आदमी की ऊंचाई की वृहदाकार वेदी (चौरी) के पास बैठी वह महिला झूम रही है। उसके खुले काले बाल कभी उसके मुंह पर आते हैं और कभी झटके से पीछे जाते हैं। वह अर्धचेतनता में गा रही है – मोहन बरम बाबा के बारे में कुछ पंक्तियां। गाते गाते बार बार जमीन पर लोट भी जाती है। सब कुछ बड़ा रहस्ययमय लगता है।

बड़ी वेदी के पीछे एक पानी का कुण्ड है। ज्यादा बड़ा नहीं। वेदी के सामने एक हवन करने का स्थान है। बायीं ओर पताकायें गड़ी हैं। बांस पर लगे झण्डे हैं जिनकी लोग परिक्रमा करते हैं। एक ओर पुजारी कुछ जजमानों के साथ जमीन पर बैठे हैं। कुछ लोग अपनी बारी का इंतजार कर एक ओर बैठे हैं।
परिसर की चार दीवारी पर लिखा है कि मंदिर अनिश्चित काल के लिये बंद है। कोरोना संक्रमण के समय लोगों के झुण्ड को वहां इकठ्ठे नहींं होने दिया जाता।
यह परिसर – करीब दो बीघे का क्षेत्र – मोहन बरम (मोहन ब्रह्म) का स्थान है। आसपास के दो-तीन सौ किलोमीटर के इलाके के श्रद्धालुओं की प्रेत बाधा दूर करने, मनौती मानने और मनोकामना पूरी होने पर बरम बाबा को धन्यवाद देने आने वालों का स्थान। साल में नवरात्रि पर्व के अवसर पर दो बार मेला लगता है और उस समय नित्य आठ दस हजार लोग यहाँ आते हैं। वैसे भी सोमवार और शनिवार को अधिक संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
मिर्जापुर से करीब बीस किलोमीटर दूर मुख्य सड़क से बेलहरा मोड़ पर मुड़ कर तीन चार किलोमीटर आगे धनावल गांव में पड़ता है यह स्थान। मेरा वहां मात्र उस स्थान को देखने के ध्येय से जाना सम्भव नहीं हो पाता। किसी प्रकार की प्रेत-प्रेत बाधा में मेरा यकीन नहीं है। ऑकल्ट का रहस्य मात्र गल्प और फिल्मों में जाना देखा है।
वहां जाना इस कारण से हुआ कि मेरी पुत्रवधु धनावल गांव की है। मेरे समधी श्री ज्ञानधर दुबे की पुश्तैनी जमीन पर ही है मोहन बरम का यह स्थान। मैं ज्ञानधर जी के परिवार से मिलने गया था, तो यह स्थान सामान्य कौतूहल होने के कारण देखा।

ज्ञानधर जी मुझे वह स्थान दिखाने ले गये।
मंदिर परिसर में पुजारी जो चढ़ावा चढ़ता है, उसपर पूरा अधिकार पुजारी का ही होता है। आसपास लगने वाली अस्थाई-स्थाई दुकानों के किराये का कुछ अंश ज्ञानधर जी को उनकी जमीन होने के कारण मिलता है, पर मुझे नहीं लगता कि उस आमदनी का बहुत कुछ लाभ ज्ञानधर जी को होता होगा। उतनी जमीन पर अगर खेती होती, तो शायद उससे ज्यादा ही आर्थिक लाभ होता। पर मुख्य बात यह है कि यह विख्यात स्थल मेरे समधी जी की जमीन पर है।

मंदिर परिसर के बाहर एक दुकान थी। अन्य अस्थायी दुकानों के लिये स्थान था, पर आजकल यात्री हुजूम प्रतिबंधित होने के कारण अन्य दुकानें बंद थीं और लोगों के रुकने का स्थान भी खाली पड़ा था। दुकानदार तख्ते पर लेटा था, पर ज्ञानधर जी को देख कर खड़ा हो गया।

ज्ञानधर जी ने बताया कि दो दुकानें स्थायी हैं। उसके अलावा चैत-कुआर की नवरात्रि के समय बहुत सी अन्य अस्थायी दुकाने लगती हैं। मिठाई, पूजा सामग्री, खिलौने, चूड़ी, चुनरी, नारियल, मिट्टी की घरिया, प्रसाद आदि उनमें बिकता है। मोहन बरम को चढ़ाने के लिये जल-जनेऊ की बिक्री भी होती है। इस साल चैत्र नवरात्र में मेला नहीं लगा। पुलीस नित्य आती रही आने वाले श्रद्धालुओं को उसने तितर बितर किया। मेला लग नहीं पाया पर कुछ लोग फिर भी आये। बहुत नहीं। अस्थाई दुकानें तो नहीं लगीं।
कौन थे, मोहन बरम? मेरी इस जिज्ञासा पर ज्ञानधर जी ने बताया कि मोहन (दुबे) एक ब्राह्मण थे। करीब ढाई सौ साल पहले इसी स्थान पर (सम्भवत: कहीं से आते हुये रास्ते में) उनकी अकाल मृत्यु हो गयी थी। मुझे लगा कि शायद गर्मी में लू और डीहाईड्रेशन के कारण या किसी (हैजा आदि) संक्रमण के कारण हुई होगी उनकी अकाल मृत्यु। मृत्यु के बाद वे कई गांव वालों के स्वप्न में आये कि अकाल मृत्यु के कारण वे मोक्ष नहीं पा सके हैं; ब्रह्म (बरम) बन गये हैं और उनका स्थान बनना जरूरी है। लोगों ने उन स्वप्नों पर ध्यान नहीं दिया। शायद भय वश।
तब, जैसा लोक प्रचलित है, मोहन अपने गुरु हरसू बरम (उत्तरप्रदेश और बिहार की सीमा पर चैनपुर नामक स्थान पर) के पास गये। मोहन दुबे के भतीजे के स्वप्न में हरसू बरम आये और उन्होने मोहन बरम की समाधि बना कर उनकी विधिवत पूजा का विधान बताया। उस भतीजे ने हरसू ब्रह्म की आज्ञा अनुसार मोहन ब्रह्म की समाधि का निर्माण किया। मोहन ब्रह्म की ख्याति आसपास के क्षेत्र में तेजी से फैली और प्रेत-बाधा या पारिवारिक कष्टों से पीड़ित लोग वहां आने लगे।
इस उत्तर प्रदेश – बिहार – झारखण्ड – बंगाल की गांगेय क्षेत्र की जनता में ब्रह्म (बरम) की आस्था व्यापक है। अनेक छोटे बड़े बरम बाबा हर इलाके में हैं। पर हरसू और मोहन बरम उनमें मुख्य हैं। उनकी समाधि (चौरी) पर दूर दूर से श्रद्धालु आते हैं। ज्ञानधर जी ने बताया कि जौनपुर से बहुत श्रद्धालू मोहन बरम आते हैं। मेरा अपना गांव और ननिहाल (सुकुलपुर और मड़ार) यहां से 60 किलोमीटर की दूरी पर है। मेरी अम्मा बताया करती थीं की गांव से लोग प्रतिवर्ष मोहन बरम के दर्शन के लिये जाया करते हैं।
मोहन बरम के बारे में मुझे ज्यादा सूचना सामग्री नहीं मिली, पर हरसू बरम के बारे में हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार पाण्डेय बेचन शर्मा “उग्र” जी की आत्मकथा में पर्याप्त उल्लेख है। उन्होने बताया है कि वे हरसू पाण्डेय (हरसू बरम) के वंशज हैं।
उग्र जी की आत्मकथा से – | …यह सच भी है, … कि मेरे खानदान के लोग हरसू (पाँडे) नामक ब्रह्म के वंश के हैं, जिनका परम प्रसिद्ध स्थान उत्तर प्रदेश-बिहार की सीमा पर स्थित चैनपुर में है। इन्हीं हरसू ब्रह्म को स्वर्गीय परम विद्वान डॉ. रामदास गौड़ आदर से मानते थे। इन हरसू ब्रह्म की तो सोलह-पेजी जीवनी छपकर भक्त जनता में सहस्र-सहस्र की संख्या में बिकती है। |
मोहन बरम की ख्याति बहुत है। परिसर को देख कर लगता है कि उस हिसाब से उनकी मार्केटिंग नहीं हुई है। उनकी परिचयात्मक पुस्तिका भी सम्भवत: नहीं बनी। उनकी ऐतिहासिकता के बारे में भी उपलब्ध सामग्री लिपिबद्ध नहीं की गयी। उनके बारे में वीडियो भी बहुत स्तरीय नहीं हैं। ऑकल्ट को तर्कसंगत दृष्टि से देखते हुये लोगों की आस्था का वर्णन किया जा सकता है, वह हुआ हो, ऐसा नजर नहीं आता। हिंदू धर्म का यह पक्ष रहस्य-भय-रोमांच और अंधश्रद्धा की गहन परतों में लिप्त है; बहुत कुछ अघोरियों और तान्त्रिकों की साधना की तरह। पर मोहन बरम धर्म की तांत्रिक नहीं, लोक परम्परा के महत्वपूर्ण घटक हैं। उनका उपयुक्त सम्मान और विवेचन नहीं हुआ है।

मैं तो मोहन बरम के स्थान पर आधा घण्टा से भी कम समय तक रहा। ज्यादा समय देखने और चित्र लेने में गया। अपने समधी श्री ज्ञानधर दुबे जी के अलावा किसी अन्य से बात भी नहीं की। बाद में नेट पर बहुत प्रमाणिक जानकारी भी प्राप्त नहीं हुई। लिहाजा, उस अनुसार यह ब्लॉग पोस्ट वह गहराई नहीं रखती जैसा मैं चहता था। भविष्य में शायद फिर कभी वहां जाने-देखने-समझने का अवसर मिले।
मोहन बरम के बारे में ब्लॉग पर फिर आना चाहूंगा।

अपडेट –
हिमाल वेब साइट पर एक लेख में मोहन बरम के बारे में किसी अखिलेश सिंंह ने लिखा है। उसके अंश का अनुवाद इस प्रकार है –
मोहन बरम मंदिर के पुजारी राम मनोहर दुबे ने बताया कि आज से तीन सौ पचास साल पहले बेलहरा गांव में जन्मे मोहन दुबे ने यह कहा था कि वे ब्रह्म बनेंगे। पर गांव में संक्रमण फैला और अन्य लोगों के साथ मोहन की भी मृत्यु हो गयी। उसके बाद वे अपने रिश्तेदारों के स्वप्न में कई बार आये। सपने में यह कहा कि वे बरम हो गये हैं और उनका मंदिर बनना चाहिये। कई लोगों को उठने के बाद सपने के बारे में याद था; पर उन्होने सपने को भूलने का प्रयास किया, कि कहीं उनपर कोई विपत्ति न आ जाये।
पर मोहन को यह उचित नहीं लगा। क्रोध में वे गांव छोड़ कर ब्रह्मओं के श्रेष्ठ हरसू बरम के दरबार में चैनपुर गये। उनके जाने के बाद बेलहरा गांव में कई असामयिक मृत्यु की घटनायें होने लगीं। अंत में मोहन अपने भतीजे राम अवतार दुबे के सपने में आये और कहा कि वे निराश हो कर अपने गुरु हरसू बरम के दरबार में चले आये हैं। गांव का अस्तित्व इसपर निर्भर करता है कि लोग हरसू बरम की आज्ञानुसार, मोहन बरम को अपने घर वापस लायें।
एक घरिया में जल ले कर राम अवतार हरसू बरम की समाधि पर गये और मोहन बरम को वापस ला कर गांव में उनका मंदिर बनाया। उसके बाद गांव में शांति वापस आयी और तभी से मोहन बरम की पूजा होने लगी।
हमारे यहां भी मोहन बरन कि पूजा होती है। जो मेरे दादा जी श्री स्वगीर्य रामअधार दुबे करते थे । और मेरे दादा जी ने ही मोहन बरन के बारे मैं मूझे बताया था।
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