अमरनाथ बिंद, दर्जी

कटका रेलवे स्टेशन के बगल में है अमरनाथ की दुकान। मेरे घर से रेलवे लाइन पार कर एक किलोमीटर की दूरी पर।

एक दिन मुझे सूझा कि अपने पुराने कपड़े दुरुस्त करवा लूं। दो पैण्टें बीस पच्चीस साल पुरानी हैं। उनका कपड़ा दुरुस्त है पर जेबें घिस गयी थीं। एक की जिप भी खराब थी। तीन कमीजें थीं, जिनके कॉलर घिस गये थे और उन्हें उलटवा कर नया कराना था। वैसा करने से उनकी मियाद कम से कम एक दशक और बढ़ जानी थी। पुराने कपड़े दुरुस्त करने के काम पर आमतौर पर दर्जी हीलाहवाली करते हैं। काम ज्यादा होने की बात कहते हैं। कपड़े ले भी लिये तो भी चार पांच चक्कर लगवाते हैं। अमरनाथ ने वैसा कुछ नहीं किया। दूसरे-तीसरे दिन कपड़े ठीक कर मुझे लौटाये और पैसे भी बहुत कम लिये।

वे पैण्टें और कमीजें मुझे प्रिय लगती हैं। वे उस जमाने की हैं जब मेरा वजन 74-78 किलो हुआ करता था। अब चौंसठ किलो पर सूई बैठ रही है। कपड़े ढीलेढाले हैं और इस उम्र में कपड़े कुछ ढीले ही होने चाहियें। बढ़ती उम्र के साथ कुछ खर्चे कम हो जाते हैं। कपड़ोंं पर खर्च का मद उनमें से एक है। अमरनाथ ने मेरा खर्च कम करने में मदद की।…यूज-एण्ड-थ्रो युग के फैशनेबल लोग अब कमीज के कॉलर उलटवाते हैं या नहीं? शहर में शायद कॉलर उलटने का काम करने वाले कारीगर न मिलें। गांव में अमरनाथ मुझे मिल गये। आम तौर पर कॉलर उलटने पर ऊपर वाला बटन गलत तरफ हो जाता है। अमरनाथ ने वह भी सुनिश्चित किया कि कॉलर का बटन और काज सही तरफ हो!

मेरे लिये यह सुखद अनुभव था। अमरनाथ ने काम भी मेरे मन मुताबिक किया और समय पर भी किया।

घर में एक पैण्ट पीस पड़ा था। मैने उसको ले जा कर अमरनाथ को सिलने के लिये दिया। मुझे नये पैण्ट की जरूरत नहीं थी। इस उम्र में नये कपड़े कहां चाहिये होते हैं! पहले के जितने पड़े हैं, उनका ही उपयोग नहीं हो पा रहा। पर सिलाने का निर्णय इसलिये किया कि अमरनाथ को पुराने कपड़े दुरुस्त करने भर का नहीं, नया सिलने का काम देना था।

अमरनाथ ने सिलाई बताई ढाई सौ रुपये। मेरी पत्नीजी ने कहा – “यह रेट तो बहुत कम है। जरूर कपड़ा बेकार कर देगा। गांव के दर्जी से सिलवाने का जोश चढ़ा है, तो रेमण्ड का अच्छा पैण्ट पीस खराब हो जायेगा। बेहतर होता कि एक दिन बनारस चल कर फलाने टेलर्स को नाप दे आते।”

पर अमरनाथ ने बढ़िया सिला। उम्मीद से ज्यादा अच्छा। मेरे घर पर आ कर सिला हुआ पैण्ट दे गया। “गुरुजी, बार बार आपको दुकान पर आना न पड़े, इसलिये घर पर ही ले आया हूं। आपके बगल के गांव मेदिनीपुर में ही मेरा घर है। नया-पुराना, जौन भी काम हो मुझे दीजियेगा। मेरे फोन नम्बर पर आप बता जरूर दीजियेगा कि काम कैसा किया मैने। कल सवेरे दस बजे मैं फोन कर आपसे पूछूंगा।” – अमरनाथ ने कहा।

उसने जेबों के लिये अच्छा कपड़ा खरीद कर लगाया था। मैने उसके लिये पचास रुपये और दिये। पैण्ट की सिलाई पड़ी तीन सौ रुपये। नाप कर देखा तो मेरे मन-मुताबिक ही निकला। कोई नुक्स नहीं तलाश पाया मैं। मेरी पत्नीजी का भी अमरनाथ पर विश्वास बढ़ा।

गांव और शहर के कारीगर का अंतर? यह द्वंद्व चलता ही रहता है। कई ग्रामीण कलायें विलुप्त हो गयीं। कई कारीगर गुमनाम रह गये। कई व्यंजन गंवई-देसी का टैग ले कर उपेक्षित रहे। अमरनाथ कुछ वैसा ही है। उसे काम मिले और प्रयोग करने के अवसर तो शायद वह दर्जी के काम में भी श्रेष्ठता अर्जित कर सके। उसने एक “बड़े” भूतपूर्व नौकरशाह के मनमुताबिक पतलून आखिर सिला ही। यह अलग बात है कि वह नौकरशाह मूलत एक लदर-फदर टाइप जीव ही है!

घर में एक कमीज का कपड़ा भी बचा है। अच्छी ब्राण्ड का कपड़ा। मेरी पत्नीजी उसे कभी अमरनाथ से सिलवाने के लिये देंगी या बनारस के किसी फलाने टेलर्स के सामने मुझे खड़ा कर नाप दिलवायेंगी, मैं निश्चित नहीं हूं। वे अपने पति को नफासत वाला जीव बनाना चाहती हैं। पर मैं साइकिल पर चलने वाला, थैले में सब्जी-भाजी-किराने का सामान लाने वाला और टोका न जाये तो ढीले-ढाले पायजामे-कुरते में रहने वाला जीव ही हूं; मूलत:। अमरनाथ मेरे परिवेश में बिल्कुल फिट बैठता है।

अमरनाथ गांव में ही क्यूं रह गया? शहर क्यूं नहीं गया अपना हुनर अजमाने? कभी पूछना होगा। वह थोड़ा ऊंचा सुनता है। पर ऐसा नहीं कि सम्प्रेषण में कोई तकलीफ हो। उसकी दुकान पर या चाय की चट्टी पर उसके साथ बैठा जा सकता है।

अमरनाथ बिंद एक और पात्र है मेरे गांवदेहात का, जिसके बारे में जानना चाहूंगा। उसकी दुकान में तीन तीन सिलाई मशीनें हैं। अन्य कारीगर भी वहां दिखते हैं। पता नहीं वे अमरनाथ के एम्प्लॉयमेण्ट में हैं या अमरनाथ से सीख रहे हैं। वह सब भी समझना है। वह एम्प्लॉयर है और मैं छुट्टा घूमता व्यक्ति। इस हिसाब से उसका दर्जा मुझसे ऊंचा हुआ। पता नहीं, अमरनाथ को इसका अहसास है या नहीं। वह तो यही दर्शाता है कि मेरा पैण्ट सिलना उसके लिये फख्र की बात है!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “अमरनाथ बिंद, दर्जी

  1. मजेदार! मैंने पाया है कि शहरों में दर्जियों में भी hierarchy है. नया कपडा सिलने वाले और alteration करने वाले! नया कपडा सिलने वाले alteration अपने सिले ड्रेस का ही करेंगे, दूसरे का बिलकुल नहीं। अल्टरेशन वाले दरजी आपको मुंबई में हर दूसरी दूकान के आगे बैठे मिल जायेंगे। मामूली अल्टरेशन का १०० से २०० रुपये लेते हैं! मेरा brand-conscious बेटा अब कमाने लगा है तो इस सुविधा को सुविधा मानने लगा है! यहाँ रफूगर भी हर ड्राई क्लीनर की दूकान के आगे बैठा मिलेगा! जाहिर है एक बड़ा तबका है जो use and throw में अब भी विश्वास नहीं करता! और तो और, मेरी अमरीका में रहने वाली २ मौसेरी बहनें हर ट्रिप में अपने टूटे सैंडिल चप्पल तक लाती हैं यहाँ मोची से ठीक करवाने!

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    1. “मेरी अमरीका में रहने वाली २ मौसेरी बहनें हर ट्रिप में अपने टूटे सैंडिल चप्पल तक लाती हैं यहाँ मोची से ठीक करवाने!”
      यह मेरे लिये खबर है! मैं तो सोचता था कि वहां बड़ी शाहखर्ची है!
      … शायद उनमें भारतीय किफायत-मानसिकता अभी गयी नहीं! :-)

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