असफलता कतरा कर नहीं जाती। आंख में झांकती है। प्वाइण्ट ब्लैंक कहती है – "मिस्टर जीडी, बैटर इम्प्रूव"! फटकार कस कर देती है। कस कर देने का मतलब अंग्रेजी में आत्मालाप। सिर झटकने, मेज पर मुक्का मारने, च-च्च करने में हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के मैनेरिज्म ज्यादा प्रभावी हैं। असफलता उनका प्रयोग करती है। जब तक आत्मलताड़ और इम्प्रूवमेण्ट का सोच चलता है – तब तक अंग्रेजी के मैनरिज्म चलते हैं। पर जब अवसाद घेरने लगता है तो हिन्दी टेकओवर करने लगती है। अवसाद में करुणा है। वह मातृभाषा में प्रभावी ढ़ंग से बयान होती है। पता नहीं आप लोगों के साथ असफलता का कैसे भाषाई प्रभाव चलता है।
उम्र के साथ असफलता को झेलने की क्षमता कम होती जा रही है। वह जीजीविषा कम जगा रही है, अवसाद ज्यादा बढ़ा रही है। लिहाजा अपने ध्येय स्केल डाउन करने की प्रवृत्ति बन रही है।
एक साधनों की विपन्नता की सीमा पर चल रहे परिवार के लड़के से जीवन शुरू करने वाले मुझ को जितना जमीन पर मिला उतना कल्पना में उड़ने को भी मिला। अत: उड़ना और जमीन पर उतरना मेरे लिये नया नहीं है।
किसी जमाने में – बहुत पहले स्कूली दिनों में; जब एनरिको फरमी की बायोग्राफी पढ़ रहा था तो नोबल पुरस्कार की सोचता था। मेरे विचार से बहुत से लोग किसी न किसी मुकाम पर वैसा सोचते/उड़ते हैं। उस समय (अंतत:) स्कूली शिक्षा में बोर्ड की मैरिट लिस्ट में आने वाले तथाकथित मेधावी छात्र सरकारी गजटेड अफसरी पर संतोष करने लगे थे। अब वे अमरीका जाने लगे हैं या इंफोसिस ज्वाइन करने लगे हैं। नोबल पुरस्कार से रेलगाड़ी हांकने के बीच असफलताओं-सफलताओं का एक बड़ा जखीरा मेरे पास है। उस जखीरे को टटोलने में बड़ा कष्ट होता है।
फिर भी मन करता है सफलता और असफलता के मेकेनिज्म – जैसे समझा-जिया है – पर लिखूं। आखिर कभी न कभी वह दस्तावेज लिखना ही है। उसमें से काफी अंश पूर्णत व्यक्तिगत होगा। पर बहुत कुछ ऐसा भी होगा जो शेयर किया जाये। फिर लगता है कि हममें क्या सुर्खाब के पर लगे हैं! जो कुछ उनमें लिखा जायेगा, वह किसी न किसी प्रकार से पहले भी लिखा जा चुका है। एक मन होता है कि इस विषय पर जो कुछ पढ़ा है उसपर लिखना प्रारम्भ करूं – ज्यादातर उसमें से मोटीवेशनल लिटरेचर से प्रकटित हुआ है। उस लेखन में अपने अनुभव भी समाहित हो सकते हैं।
कुछ दिन पहले मेरी "दो चेतावनी देती पोस्टें" पर टिप्पणी करते हुये प्रशांत प्रियदर्शी (PD) चेतन भगत और रोबिन शर्मा का नाम ले रहे थे। ये मेरे आदर्श तो नहीं हैं पर इन जैसे अनेक को पढ़ा गुना है। उपनिषद-गीता-मानस से होती हुई एक धारा वर्तमान युग के लेखकों तक आती है। उनको अपने तरीके से चुना जा सकता है। यह सब जरूरी नहीं कि ब्लॉग दुनियाँ को पसन्द आये। जब गान्धीजी पर लोग उलट सोच रख रहे हैं – तब यह लिखना डाइसी (dicey) है।
पर क्या डाइसी नहीं है?

Nice
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हाईट ठीक ठाक है वैसे तो अपन की पर्……………फ़िर भी उपर से निकल गई!!
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यह सही है कि असफलता बहुत कुछ सीखाती है और यह जरूरी भी है पर असफलता के दौरान अपने आप को सम्भालना और सफलता के दिनो मे नम्र बने रहना जरूरी है। उम्र के साथ सहने की ताकत कम हो जाती है यह बात तो मन से निकाल ही दीजिये।
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