आलोक पुराणिक और बोरियत

दो शब्द ले लें जिनमे कुछ भी कॉमन न हो और शीर्षक बना दें. कितना ध्यानाकर्षक शीर्षक बनेगा! वही मैने किया है. आलोक और बोरियत में कोई कॉमनालिटी नहीं है. आलोक पुराणिक को मरघट के दृष्य पर लिखने को दे दें – मेरा पूरा विश्वास है कि वे जो भी अगड़म-बगड़म लिखेंगे उससे आप अपनी हंसी या मुस्कान दबा नहीं पायेंगे. दृष्य वही, दृष्टि अलग. यह कमाल कैसे हो जाता है? एक सिचयुयेशन आप में वैराज्ञ/अवसाद पैदा करे और उसी सिचयुयेशन को आलोक इस तरह से मोल्ड कर लें कि वह सबसे हिलेरियस हो जाये!

आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूं. रवि रतलामी से ब्लॉगरी के गुर मांग कर मैं लहट गया हूं. अब मैं महा बोरियत की सिचयुयेशन से हास्य के पावरपैक्ड कैप्स्यूल बनाने का फार्मूला पूछ रहा हूं. वह अगर आलोक मुफ्त में बता गये तो विक्रम चौधरी की तर्ज पर पेटेण्ट कराने का इरादा है!

खैर, मजाक एक तरफ. असल में आस-पास नजर डालता हूं तो बोरियत का साम्राज्य दीखता है. कोई अंतर नहीं कल और आज में. मेरी ट्रेन-रनिंग की रोज की 20 पन्ने की पोजीशन आती है. पहले कण्ट्रोल वाला घर में फैक्स करता है, फिर दफ्तर में हार्ड कॉपी देता है. बोरियत का आलम यह है कि अगर सामान्य सा दिन हो और पोजीशन खो जाये तो किसी भी दिन की पोजीशन निकाल कर पढ़ लें – कमोबेश वैसी ही होगी. यह तो रेलवे की बात है; आप अखबार ले लें – किसी भी दिन का; कोई फर्क पड़ता है! आसपास देख लें – पड़ोस के बुढ़ऊ उसी तरह तख्ते पर बैठे खांसते मिलेंगे, धन्नो की गाय रोज की तरह दूध निकालने पर गली में छुट्टा छोड़ी मिलेगी….

सण्डे या मण्डे – रोज वही सेम डे!

भैया पुराणिक जी आप कैसे इस रोजमर्रा की गदहपचीसी में सटायर खोज लेते हैं. वह भी रोज-रोज, बिला-नागा?

वैसे बोरियत अपने आप में कोई बेकार चीज नहीं है. इकसार जीने वाले शायद ज्यादा सरलता से जी लेते हैं. हीरो होण्डा पर छोरी पीछे बिठाये सर्र-सर्र भागते लड़कों के जीवन में अगर कुछ दिनों/घण्टों की एकरसता आ जाये तो उनका सिर फटने लगता है. उस लड़के और लड़की को बोरियत सहने/झेलने और उसमें रहने की ट्रेनिंग ही नहीं मिलती. आप देख लें – जिन्दगी की मोनोटोनी जो जितनी अच्छी तरह निभा सकता है वह उतना ही क्रियेटिव इंसान होता है. असल में रचनात्मकता बहुत एकाग्रता मांगती है. और एकाग्रता में बहुत बोरियत है.

देखा, मौका लगते ही हर ब्लॉगर अपनी थ्योरी झाड़ने लगता है. मैं भी वही करने लगा! पर असल में पोस्ट का ध्येय तो आलोक पुराणिक महोदय से बोरियत की सेटिंग में भीषण सटायर ढ़ूढ़ने का फार्मूला पूछना था.

हां तो पुराणिक जी, दस्सेंगे या केवल – “सत्य वचन महाराज”* छाप टिप्पणी कर सटक लेंगे!


* – मेरी पिछली पोस्ट पर कतरा कर निकलने वाली उनकी टिप्पणी.


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

11 thoughts on “आलोक पुराणिक और बोरियत

  1. जैसे आलोक जी हर एक स्थिति में व्यंग्य खोज ही लेते हैं, वैसे ही आपकी भी पारखी दृष्टि अनेक स्थितियों व दैनिक दिनचर्या में भी चिंतनीय बिन्दु।

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