<<< शिवकुमार झाड़ू लगाता है >>>
वह देखने में जवान लगता है पर उसकी उम्र इतनी कम भी नहीं होगी। चालीस से पैंतालीस के बीच हो सकता है। इकहरा बदन है तो उम्र पता नहीं चलती। मेरी पत्नीजी को वह दीदी बोलता है। गांव में दो-तीन तरह के लोग हैं। एक तो मेरी पत्नीजी को दीदी बोलते हैं। वे पैंतालीस-पचास या उससे ऊपर के होते हैं। उससे कम वाले बुआ कहते हैं। और छोटे बच्चे दादी भी कहने वाले हैं। शिवकुमार पहले सेगमेंट में आता है।
गांव की दलित बस्ती का है शिवकुमार। पहले मेरे साले साहब के घर पर नौकरी करता था। घर की साफ सफाई और रोटी-सब्जी-चाय बनाना उसका काम था। साले साहब अकेले रहते थे। दिन भर नेतागिरी में अपने क्षेत्र में घूमते थे तो घर का ध्यान रखने के लिये शिवकुमार ही होता था। मैं जब अपने घर में किताबों से ऊब जाता था तो कभी कभी साले साहब के घर जा कर बैठ जाता था। साले साहब तो होते नहीं थे, शिवकुमार मांगने पर एक कप चाय बना कर देता था। एक कप चाय पी कर, कुछ देर वहां गुजार कर मैं वापस आता था। उससे ज्यादा परिचय नहीं था शिवकुमार से।
नौ साल में समय बदल गया है। साले साहब नेता की बजाय अब उद्यमी बन गये हैं। सवेरे से अपने पैट्रोल पम्प पर काम धाम देखते हैं। घर उनकी पत्नी सम्भालती हैं। शिवकुमार की जगह उसी की बस्ती की एक दो महिलायें घर में नौकरानी का काम करती हैं। शिवकुमार को पेट्रोल पम्प पर काम मिल गया है।
शायद कम पढ़ालिखा होने के कारण शिवकुमार को वाहनों में पेट्रोल-डीजल भरने के काम में नहीं लगाया गया है। उसे वर्दी तो उसी तरह की मिली है पर काम वह ऑफिस ब्वाय का करता है। ऑफिस में नौकरी के साथ साथ वह घंटे भर के लिये साले साहब के घर पर भी आता है। उनके बाहर के लॉन की साफसफाई करता है और उनकी कुकुरिया को बाहर खोल कर बांधता है। कुकुरिया को शायद दूध रोटी और अंगरेजी तरीके का डॉग फूड दिया जाता है। वह देना भी शिवकुमार के जिम्मे है।
शिवकुमार जिस तरह की झाड़ू से सफाई करता है, वह मुझे बहुत अच्छी लगती है। मुझे लगता है कि अगर पंद्रह मिनट रोज मैं उस झाड़ू से अपना लॉन बुहारूं तो मेरे हाथ की अच्छी वर्जिश हो जाये। एक बांस की डण्डी से सींक वाली झाड़ू बांध कर शिवकुमार ने हमारे यहां के लिये वह बना दी है। पर झाड़ू खुद लगाने की बजाय मैने वह काम शिवकुमार को ही दे दिया है। रोज के मेहनताने के बदले। शिवकुमार अब हमारे घर भी सप्ताह में तीन बार झरी हुई पत्तियों की मात्रा के अनुसार झाड़ू लगाता है।
वह सवेरे आ कर मेरी पत्नीजी और मुझे पैलगी करता है। पैलगी में वह कभी शॉर्टकट नहीं अपनाता। उसके बाद अगर हम चाय पी रहे होते हैं तो एक कप चाय उसे भी पेश की जाती है। हमारी चाय में तो चीनी नहीं होती पर उसे तीन चम्मच चीनी मिला कर दी जाती है। उसके बाद पंद्रह बीस मिनट झाड़ू लगा कर जाता है शिवकुमार।
उस दिन वह मेरी पत्नीजी से बोला कि जीजाजी सब की फोटू लेते हैं, उसकी भी खींच कर छाप दें। उसका भी नाम हो जाये! उसे शायद मालुम भी नहीं होगा कि मैं क्या लिखता हूं या कैसे छापता हूं। उसने मेरा लिखा देखा भी न होगा। केवल गांव वालों से सुना होगा कि जीजा इधर उधर लोगों के बारे में देखते लिखते रहते हैं।
उस दिन नई झाड़ू अच्छे से बांधी शिवकुमार ने। पोर्टिको के छज्जे पर एक अलामांडा की बेल के नीचे और आसपास झरी हुई पत्तियों का जखीरा बन गया था। वह साफ करना शिवकुमार का उस दिन का काम था। पत्नीजी ने मेहनत कर छज्जे पर लेटी बेल उठाई और उसके नीचे से झरी हुई पत्तियां शिवकुमार ने बुहारींं। मैने उसके चित्र लिये।
यह सब देखना और चित्र लेना मेरे रिटायरमेंट से सम्बंध रखता है। शिवकुमार जैसे अनेक चरित्र मेरे रेलवे के घर परिसर में रहे होंगे। अपनी नौकरी के बोझ में कभी उनपर ध्यान ही नहीं गया। किसी से पांच मिनट हल्की फुल्की और आत्मीय बात भी नहीं हुई। अब समय ही समय है। शिवकुमार को मैं देख रहा हूं। उसके काम और उसकी बातचीत में रस ले रहा हूं। यह भी सोचता हूं कि उसके और उस जैसों के जीवन पर मैं कई रेखाचित्र लिख सकता हूं। रेल गाड़ियों का अनुशासन जीवन से निकल गया है। अब तो उनकी यादें भी धुंधलाती जा रही हैं। उनकी जगह अब शिवकुमार जैसे चरित्रों ने ले ली है। रेल इंजन के पीरियॉडिक ओवरहॉल की बजाय अब शिवकुमार द्वारा झाड़ू को कसने की क्रिया को मैं पूरे मनोयोग से देखने लगा हूं।
जीवन अब शिवकुमार के झाड़ू लगाने और मेरे चित्र लेने की परिधि में सिमट गया है। और अच्छा ही है यह!
#गांवदेहात #घरपरिसर


