सम्भव है आप में से कई लोगों ने बेंजामिन फ्रेंकलिन का जॉन थॉम्प्सन द हैटर वाला किस्सा सुना हो. जहां पर कम शब्दों मे कहने की बात आती है, वहां इसका उल्लेख बड़ा सशक्त हो जाता है.
अमेरिकी डिक्लेरेशन ऑफ इण्डिपेंडेंस के ड्राफ्ट पर बहस चल रही थी. थॉमस जैफर्सन के ड्राफ्ट पर लोग बदलावों की माग़ों की बौछार कर रहे थे. उस समय बेंजामिन फ्रेंकलिन ने यह किस्सा सुनाया था.
फ्रेंकलिन का एक साथी जो हैट बेचने की दुकान खोलना चाहता था, ने साइनबोर्ड प्रस्तावित किया:
John Thompson, Hatter, makes and sells Hats for ready Money
इस साइनबोर्ड के नीचे हैट का चित्र था. पर साइनबोर्ड लगाने से पहले जॉन थॉम्प्सन ने सोचा कि क्यों न मित्रों की राय ले ली जाये. पहले ने कहा कि हैटर शब्द तो कुछ नया नहीं बताता, जब यह कहा ही जा रहा है कि जॉन थॉम्प्सन हैट बनाते और बेचते हैं. सो हैटर हटा दिया गया. दूसरे ने कहा कि “मेक्स” शब्द की क्या जरूरत है. खरीदने वालों को क्या मतलब कि कौन बना रहा है हैट. अगर हैट उन्हे अच्छा लगेगा तो खरीदेंगे. तीसरे ने कहा कि “फॉर रेडी मनी” की भी कोई जरूरत नहीं क्योंकि उस जगह के रिवाज में ही उधार खरीदना-बेचना नहीं था. अब बचा:
ये “सेल्स” की क्या जरूरत है? एक मित्र बोला. लोग यह तो जानते हैं कि तुम मुफ्त में देने से रहे. एक और बोला – “हैट्स” की क्या जरूरत जब तुम हैट का चित्र तो लगा ही रहे हो. सो बचा:
डिक्लेरेशन ऑफ इण्डिपेंडेंस; जो सही मायने में बहुत सशक्त डॉक्यूमेण्ट है; सिवाय जॉन एडम्स और बेंजामिन फ्रेंकलिन के कुछ शाब्दिक हेर-फेर के, यथावत पास कर दिया कॉग्रेस ने. पर बेंजामिन फ्रेंकलिन का कम से कम शब्दों के प्रयोग का किस्सा जग प्रसिद्ध हो गया.
आपकी भाषा सशक्त तब नही बनती जब आप उसमें और न जोड़ पायें, वरन तब बनती है जब आप उसमें से कुछ निकाल न पायें.
@ अनूप शुक्ल – मैने कभी कहा क्या कि आपके लेख में आवश्यकता से अधिक शब्द होते हैं? 🙂 @ विष्णु बैरागी – अगर मौन उपयुक्त सम्प्रेषण कर पाता हो तो शायद उस सीमा तक भी जाया जा सकता है. पर मौन बहुधा सम्प्रेषण मार देता है. भीष्म अगर चीर हरण के समय मौन न रहते तो शायद महाभारत न होता! पर आप यह भी कह सकते हैं कि द्रौपदी दुर्योधन को देख व्यंग से बोली न होती तो चीर हरण न होता. 🙂 सही सम्प्रेषण शब्दों की मितव्ययता के साथ जरूरी है.
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बात को आगे बढाऍंगे तो बात ‘मौन सर्वोत्तम भाषण है’ तक चली जाएगी और यही बात लिखने पर लागू न हो जाएगी ?
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तो जे बात है, अमल का प्रयाश करेंगे. धन्यवाद्
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आप् तो ज्ञानजी हमारा लिखना बंद् करा देंगे। 🙂
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बढिया ज्ञान बिड़ी है । हमको रेडियो में रोज़ अपने लिखे को काट काट के छोटा करना पड़ता है । हम एकदम सहमत ।
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जे बात!! खोज खोज के ज्ञान की बात ला रहें है ज्ञान जी!!शुक्रिया!!
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बिल्कुल सही। संपादन कला के मेरे गुरु सी.जी.आर. कुरुप कहा करते थे, Even God’s copy can be edited (ईश्वर के लिखे को भी संपादित किए जाने की गुंजाइश होती है)।अर्थ और मंतव्य को सटीक रूप से संप्रेषित करने के लिए जितने न्यूनतम शब्द जरूरी हों, उतनेही रहने देने चाहिए। शब्द ईंटों की तरह होते हैं, इसलिए संपादन के दौरान शब्दों को हटाते हुए यह ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि कथ्य की इमारतको कोई नुकसान न पहुंचे। किन्तु चिट्ठों के संदर्भ में स्व-संपादन बहुतों के लिए मुश्किल होता है। चिट्ठाकार प्राय: अपने शब्द-प्रयोगों के मामले में एक प्रकार के मोह के शिकार होते हैं।
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सत्य वचन महाराज। और रचनाकार के लिए तो और यह बात और भी सत्य वचन है।
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