।

वे एक कुर्सी निकाल लायीं घर से और जब मैने उन्हे बैठने को कहा तो वे पास में जमीन पर ही बैठ गयीं। मुझे कुर्सी पर बिठाया। फिर बात हुई। उन्होने इस मंदिर का निर्माण होते नहीं देखा। मंदिर बनने के दो साल बाद वे इस गांव में आई थीं। बहू बन कर। मैने त्वरित गणना की। चौदह-पंद्रह की तो रही होंगी जब उनका गौना आया सन 1960 में। उनकी पैदाइश 1945-46 की होगी। अर्थात उम्र सतहत्तर-अठहत्तर की। मुझसे कम से कम दस साल बड़ी।

उनके शरीर पर अतिरिक्त मांस नहीं था। इकहरा शरीर होने का एक अलग सौंदर्य होता है। वह था। हंसमुख चेहरा। मेरी अम्मा भी उनकी जैसी सुंदर थीं। अम्मा का वजन कुछ ज्यादा था, वर्ना इनके जैसे लगतीं। वैसे, मेरी छोटी मौसी, जिन्हे मैने तीन दशकों बाद दो साल पहले देखा था, इन्ही के जैसे लगती हैं। इनका नैसर्गिक हास्य मेरी अम्मा की हंसी से ज्यादा सहज था। उनके साथ बातचीत करते समय बरबस मुझे अम्मा, नानी और मौसी की याद आती रही। देश के इस इलाके में उम्रदराज महिलायें अपनी मां, आजी, काकी, बुआ, मौसी जैसी लगती हैं। शरीर की वैसी बनावट, वैसे ही सीधे पल्ले का सिर पर रखा आंचल, वैसे ही मिनिमल आभूषण।

घर गांव में उनसे उम्रदराज लोग जा चुके। सबसे बड़ी अब वे ही हैं। ऐसा उन्होने बताया। ऐसा कहने में उनके स्वर में बहुत दुख का भाव नहीं आया। यूं बताया कि वह एक सत्य का वर्णन हो। जीवन की गति और नश्वरता सम्भवत उन्होने स्वीकार कर ली है। मैने आशा व्यक्त की कि अभी उन्हें दो-ढाई दशक और चलना चाहिये। शरीर और मानसिक चैतन्यता से तो वे लम्बा चलने योग्य लगती हैं। उनका हास्य भी निश्छल और उन्मुक्त है। शारीरिक स्वास्थ्य और तनावहीनता, आसपास से सामाजिक कनेक्टिविटी – और क्या चाहिये दीर्घायु के लिये? उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। बढ़ती उम्र को कैसे सहजता से लिया जाये, वह जरूर सीखा जा सकता है। अन्यथा मेरे मन में जब भी जरा और मृत्यु की बात उठती है तो जबरन एक बात मन में ठूंसता हूं – अभी तीन दशक और जीना है। मानो लम्बा जीना ही जीवन का ध्येय हो!

पास में ही एक नल का ढांचा स्थापित किया दिखा। गांव में नल से जल आने वाला है। पहला नल शायद शंकर जी की पिण्डी के पास ही लगाया गया। पर उसमें पानी नहीं आया है। टोंटी भी नहीं लगी है। उन महिला ने बताया कि पानी की टंकी बन चुकी है। कहीं कहीं पानी आ भी रहा है, पर शंकर जी के पास नहीं आया! “पहला जल तो यहीं आना चाहिये था!”

उन्होने मुझे चाय पिलाने की पेशकश की। मैने नम्रता से मना किया। आजकल शाम साढ़े पांच बजे तक दिन का अंतिम भोजन कर ले रहा हूं। टाइम रिस्ट्रिक्टेड ईटिंग का प्रयोग। मेरे दिन के अंतिम भोजन का समय होने जा रहा था। मैं घर वापस लौटने की सोचने लगा।

चलते चलते मैने अनुरोध किया – “आपकी हंसी बहुत सहज है। एक फोटो ले लूं?”

“हंसी की काहे? मुंह में एकौ दांत नहीं हैं। उसके बिना हंसी कैसी?” उन्होने कहा। पर फोटो खिंचा लिया। फोटो खिंचाते मुंह गम्भीर सा हो गया तो एक बार फिर सहज हंसी का पोज देने का अनुरोध मैने किया। पता नहीं, पोज देने के अनुरोध पर उन्होने अपना पोपला मुंह सयास खोला या मेरे कहे पर उन्हें अनायास हंसी आ गयी।

चलते चलते मैने उनसे उनका नाम पूछा। उन्होने बताया – लोग उन्हें ‘दीनानाथ की मेहरारू (पत्नी)’ के नाम से जानते – सम्बोधित करते हैं। वही नाम है। छ दशक पहले इस गांव में बहू बन कर आई वे अब यहीं की हो कर रह गयी हैं। यहां तक कि उनका नाम भी यहीं का हो गया है। महिलाओं की आईडेण्टिटी किसी की बहू/पत्नी/माई के रूप में ही होती है। दीनानाथ जी की मेहरारू ने अपने को उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।

गांव देहात में मैं लोगों से मिला हूं, पर महिलाओं से कम ही मिला हूं। बढ़ती उम्र शायद अब उनसे बोलने-बतियाने की झिझक कम कर रही है। उम्र बढ़ने के साथ शायद इस वर्ग को भी समझा जा सकता है। या शायद गांव की महिलाओं से बातचीत करने के लिये मुझे अपनी पत्नीजी के साथ घूमना चाहिये।

बगल के गांव की हैं तो फिर कभी मुलाकात होगी ही ‘दीनानाथ की मेहरारू’ जी से!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “दीनानाथ की मेहरारू

Leave a reply to Gyan Dutt Pandey Cancel reply

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started