किल्लत का अर्थशास्त्र चल रहा है क्या?


कोटा-परमिट राज का जमाना था। तब हर चीज का उत्पादन सरकार तय करती थी। सरकार इफरात में नहीं सोचती। लिहाजा किल्लत बनी रहती थी। हर चीज की कमी और कालाबाजारी। उद्यमिता का अर्थ भी था कि किसी तरह मोनोपोली बनाये रखा जाय और मार्केट को मेनीप्युलेट किया जाय। खूब पैसा पीटा ऐसे मेनीप्युलेटर्स ने। परContinue reading “किल्लत का अर्थशास्त्र चल रहा है क्या?”

एक सामान्य सा दिन


एक सामान्य सा दिन कितना सामान्य होता है? क्या वैसा जिसमें कुछ भी अनापेक्षित (surprise) न हो? क्या वैसा जिसमें अनापेक्षित तो हो पर उसका प्रभाव दूरगामी न हो? मेरा कोई दिन सामान्य होने पर भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता। मेरा दिन होता है अमूमन, फीका और बेमजा। प्लेन वनीला आइसक्रीम सा लगताContinue reading “एक सामान्य सा दिन”

साइकल और बदला समय


मेरी पत्नी और मैं सड़क पर चल रहे थे। पास से एक छ-सात साल का बच्चा अपनी छोटी साइकल पर गुजरा। नये तरह की उसकी साइकल। नये तरह का कैरियर। टायर अधिक चौड़े। पीछे रिफ्लेक्टर का शो दार डिजाइन। आगे का डण्डा; सीधा तल के समान्तर नहीं, वरन तिरछा और ओवल क्रास-सेक्शन का। इस प्रकारContinue reading “साइकल और बदला समय”

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