आखिर सुंदरलाल आ ही गये!


“हां, भीड़ त रही। लहाई क बैठि ग रहे।” सुंदर साठ से ज्यादा उम्र का है। लम्बी दूरी की ट्रेन में, बिना आरक्षण की बोगी जिसमें लोग ठुंसे रहते हैं, उसमें भीड़ उसके लिये कोई बहुत असुविधा की बात नहीं है।

विवेक और वाणी की माता पिता की सुध


जैसे शिखर पर बहुत एकाकीपन होता है उसी तरह सेवाभाव भी एकाकीपन वाला होता है। अगर आपको उसमें सेल्फ मोटीवेशन न हो तो बहुत जल्दी लोगों की छोटी बड़ी जरूरतों को पूरा करना और उपेक्षा भी झेलना ऊबाऊ बन जाता है।

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