<<< कल्पना में रेल कथा >>> मैं मचान पर बैठता हूं तो आधा किलोमीटर दूर रेलवे फाटक से गुजरती ट्रेने देख मेरे अतीत से प्रेरित; पॉपकॉर्न की तरह, कथायें फूटने लगती हैं। कुछ इस तरह लगता है कि मैं अर्धनिद्रा में चला गया हूं और केलिडोस्कोप में सीन-प्लॉट-पात्र-घटनायें बन बिगड़ रहे हैं। जमीन से सात फुट ऊपर छोटे से स्पेस में सीमित मचान की तासीर है यह।
*** *** कल्पना में एक दूर दराज की हरिहर खंड (165 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन जिसके दोनो ओर जंक्शन यार्ड हैं) की इकहरी रेल लाइन है। हरिहर खंड पर केवल दो जोड़ा पैसेंजर ट्रेने चलती हैं। कोई मालगाड़ी नहीं। रेलवे का उपेक्षित सा खंड है यह। इसके आसपास के गांव के लोगों या छोटे बच्चों ने कभी मालगाड़ी देखी ही नहीं।
उधर मंडल के डिविजनल दफ्तर में डीओएम साहब, हरिशंकर जी बहुत परेशानी में हैं। मालगाड़ियां फंस गई हैं। हर स्टेशन पर दो तीन स्टेबल हो गई हैं। ज्यादातर खुले डिब्बे वाली हैं। हर मालगाड़ी में पचास से ज्यादा कोयला लदान के खाली डिब्बे हैं। डिवीजन से उन्हें बाहर निकालना उनकी प्राथमिकता है। मालगाड़ियां कहीं जायें, जहन्नुम में जायें पर उनके मंडल से बाहर जायें।
दो तीन बड़े एक्सीडेंट्स और सर्दी से रेल पटरियां टूटने के कारण महीना भर रेल यातायात प्रभावित रहा है। ट्रेनों की स्पीड कम रही है तो डिवीजन पर जितनी मालगाड़ियां होनी चाहियें, उससे दुगुनी फंसी हैं इस समय।
बगल में दूसरे जोन की डिवीजन का डीओएम, गोविंद राजू सुझाता है – उसको लाइमस्टोन लदान के लिये चार मालगाड़ियां चाहियें। उसके लोडिंग प्वाइंट हरिहर खंड के अंत पर ही हैं। अगर हरिशंकर खाली मालगाड़ियां उसके यहां भेज दे तो हरिशंकर सिस्टम भी हल्का हो जायेगा और गोविंद राजू को लदान के वैगन भी मिल जायेंगे।
क्या उचित होगा जर्जर हरिहर खंड पर माल गाड़ी ठेलना? आजतक उसपर मालगाड़ी नहीं चली। उसकी पटरियां, उनकी फिटिंग मालगाड़ी के लिये फिट भी हैं या नहीं, पक्का नहीं कहा जा सकता। उपेक्षित खंड के मेंटीनेंस पर इंजीनियर भी कम ही ध्यान देते होंगे। फिर जोन में बैठा बुढ़ऊ (चीफ फ्रेट ट्रेन मैनेजर – सीएफटीएम; हरिशंकर का बॉस) को पता चलेगा कि हरिशंकर ने खलिया बॉक्स वैगन लाइमस्टोन के लिये भेज दिये हैं तो वह हरिशंकर की बहुत ऐसी तैसी करेगा। बुढ़ऊ की प्रयॉरिटी कोयला लदान है, लाइमस्टोन नहीं।
कॉन्फ्लिक्टिंग प्रयॉरिटीज, फंसा हुआ माल यातायात और किसी तरह खाली मालगाड़ियों को मंडल से बाहर फैंकना – यह सब सोचने में हरिशंकर बहुत परेशान है। वह अंतत: तय कर लेता है कि खाली मालगाड़ियां बाहर निकालेगा हरिहर खण्ड पर। गोविंदराजू को फोन कर हरिशंकर कहता है – “गोविंद, अगली ट्रेन से एक जोड़ा क्र्यू (ट्रेन ड्राइवर, असिस्टेंट और गार्ड) भेजो। एक खाली मालगाड़ी रवाना करता हूं। सही सही पंहुच गई तो दूसरी और तीसरी भेजूंगा। कल सवेरे बुढ़ऊ से बातचीत के पहले तीन गाड़ियां तो निकालनी हैं। फिर जो होगा, देखी जायेगी। बॉस ज्यादा से ज्यादा मेरा ट्रांसफर करवा देगा न, करा दे। इस थर्ड क्लास डिवीजन में रहना कौन चाहता है!”
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सीन बदलता है। रेल फाटक से एक मालगाड़ी गुजर रही है। एक छोटा बच्चा देख कर अपनी माई की साड़ी में दुबकता है – हऊ देखु माई! कइसन गाड़ी बा। येहमें त कौनो खिडकी नाहीं बा। (देख अम्मा, यह कैसी गाड़ी है। इसमें तो खिड़की दरवाजे ही नहीं हैं। लोग कैसे चढ़ते, बैठते होंगे)।” छोटा बच्चा तो जानता ही नहीं मालगाड़ी क्या होती है! हरिहरखंड पर तो कोई मालगाड़ी चली ही नहीं।
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और बुढ़ऊ डांट लगाने की बजाय हरिशंकर को शाबाशी देते हैं। यह भी कहते हैं कि राजू से पूछ लो – और रेक चाहियें तो वे भी दे दो। थर्मल पावर हाउसों की डिमांड घट गई है। इतने सारे वैरियेबल हैं ट्रेन परिचालन में कि कब डांट पड़ेगी और कब शाबाशी मिल जायेगी, कहना कठिन है।
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हरिशंकर की तरह तनाव मैने पूरी रेल जिंदगी में झेले हैं। ये तनाव किसी आम आदमी को, यहां तक कि मेरे अपने कर्मचारियों – स्टेशन मास्टरों या ड्राइवर-गार्ड आदि को – भी समझ नहीं आते होंगे। रेल परिचालन में बहुत सारी अनिश्चिततायें हैं। उनसे निपटने के लिये हर समय आपको सतर्क रहना होता है। पर आपका जीवन उस तनाव में एकाकी होता है। अपना बोझ टांगने के लिये कोई खूंटी नहीं मिलती। … अब वह सब अतीत हो गया है। अब सारा तनाव पिघल चुका है। यादें बची हैं।
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मचान पर बैठ कर मुझे लगता है कि मेरी कहानी बुनने की क्षमता विकसित हो जायेगी अगर मैं ज्यादा समय मचान पर बिताता रहा। कहानियों के प्लॉट में धीरे धीरे और रंग भर जायेंगे। हरिहरखण्ड, हरिशंकर, गोविंद राजू और जोनल हेडक्वार्टर में बैठा बुढ़ऊ और भी जीवंत हो उठेंगे। मेरा अतीत, मेरे अनुभव उन्हें विविध रंग देंगे। … तिलस्मी जगह बन जायेगा मचान!
[चित्र – मचान पर बैठा मैं।]


आपकी लिखी कहानी तो बनती ही है।
जैसा आपने लिखा है उससे समझ आता है कि आपके प्रोफेशनल अनुभव का टच उसमें जरूर रहेगा।
और यही बात पाठकों को आकर्षित करेगी क्योंकि हम सब रेलवे के यात्री ही रहे मने हम फेंस के इस पार वाले, लेकिन आपकी कहानी फेंस के उस पार वालों की बात करेगी। यही वह कारण होगा कि पाठक पसंद करेंगे, ऐसा मुझे लगता है।
प्रतीक्षा रहेगी।
संजीत त्रिपाठी
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हाहा! अब हम फैंस के दोनो ओर हैं!
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” Machan Series” Is getting interesting with every passing series.
mai to pahle bhi hook up tha, ab to glued ho gaya hun
::))
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जय हो!
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लगता है, शतरंज के खेल की तरह रेल परिचालन भी नजीर पर कम और परिस्थितिजन्य त्वरित निर्णयों पर अधिक निर्भर रहता है।
जीवन का अधिकांश जिस परिवेश में जीया हो उससे निस्पृहता संभव नहीं हो पाती है। मैं तो सेवा निवृति के 18 वर्ष के उपरांत भी बहुधा अनजाने ही विगत स्मृति से दो चार होता रहता हूं। यह स्वाभाविक ही है।
मचान पर बैठ कर दूर तक देखने की क्षमता के कारण कभी कभार महाभारत के संजय सी दिव्य दृष्टि उपलब्धि का भी भान होता होगा। कुल मिला कर बिना काया कष्ट के वृहत्तर दृष्टि भ्रमण का जुगाड़ हो गया। दैनिक जीवन की समरसता से भी निजात मिल गई।
नोट: इस मचान का प्रयोग गृह स्वामिनी से वाकयुद्ध के उपरांत कोपभवन की तरह करना आपके स्वास्थ्य के प्रतिकूल होगा।
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आप सही कह रहे हैं। अपनी स्मृतियों का शमन शायद उन्हें कलम दिखाने से ही सम्भव है!
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