बचपन से शुरू करता हूं। सन 1958 रहा होगा। तीन साल का ज्ञानदत्त। खेलते कूदते अचानक दबाव बना तो दौड़ लगाई घर के सामने के दूसरे खेत में। नेकर का नाड़ा नहीं खुला तो पेट सिकोड़ कर किसी तरह उसे नीचे किया। निपटान में एक मिनट लगा होगा बमुश्किल। पानी की बोतल का प्रचलन नहीं था तो मिट्टी के ढेले का प्रयोग बतौर टिश्यू पेपर किया।
नाड़ा किसी तरह सुलझा कर नेकर पहना। घर आ कर राख से हाथ धोया।
यह केवल मेरा ही हाल नहीं था। अधिकांश बच्चे यही करते थे। कालांतर में सुकुलपुर (अपने गांव) से सिरसा, बैद बबा के यहां जाता था तो वहां पुराने स्टाइल का ऊंचाई पर बना पाखाना था। चार पांच फुट नीचे एक पैन रखा रहता था जिसे दिन में एक बार मेहतर पीछे से आकर साफ करता था। मेहतर का घर में प्रवेश वर्जित था।
फिर दिल्ली, जोधपुर, अजमेर में रिहायश रही पिता जी की सरकारी नौकरी में। वहां इंडियन स्टाइल पाखाना जिसमें ऊंचाई पर लगा सिस्टर्न और उसके साथ खींचने वाली जंजीर रहती थी। यह सिस्टम अच्छा लगा। पिलानी में भी इंडियन स्टाइल ही उपकरण रहा।
कमोड से परिचय तो रेलवे की नौकरी में हुआ। पहले पहल तो अचकचाया। इंडियन स्टाइल विकल्प नहीं मिला तो मन मार कर कमोड की सीट पर पैर रख भरतीय तरीके से बैठा। फिर सीख गया कि कमोडानुशासन कैसे साधा जाता है।
रेलवे के टॉयलेट्स में कमोड होते थे पर धोने का काम तो पास में लगे नल और पानी के मग्गे से ही होता था। टिश्यू पेपर रेलवे के रेस्ट हाउसेज में होते थे, पर मैने कभी उनका प्रयोग किया नहीं। मैने पढ़ा था कि महान स्वतंत्रता सेनानियों ने जेल में अपनी रचनायें; कागज सप्लाई न होने पर टिश्यू पेपर पर लिखी थीं, पेंसिल से। टिश्यू पेपर का प्रयोग मेरे हिसाब से लेख लिखने के लिये ही था!
पहले पहल एक जगह बिडेट लगा देखा। शायद किसी पांच सितारा होटल में जहां मुझे किसी कॉन्फ्रेंस में रुकने का प्रबंध था। उसको उलट पलट देखते समय अचानक पानी की धार निकली और मेरा पायजामा भीग गया। खैर, थोड़े एक्सपेरिमेंटेशन के बाद समझ आया कि तुर्री की तरह पानी की धार निकालता यह उपकरण नल और मग्गे से कहीं ज्यादा साफ सुथरी चीज है।
रेलवे ईको सिस्टम में बिडेट तो नहीं मिले। बंगलों में और दफ्तर में चेम्बर से अटैच्ड एंटी रूम में भी नहीं। कमोड जरूर थे। पर रिटायरमेंट के बाद यहां गांवदेहात में कमोड लगाये गये हैं और उनमें बिडेट लगे हैं। उनका – अर्थात देशज भाषा में तुर्री का प्रयोग शत प्रतिशत होता है।
यह है पंडित ज्ञानदत्त पांड़े की खेत के ढेले से तुर्री तक की यात्रा का विवरण।
बचपन का ढेला, जवानी का मग्गा और बुढ़ापे की तुर्री – यही है मेरी स्वच्छता कथा।
***
पश्चिम में लोग क्या करते रहे होंगे? वहां आदिकाल से टिश्यू पेपर तो रहे नहीं। लोग कई तरह की चीजें इस्तेमाल करते थे। घास, काई, पत्तियां, चिकनी मिट्टी के ढेले, मकई के भुट्टों के खोल आदि का प्रयोग हुआ करता था।
प्राचीन रोम में, सार्वजनिक शौचालयों में एक स्पंज को छड़ी पर लगाकर इस्तेमाल किया जाता था। इसे उपयोग के बाद नमक के पानी या सिरके की बाल्टी में रखा जाता था। यह अक्सर सामुदायिक होता था, यानी कई लोग इसे साझा करते थे। निहायत घटिया सोच!
कागज आया तो फिरंगी पुराने अखबार, किताबों-कापियों के पन्ने इस्तेमाल करने लगे। शौच के बाद पानी का प्रयोग तब भी नहीं होता था। रोमन लोग नहाते पानी में रगड़ रगड़ कर थे, पर शौच के बाद पानी का प्रयोग नहीं करते थे। शायद पानी को वहां की ठंड के हिसाब से गर्म करना बहुत असुविधाजनक रहा हो।
“कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मध्य युग में, ईसाई धर्म के प्रभाव में, शारीरिक सुखों से दूर रहने और “शरीर को शुद्ध न रखने” की अवधारणा ने भी स्नान और व्यक्तिगत स्वच्छता के प्रति उदासीनता पैदा की।”
इसके विपरीत भारत में शौच के बाद पानी का प्रयोग बहुत पुराना है। जल का प्रयोग स्वच्छता के धार्मिक मानक से जुड़ा है यहां।
शौचालय की तकनीक बदलती रही, पर स्वच्छता की भारतीय परंपरा पानी से ही जुड़ी रही।
बिडेट, जो पानी का उपयोग करता है, पश्चिमी देशों में बाद में आया, और यह अभी भी उतना व्यापक नहीं है जितना कि टॉयलेट पेपर।
***

अब मैं गांव में रहता हूं और कोई पांच सितारा होटल मेरी पंहुच से बाहर की चीज है। इसलिये मुझे नहीं मालुम कि बिडेट तकनीक में क्या नये बदलाव आये हैं। जागुआर या उस जैसे हाई क्लास टॉयलेट्स किस तरह के बिडेट्स या उसके रूपांतर बना रहे हैं।
पर मिट्टी के ढेले से तुर्री तक की यात्रा मेरा सांस्कृतिक परिवर्तन जरूर है!
तुर्री – आधुनिकता की देन, पर जड़ें हमारी सदियों पुरानी जल-संस्कृति में।
*****

रोचक लेख है। पत्तों या सॉफ्ट से पत्थरों का प्रयोग तो मैंने भी किया है पर वो कभी कभी ही होता था जब गाँव जाना होता था। लेकिन उधर भी चलन साथ में पानी की बोतल रखने का था। पत्तों या पानी का प्रयोग तब होता था जब जंगलों में खेलने जाते थे और प्रेशर लग जाता था और कोई चारा नहीं होता था। घर आकर फिर पानी से धोया जाता था। अब तो स्मार्ट टॉइलेट आते हैं जिसमें गरम पानी, एयर ड्रायर जैसे सिस्टम होते हैं। वैसे दिल्ली में एक म्यूज़ीअम है सुलभ का जहाँ तरह तरह के टॉइलेट की प्रदर्शनी लगी होती है।
LikeLiked by 1 person
अब जितना सुधार हो रहा है, वह सब लोगों का स्वास्थ्य और सहूलियत, दोनो का लाभ मानवता को दे रहा है!
LikeLike