सवेरे की चाय

शाम पांच बजे से सवेरे सात बजे के बीच भोजन न करने की आदत छ महीना बीतने के बाद भी शरीर पूरी तरह अपना नहीं पाया है। जब सवेरे की चाय के साथ व्रत टूटता है तो गबर गबर खाने का मन होता है। आंतें कुलबुला रही होती हैं। उसमें एक कप चाय और बिस्कुट/मठरी/नमकीन से कुछ सधता नहीं।

इसलिये व्रत तोड़ने का अनुष्ठान कुछ ज्यादा ही विस्तार लिये होने लगा है।

हम – मैं और पत्नीजी सवेरे चार साढ़े चार बजे उठते हैं। पहले चार बजे का अलार्म लगाते थे तो हनुमान जी समय से पहले ही, साढ़े तीन बजे उठा दिया करते थे। हनुमान जी से विनय की कि भगवन आठ घंटे की नीद का वरदान दें। सवेरे पांच से पहले न उठाया करें। हनुमान जी ने बड़ी अनिच्छा से हमारी बायोलॉजिकल क्लॉक कुछ और देर तक सोने के लिये सरकाई। अब साढ़े चार उठाते हैं तो हनुमान जी शायद सोचते होंगे कि ये भगत-दम्पति उम्र के साथ साथ बिगड़ रहे हैं।

साढ़े चार बजे उठने पर साढ़े छ बजते बजते रसोई के चक्कर लगने लग जाते हैं। मन होता है चाय बना ही ली जाये। पंद्रह मिनट किसी तरह अपने को दिलासा देते हैं। ज्यादा नहीं रोका जाता। पौने सात बजे चाय बनाने का अनुष्ठान प्रारम्भ कर ही दिया जाता है।

एक बंदूक खरीद कर गिलहरी को मार डालने का हिंसक विचार मन में उठता है। ऐसे विचार चार पांच साल से उठते रहे हैं। पर फिर मन पलट जाता है। सर्दियों में कम गिलहरियों के ठंड में ठिठुरने की बात से परेशान भी रहते हैं। उन सब के साथ यह लव-हेट सम्बंध सतत कायम हैं।

घर में एक कोने पर लेमन ग्रास लगा रखा है। उसकी कुछ पत्तियां और चाय-चाय मसाला को एक कटोरी में रखा जाता है। एक कप लैक्टोज-फ्री दूध और उसके साथ पांच कप पानी मिला कर मैं आंच पर चढ़ा देता हूं। लेक्टोस-फ्री दूध बनाने की एक अलग प्रक्रिया है। एक दिन पहले आधा किलो दूध में लेक्टेस एंजाइम की छ-सात बूंदे घोल कर चौबीस घंटे रख दी जाती हैं। अगले दिन चाय उसी से बनती है। ऐसा करने के पीछे धारणा है कि लेक्टोज-फ्री दूध आसानी से पचता है और उससे ब्लोटिंग (पेट में गैस बनना) नहीं होता। दूध-पानी उबलने पर चायपत्ती की कटोरी उसमें उलट कर दो तीन मिनट खौला कर चाय बनती है।

इतना विस्तार से चाय बनाने के बारे में लिखने का कारण यह है कि मैं सवेरे की चाय बनाने में डिप्लोमा हासिल कर चुका हूं। :-)

कुल सात सौ मिलीलीटर चाय (लोटा भर चाय) ले कर हम दोनो पोर्टिको में प्रकृति को निहारते चाय पीते हैं। हर व्यक्ति करीब तीन कप चाय पीता है।

एक दिन पहले दिन शाम को नौकरानी एक परांठा बना कर रख जाती है। चाय के साथ वह परांठा और रात के भिगोये बदाम-अखरोट-कोंंहड़े के बीज का सेवन होता है। साथ में चिड़ियों को खिलाने के लिये 65-70ग्राम नमकीन ले कर बैठना होता है जो चिड़ियों की मांग के आधार पर हम उन्हें डालते रहते हैं।

चाय पीते हुये चिड़ियों और गिलहरियों का व्यवहार देखना रोचक होता है। यह नोटिस किया जाता है कि आज लंगड़ी वाली भूरी मैना नहीं आई। गिलहरी के बच्चे तेजी से बड़े हो रहे हैं। बुलबुल एक नमकीन का बड़ा टुकड़ा ले कर फुर्र से उड़ी और तुलसी की झाड़ पर बैठ अपने जोड़ीदार के साथ शेयर किया। सामने के पेड़ से चीकू का एक अधखाया फल गिरा। जरूर गिलहरी ने काट कर गिराया है। ये गिलहरियां बहुत निकृष्ट हैं। इतना हम उनकी केयर करते हैं पर वे हमारे फलों पर धावा बोलने से गुरेज नहीं करतीं। जितना खाती हैं, उससे ज्यादा बरबाद करती हैं।

उनका फलों को बरबाद करना देख कर एक बंदूक खरीद कर गिलहरी को मार डालने का हिंसक विचार मन में उठता है। ऐसे विचार चार पांच साल से उठते रहे हैं। पर फिर जल्दी ही मन पलट जाता है। सर्दियों में हम गिलहरियों के ठंड में ठिठुरने की बात से परेशान भी बहुत रहते हैं। उन सब के साथ यह लव-हेट सम्बंध सतत कायम हैं।

प्रति व्यक्ति साढ़े तीन सौ मिलीलीटर चाय में भी काम नहीं चलता। नौकरानी से एक की बजाय दो पंराठा बनवाना प्रारम्भ किया गया। चाय की मात्रा भी बढ़ाई गई। एक लीटर चाय का थर्मस नहीं था तो एक छोटे थर्मस में बढ़ाई गई चाय की मात्रा ले कर बैठने लगे। यह तय किया गया कि बड़े थर्मस की सात सौ मि.ली. चाय खत्म करने के बाद एक पॉज लिया जायेगा। उसके बाद पत्नीजी चाय का छोटा थर्मस खोलने का प्रस्ताव रखेंगी और उसका मैं अनुमोदन करूंगा। तत्पश्चात थर्मस का ढक्कन खोला जायेगा।

फिरंगी लोग जिस प्रकार बूज पार्टी में कोई पुरानी शैम्पेन की बोतल निकालते हैं, बहुत कुछ वैसा सीन। मेजबान बोतल पर सील पर लिखा सन पढ़ता है। पचास साल पहले की शैम्पेन की घोषणा सुन कर मेहमान हर्ष-ध्वनि कर तालियां बजाते हैं। तब बड़ी शान से मेजबान शैम्पेन खोलता है और फर्र से शराब फव्वारे के रूप में बाहर निकलती है। … उसी अंदाज में मैं चाय के थर्मस का चूड़ीदार ढक्कन खोलता हूं। थर्मस के बीच हवा का तापक्रम कुछ कम होने से निर्वात हो गया होता है जो खोलने में दम लगाने पर चुक्क-चूं सी आवाज करता है। वह शैम्पेन की फर्र की आवाज का सिम्यूलेशन है। इस थर्मस से अतिरिक्त डेढ़-डेढ़ कप चाय हम दोनो और उदरस्थ करते हैं। अगर तब तक हमारा परांठा खत्म हो गया तो चिड़ियों की फीकी नमकीन में से कुछ हिस्सा भी चाय के साथ खा लेते हैं।

हरे भरे परिसर में प्रकृति के बीच उपवास खोलने के लिये आधा-आधा लीटर चाय सेवन! गर फिरदौस बर रुये जमीन अस्त्। अगर पृथ्वी पर स्वर्ग कहीं है तो वह सवेरे के चाय के इस अनुष्ठान में ही है।

यहीं है, यहीं है और यहीं ही है! :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

7 thoughts on “सवेरे की चाय

  1. बारिश हो रही है। मैं खिड़की के पास बैठा कॉफ़ी पी रहा हूँ। बाहर पानी की बूंदो को पत्तों से लुढ़कते हुए देख रहा था तो अचानक याद आया आपका ब्लॉग खोला जाये। हुआ ये की अब कॉफ़ी में मज़ा नहीं आ रहा और चाय-परांठों का कोई जुगाड़ नहीं है।
    सबके रिटायरमेंट के अपने -अपने प्लान होते हैं। चारों तरफ इतने फाइनेंसियल इन्फ्लुएंसर्स (या जो भी नाम आप दें उन्हें) हो गए हैं और इतनी काओं-काओं मचा रखी है की ऐसा लगता है की अगर आपके रिटायरमेंट फण्ड में 4-5 करोड़ रुपये नहीं हैं तो आपकी ज़िन्दगी बेकार है। उन्हें क्या पता की आप जैसे बहुत से लोग अपने जीवन का बेहतरीन समय बिता रहे है रिटायर होने के बाद। हम भी सीख रहे हैं आपसे। बहुत कुछ सोचने को मिलता है आपको पढ़ कर।
    अब इस कॉफ़ी को फ़ेंक कर चाय ( टी -बैग वाली) पी जाएगी। परांठों का जुगाड़ भी किया जायेगा, पर फिर कभी।

    R

    Liked by 1 person

    1. हाहा! परांठा चाय शायद नया प्रयोग हो। हमने पहले रोटी पर थोड़ा नमक-घी लगा हल्का गरम कर चाय के साथ लेने का प्रयास किया। फिर लगा कि कम तेल/घी वाला परांठा बेहतर है। पराठे बनाने में आधा सत्तू साना गया जिससे प्रोटीन भी मिलता रहे!
      रिटायरमेंट ऐसे प्रयोगों के लिये स्पेस खूब देता है।

      Like

Leave a reply to Gyan Dutt Pandey Cancel reply

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started