बेलपत्र तोड़ने वाला संजय

वह लड़का, संजय बिंद, चौदह-पंद्रह साल का होगा। मेरे पड़ोस में रहता है। एक दिन मिर्जापुर के आगे – यहां से अस्सी किलोमीटर दूर जंगलों मेंं जाता है। बेल की पत्त्तियां चुनता है। दूसरे दिन परिवार का कोई अन्य सदस्य या वही खुद बेलपत्र की गठरियां ले कर वाराणसी जाते हैं। बाबा विश्वनाथ मंदिर के पास गदौलिया में बेलपत्र और दूब की सट्टी लगती है। वहां बेच कर वापस लौटते हैं।

बहुत मेहनत का काम है। संजय की मां बताती है कि बेलपत्र चुनने के लिये लग्गी से काम नहीं चलता। बेल के पेड़ों पर चढ़ना होता है। बेल के कांटे हाथ पैर में चुभ जाते हैं। खून भी निकलते लगता है। कभी कभी पत्तियां कम होती हैं पेड़ों में तो ज्यादा दूर तक जंगल में “हिलना (घुसना)” पड़ता है। बेलपत्ता संग्रहण में मेहनत भी है और जोखिम भी। किशोर वय का संजय किसी कॉलेज-स्कूल की बजाय बेल के जंगल छानता है जीविका के लिये।

बेलपत्ता उनकी जीविका भी है और सामाजिक-आर्थिक उन्नति का कारक भी। संजय ने नई नई मॉपेड खरीद ली है इसी बल पर।

बेलपत्ता उनकी जीविका भी है और सामाजिक-आर्थिक उन्नति का कारक भी। संजय ने नई नई मॉपेड खरीद ली है इसी बल पर। उसपर बेलपत्र की गठरियां लाद कर जंगल और बनारस के चक्कर लगाना सुविधाजनक हो गया है। मॉपेड से ज्यादा बेलपत्र, ज्यादा सुविधा और ज्यादा आमदनी। इस आमदनी से वह व्यवसायिक उन्नति की सोचेगा या इसी मिर्जापुर-बेलपत्र-बनारस के चक्कर में रहेगा?

उस दिन पुलीस वाले आ गये थे। जौनपुर से। एक प्लेनक्लोद में था, दूसरा वर्दी में। इनके पास एक मोबाइल की कॉल डीटेल्स के प्रिण्टआउट थे। संजय ने कुछ महीने पहले बनारस से बेलपत्र बेच कर आते हुये किसी अपरिचित से चोरी का मोबाइल खरीद लिया था। मोबाइल शायद किसी जज साहब के परिवार वाले का था। इसी कारण पुलीस ने उसे तलाशने में तत्परता दिखाई थी और ढूंढते हुये यहां पंहुचे थे। बीचबचाव के लिये संजय की मां मेरे साले साहब के यहां गयी, पर उनके न होने पर मेरे यहां आई। पुलीस वाले से मुझे बात करनी पड़ी।

पुलीस वाले सज्जन थे। शायद साइबर क्राइम वाले थे। थाने के उज्जड्ड और अभद्र नहीं। उन्होने मुझे पूरी डीटेल्स दिखाईं। मैने उन्हें कहा कि लड़का 14-15 साल का है। जुवेनाइल होने के कारण वे उसे उठा कर नहीं ले जा सकते। उन्होने सिम लौटा कर मोबाइल ही जब्त किया। कोई स्टेटमेण्ट भी नहीं लिया। वर्दी पहने पुलीस वाले ने (अपना नाम बताया, नौशाद) मुझे कहा – सर, वादा करता हूं; मैं इस लड़के को उठाऊंगा नहीं।

संजय को पकड़ कर तो नहीं ले गये पर अलग ले जा कर संजय के परिवार वालों से एक हजार रुपये “खर्चापानी” के ले ही लिये। आखिर जौनपुर से यहां तक आये जो थे! प्रकरण में मेरी पत्नीजी ने मुझे क्रेडिट दिया – “तुम्हारे घर और तुम्हारे बातचीत के लहजे का असर होगा, वर्ना ज्यादा दबेरते संजय और उसके परिवार को। हजार रुपया देना उन लोगों को अखरा नहीं होगा। पुलीस का इतना हक तो बनता है!”

साढ़े छ हजार का फोन गया। ऊपर से हजार रुपये भी। पुलीस से फजीहत भी हुई अलग से। पता नहीं संजय को समझ में आया होगा या नहीं कि स्मार्टफोन की ललक और उसमें पब्जी-लूडो खेलना कोई अच्छी बात नहीं। इसी पैसे का उपयोग व्यवसाय की बढ़ोतरी और स्वास्थ्य पर होना चाहिये। … पर मेरा कहा वे लोग समझते नहीं। मेरे साले साहब उनसे अपशब्द-अलंकृत भाषा में बोलते हैं तो वह उन्हें समझ आता है और ज्यादा आत्मीय भी लगता है। उन्हे मलाल होगा कि “चच्चा होते तो पुलीस वालों से रोब से बात करते!” :lol:

संजय शाम को बेलपत्र तोड़ कर आया था। हेण्डपम्प पर अपना पैर-हाथ धो रहा था। उसकी बेलपत्रों की गठरियां एक ओर रखी थीं।

एक दिन संजय के घर जा कर देखा। संजय शाम को बेलपत्र तोड़ कर आया था। हेण्डपम्प पर अपना पैर-हाथ धो रहा था। उसकी बेलपत्रों की गठरियां एक ओर रखी थीं। उसकी माँ ने बताया – संजय अब रात का भोजन करेगा। फिर सो जायेगा। सवेरे चार बजे उठ कर माँ और बहनें तोड़ी गयी पत्तियां उस तरह से चुनेंगी, जैसी बाबा विश्वनाथ मंदिर में दरकार होती है। सात बजे संजय उन्हें ले कर बनारस जायेगा। देर दोपहर में बेच कर वापस लौटेगा। अगले दिन फिर जंगल का चक्कर!

“एक रोज मंदिर के पुजारी जी कह रहे थे कि तुम लोग बहुत मेहनत करते हो। बाबा के असल भगत तो तुम लोग ही हो।” – मां ने कहा।

पहले पहल जब बेलपत्र वालों से मुलाकात हुई थी, तब मैं रिटायर हो कर गांव आया ही था। तब से अब तक इसी बेलपत्र की बदौलत उनकी आर्थिक दशा में बहुत उन्नति हुई है। सब बाबा विश्वनाथ की कृपा है। इनका व्यवसाय कोरोना काल में भी अवरुद्ध नहीं हुआ था। और अब तो विश्वनाथ मंदिर में भक्तों की भीड़ कई गुना बढ़ गयी है। बेलपत्र की मांग भी कई गुनी हो गयी होगी। मिर्जापुर के बेलों के जंगल पता नहीं बाबा विश्वनाथ की मांग पूरी करने में हाँफ तो नहीं रहे।

मन होता है कि संजय के साथ एक दिन मिर्जापुर के आगे जंगल में और दूसरे दिन बनारस की बेल-पत्र-मण्डी में जा कर देखा जाये। मन तो मन ही है!

संजय बिंद

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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