रात ढलते ही झींगुर गायन

रेंवा का आरकेस्ट्रा

रात आते ही – शाम सात सवा सात बजे झींगुर गायन शुरू कर देते हैं। और यह आवाज रात भर चलती है। गांव के सन्नाटे का संगीत है यह। पितृपक्ष लग गया है जो कोई अन्य आवाज – कोई डीजे या जै मातादी जागरण या अखंड मानस पाठ आदि नहीं हो रहा। आजकल झींगुरचरितमानस का ही रात्रिकालीन पाठ हो रहा है।

डीजे बंद, जागरण बंद, अब सिर्फ़ ‘झींगुरचरितमानस’ का पाठ जारी।

गाँवों में खासकर धान और घास-पात वाले इलाक़ों में ये बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। और मेरे घरपरिसर में तो घासपात बहुतायत से है। पिछवाड़े का मेरा खेत भी उनका अड्डा है। कोई किराया नहीं देते पर रहते मेरे यहां ठसक से हैं।

रेंवा - झींगुर

शायद उनका गायन ही किराया है! ये झींगुर-टिड्डी समूह (Orthoptera गण) के होते हैं। इनका रंग प्रायः भूरा, काला या हरा होता है, जिससे ये मिट्टी और पत्तियों में आसानी से छिप जाते हैं। नर कीट अपने पंखों को आपस में रगड़कर आवाज़ (रें–रें–रें) निकालते हैं।

यह आवाज़ संगीत नहीं, बल्कि सम्प्रेषण (communication) है। नर कीट आवाज़ निकालते हैं ताकि मादा को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। हर प्रजाति का अपना खास “संगीत” होता है, जिससे उस प्रजाति की मादा पहचान लेती है।

रेंवा कोई किराया तो नहीं देता, पर रात भर का संगीत मुफ्त में सुना जाता है।

ये कीट प्रायः निशाचर (रात में सक्रिय) होते हैं। दिन में झाड़ियों, खेतों या मिट्टी के बिलों में छिपे रहते हैं। ये घास, पौधों की कोमल टहनियाँ, कभी-कभी छोटे कीट भी खाते हैं।

गाँव के लोग झींगुर या रेंवा की आवाज़ को “सांझ ढलने” और “रात उतरने” का संकेत मानते हैं। कई जगह इन्हें शुभ माना जाता है क्योंकि ये हर साल बारिश और फसल के मौसम में प्रकट होते हैं। लोकगीतों और कहावतों में भी “झींगुर की रेंरें” का ज़िक्र आता है।

गाँव की नाइट-शिफ्ट ऑर्केस्ट्रा मंडली है — रेंवा एंड कंपनी।

बहुत से लोगों को, जिनके हाथ पैर लम्बे और पतले होते हैं, या जो रिरिया कर बोलते हैं, को झींगुर का लेबल दे दिया जाता है। गांवदेहात में बहुत से लोग झींगुर के नाम से जाने जाते हैं।

झींगुर पर्यावरण की सेहत के संकेतक (bio-indicator) माने जाते हैं। झींगुरों की बहुतायत से पता चलता है कि खेत-खलिहान में रसायन कम इस्तेमाल हुए हैं और परागण/खाद्य शृंखला संतुलित है। पक्षी, मेढक और साँप जैसे जीव इन्हें खाते हैं, यानी ये पारिस्थितिकी का ज़रूरी हिस्सा हैं।

कुछ लोग रेंवा और सिकाडा (Cicada) को एक मानते हैं पर वे अलग अलग प्रजातियां हैं। सिकाडा Hemiptera समूह के जीव हैं। सिकाडा झींगुर से बड़े, मोटे शरीर वाले, पारदर्शी पंखों वाले कीट हैं। इनका आवाज़ निकालने का तरीका भिन्न है। इनके पेट के पास टिंबल (tymbal) नामक विशेष झिल्ली होती है, जिसे कंपन देकर बहुत ऊँची और तीखी आवाज़ पैदा करते हैं।

सिकाडा रात में नहीं, दिन में विशेषकर गर्मी के मौसम में सक्रिय होते हैं। इनकी तीखी आवाज़ गूँजदार “झं–झं–झं” जैसी होती है, जो दूर से भी सुनाई देती है।

हमारे गांवदेहात में सिकाडा तो शायद नहीं ही हैं। दिन में मैने झंझंझन की आवाज सुनी नहीं। पर मेरे यहां रात तो पूरी रेंवा के संगीत से भरी होती है।

अगर रेंवा गाँव–खेत में बहुत हैं, तो यह संकेत है कि वहाँ का पर्यावरण और मिट्टी अपेक्षाकृत शुद्ध है (रसायनों से कम बिगड़ी हुई)।

रेंवा हैं तो प्रकृति की शुद्धता का एक सर्टीफिकेशन है।

“गाँव की रात का यह संगीत, प्रकृति की शुद्धता का प्रमाण है। जहाँ रेंवा गाता है, वहाँ धरती अब भी साँस ले रही है। झींगुर का राग, खेत-खलिहान का पर्यावरणीय गान है। रेंवा की रेंरें — मिट्टी की जैविक धड़कन है।

रेंवा - प्रकृति का ऑर्केस्ट्रा

गाँव का सन्नाटा भी प्रकृति का ऑर्केस्ट्रा है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “रात ढलते ही झींगुर गायन

  1. हमारे आस-पास cicada की भरमार है, शायद स्वच्छ हवा-पानी इनको ज्यादा भाता है।

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