वनतुलसी की गंध, बांस का पुल, बघेरे की आहट और गेंहुअन का भय

नीलकंठ, सुदामा और खैरदा के प्रधान जी।

नीलकंठ की आर्मचेयर नर्मदा परिक्रमा दिन 2

सवेरे आंख खुली तो सब कुछ चुप था। रात की जद्दोदहद याद आई। रात में बांई ओर नर्मदा की धारा थी, और दाहिने – मच्छरों का मोर्चा। टॉर्च की रौशनी में ओडोमॉस की ट्यूब निकाल मैने उसे सारे खुले अंगों पर मला था। तब जब मच्छरों ने युद्धविराम कर दिया तो नींद गहरी आई।

सुदामा मुझसे पहले जाग गया था। गांव में घूम कर लौट आया था और बताने लगा – “आज बारात आने वाली है। प्रधान जी कह रहे थे – रुक जाइये। स्वादिष्ट भोजन भी मिलेगा, और डिंडोरी से आया बाजा वालों का कार्यक्रम भी।”
पर जब यात्रा ही अभी शुरू हुई हो, तब यूं एक दिन रुक जाना क्या उचित है? आठ बजे तक हम दोनों चल पड़े।

शिव मंदिर के बाबा जी ने बाहर खड़े होकर हमें दो दो गिलास मीठा मट्ठा पिलाया — जैसे मां परीक्षा के दिन दही-चीनी देती है। बाबा की आंखों में वही वात्सल्य था। हमें कोई वरदान नहीं मिला, पर वह मट्ठा उसी का काम कर गया।

अगे रास्ता कच्चा, पर अपनी ओर खींचता हुआ था।
कहीं-कहीं झाड़ियां इतनी सघन थीं कि सुदामा मेरी छड़ी लेकर आगे चला — “अगर कोई नाग हो, तो पहले मुझे देख ले!”

हँसते हुए मैंने कहा – “देख लेगा, तब भी भागेगा नहीं। वह तुलना करने लगेगा कि कौन सुंदर है – वो या सुदाम।”

वनतुलसी की गंध कई किलोमीटर तक फैल रही थी।
उस गंध में एक ऐसी निश्छलता थी जैसे मां के आंचल में बसी कपूर की गंध। दो किलोमीटर तक वन तुलसी थी, फिर जंगल आया — और सागौन की छाया।

सागौन अकेले जीता है — उसकी छाया में और कुछ नहीं पनपता। शाल के वन होते तो सघन विविधता मिलती। मैने सोचा, ये दो वृक्ष भी समाज की तरह हैं — कोई आत्मकेंद्रित, कोई सहजीवी।

बीच में कटे हुए पेड़ भी मिले। कोई अवैध कटाई करता होगा। सतपुड़ा का यह इलाका कभी दण्डकारण्य था। तब राक्षसों के नाम और रूप अलग थे। अब उनका पेशा है – पेड़ काटना और बेचना।

रामपुरी गांव आया, पर वहां सन्नाटा था। कोई चाय दुकान नहीं मिली।

आगे चलकर किसलपुरी में एक छोटी सी गुमटी दिखी — गर्म भजिये बन रहे थे।
“महराज, चना महंगा हो गया है। ये मटर का बेसन है। झूठ नहीं बोलूंगा।” – दुकानदार ने जैसे साक्षात्कार दिया हो।

सुदामा ने दो दोने भजिये खाए। मैंने एक ही लिया।
चाय भी अच्छी बनी थी।

पैसे देने की बात आई तो सुदामा जेब से हाथ डालने लगा।
मैंने कहा – “बेटा, तू मज़दूरी पर है और मैं पेंशन पर। पेमेंट में तीन हिस्से मेरा, एक हिस्सा तेरा।”
थोड़ी हिचक हुई, फिर सुदामा मान गया।
अब ये यात्रा का नियम बन गया।

दोपहर हो चली थी। किसलपुरी गांव वाले बोले – “महराज, एक घंटा रुको तो सही। हम प्रसादी बनाएंगे।”
पर जब भोजन अभी बना नहीं था, तो एक घंटे रुकने का मन न हुआ। हम रुकने को तैयार न हुये तो गांव के प्रधान ने कहा – “ऐसे कैसे जाने देंगे? ये रखिये कुछ फल।”
छः केले एक अखबार में लपेटकर थमा दिये।

सुदामा ने मुस्करा कर समेटने में देर न लगाई — जवान पेट की बात है! कहीं प्रधान का मन पलट जाये तो!

आगे एक पुलिया मिली — वहीं बैठ हमने सत्तू और केले खाए।
तीन-तीन केले खा गये हम दोनों! सब निपटा दिये। चलने पर भूख तो लगती है।

अब रास्ता चढ़ाई पर था। बाईं ओर एक पतली नदी साथ हो ली थी।
कहीं-कहीं पहाड़ी से पानी गिरता भी दिखा, झरने के रूप में।

कई मोड़ों के बाद नदी थोड़ी चौड़ी हो गई — झील जैसी। झील में मछली पकड़ते एक लड़के ने बताया – “आगे बांस का पुल है। उसे पार करेंगे तो खैरदा गांव मिलेगा।”

बांस का पुल था, पर पुल कम, साहस की परीक्षा ज्यादा था।
पार करके जब पहाड़ी चढ़ी, तो सामने चरवाहा दिखा — बीस गायों के साथ।
गायों के गले में बड़ी बड़ी घंटियां बंधी थीं। उसने बताया – “बघेरा आता है इस वन में, इन घंटियों की आवाज से डर कर दूर रहता है।”

सुदामा चौंका — “तुमने बघेरा देखा है कभी?”
“देखा क्यों नहीं। मादा है। तीन बच्चे भी हैं।”
उसने कहा जैसे किसी गली के कुत्तों की बात कर रहा हो।

इस पोस्ट को बनाने में चैट जीपीटी से संवाद का योगदान रहा है।

हम थोड़ा सतर्क हो गये। पर उस लड़के की आंखों में डर नहीं था।
बघेरा हमारे लिये भय था, उसका तो रोज का पड़ोसी था। जिससे उसकी पक्की जानपहचान थी। क्या पता बघेरे का कोई नाम भी रख दिया हो उसने।

रात को खैरदा के प्रधान जी के दालान में विश्राम मिला।
उन्होंने समझाया — “बाड़ के बाहर न निकलना। बाघ बाड़ पार कर नहीं आयेगा। यूं दालान के कमरे में रह सकते हैं आप। पर उसमें एक दिक्कत है। उसमें चूहे के बिल हैं और कभी महराज जी आ जाते हैं उनकी तलाश में।”

मैंने पूछा – “महराज जी?”

“गेंहुअन सांप। पुराने निवासी हैं। यहां के।” मैं समझ गया। यह दण्डकवन नागों की धरती रहा है।

क्या द्वैत है – बघेरा बाहर, महराज जी भीतर। दो रूप हैं, पर जीवन का भय एक ही है! तय किया – फिर तो खुले में ही अच्छा है। बघेरे ने पकड़ा तो उसको दो दिन का भोजन तो मिलेगा। नाग तो हमारे शरीर को किसी लायक नहीं छोड़ेगा।

प्रधान जी की बहू ने खाना दिया। सादगी में स्वाद था। कुछ ज्यादा ही खाया हमने।

फिर हमने रामनाम जपा। सुदामा ने मेरे पैर दबाए और नींद उतर आई —
जैसे किसी वनतुलसी के पौधे ने थपकी दी हो।

इस दिन हम पंद्रह किलोमीटर चले। जंगल में या जंगल किनारे। सवेरे आठ बजे निकले और शाम छ बजे खैरदा पंहुचे। आज नर्मदा तट पर नहीं गये दिन में, पर नर्मदा की गंध सतत बनी रही।
नर्मदे हर!

आपका नीलकंठ

#नीलकंठ_नर्मदा

नीलकंठ, सुदामा और खैरदा के प्रधान जी।
नीलकंठ, सुदामा और खैरदा के प्रधान जी।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

7 thoughts on “वनतुलसी की गंध, बांस का पुल, बघेरे की आहट और गेंहुअन का भय

  1. Sunder yatra vritant.

    Humarey punjab ke kheton me bahot saanp nikalte hai.

    Tho hum Googa peer ki mannat rakhtey hai. Inn ki kripa se saanp kisi ko kaat te nahi hai.

    Liked by 1 person

  2. कल्पना कहा यह तो वास्तविक जैसा ही है , भीतर महाराज जी बाहर बघेरा…

    नर्मदे हर , जय नर्मदे

    Liked by 1 person

    1. जी, लगता है आप कल्पना में पूर्ण वास्तविकता खोज रहे हैं। एक सजग पाठक जो चित्र का भी फैक्ट-चेक करना चाहे, यही विचार मन में लायेगा।

      गल्प लेखन और वास्तविक चित्र में कुछ विरोधाभास है ही! :-)

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