आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी (अपने अधिदैविक रूप में) या उनके वर्तमान उत्तराधिकारी शायद मेरी इस पोस्ट से नाराज न हों पर हिन्दी के वर्तमान विद्वान मुझे अपात्र मान कर क्षुब्ध हो सकते हैं। मैं जब भी बेनाम ब्लॉगरी की सोचता था तो मन में नाम आता था प. व्योमकेश शास्त्री का। प्रारम्भ में धुरविरोधी को मैं अपने मन में व्योमकेश शास्त्री के रूप में याद किया करता था। आज भी कई बेनाम टिप्पणियाँ इतनी अच्छी होती हैं कि पण्डित व्योमकेश शास्त्री की याद बरबस हो आती है!
बेनाम ब्लॉगरी करने का मेरा भी कई बार मन हुआ है।
मेरा राशि का नाम है “न” से – नागेश्वर नाथ। कई बार नागेश्वर नाथ के नाम से बेनाम ब्लॉगरी का मन किया – विशेषकर विवादास्पद विषयों पर लिखने और टिपेरने के लिये। पर लगा कि अंतत: हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की तरह फंस ही जाऊंगा! वह कार्यक्रम टेक-ऑफ ही नहीं हो सका।
आज मन हुआ है व्योमकेश शास्त्री पर लिखने का। इस नाम को बहुत दशकों पहले चारु चन्द्रलेख पढते समय जाना था। मेरी चारु चन्द्रलेख की प्रति अक्तूबर’1977 की खरीदी हुई है। उसके पहले यह पुस्तकालय से ले कर पढ़ चुका था। फिर शायद द्विवेदी जी की अन्य पुस्तकों की प्रस्तावना में भी यह नाम पढ़ा। नाम से यह तो लग ही गया कि आचार्यजी “व्योमकेश शास्त्री” पेन-नेम ले कर चल रहे हैं। पर व्योमकेश शास्त्री जी का चिठ्ठा आचार्य जी के एक लेख से कालांतर में खुला।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेख है – ‘व्योमकेश शास्त्री उर्फ हजारीप्रसाद द्विवेदी’। आप इसे नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा छापे उनके ‘संकलित निबन्ध’ (सम्पादक नामवर सिंह) में पढ़ सकते हैं। इसका कॉपीराइट श्री मुकुन्द द्विवेदी के पास है। मैं लेख के कुछ न्यून अंश इस पोस्ट में टीप रहा हूं।
द्विवेदी जी ने अपने मित्र प. भुवनेश्वर मिश्र ‘माधव’ के आग्रह पर एक लेख ज्योतिष विषय पर उनके पत्र ‘सनातन धर्म’ के लिये लिखा था। इसमें विश्वपंचांग (जो हिन्दू विश्वविद्यालय से निकलता था और जिसके सम्पादकों में महामनाजी भी थे) की गणना पद्यति की आलोचना थी। सीधे मालवीयजी सरीखे से पंगा लेने से बचने को द्विवेदी जी ने लेखक का नाम दे दिया – व्योमकेश शास्त्री।
पर वह लेख हिट हो गया। उसे लेकर इन्दौर की पंचांग समिती ने एक बड़ा पार्सल भेजा जिसमें ज्योतिष विषयक बड़े काम की पुस्तकें थीं। उसमें व्योमकेश जी को इन्दौर में होने जा रहे ‘अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन’ में आने का निमंत्रण था और ‘समग्र भारत में एक सर्वमान्य पद्यति से पंचांग बनाने की विधा तय करने वाली निर्णायक समिति’ का बंगाल का प्रतिनिधि माना गया था। मजे की बात थी कि सम्मेलन की अध्यक्षता प. मदनमोहन मालवीय करने जा रहे थे। उन्ही से सीधे बचने को द्विवेदी जी ने अपना नाम व्योमकेश रखा था।
बड़ी उहापोह में पड़े आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी। लगभग मन बना लिया था सम्मेलन में जाने का। पर फिर भी दुविधा थी। मन में था कि मालवीय जी क्या सोचेंगे! सो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के पास गये मार्गदर्शन के लिये। गुरुदेव को सब बता कर बोले –
“मूर्खता से धर्मसंकट पैदा कर लिया है। अब आपकी सलाह मांगने आया हूं। जाऊं या न जाऊं। जाने को कह चुका हूं।”
गुरुदेव ने कहा – “न जाओ। तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है, उससे कहें अधिक भय और संकोच है। भय और संकोच तुम्हें सत्य का पक्ष नहीं लेने देंगे।”
गुरुदेव फिर बोले – “सत्य बड़ा महसूल चाहता है। तुमने अपना नाम छिपाया, वहीं से तुम गलत रास्ते पर चल पड़े। देखो जब किसी की प्रतिकूल आलोचना करनी हो तो नाम मत छिपाया करो। नाम छिपाना पहली कमजोरी है। फिर वह और कमजोरियों को खींचती जाती है। नाम छिपाना भी सत्य को छिपाना ही है।” …. “सत्य अपना पूरा दाम चाहता है।”
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी सम्मेलन में नहीं गये।
पूरा लेख बड़ा मार्मिक बना है। उसे आप अलग से पढ़ने का कष्ट करें (अगर न पढ़ा हो!)।
अब अपनी बात। अपने में पूरी कमजोरियां होने पर भी व्योमकेश शास्त्री जी के प्रसंग ने अंतत: मुझे नागेश्वर नाथ बनने से बचाया। बतौर नागेश्वर नाथ मैं अत्यंत उद्दण्ड और ठसक से अण्ट-शण्ट लिखता/गरियाता। कोई वर्जना नहीं होती। पर तब मैं शायद बढ़िया लिखने के चक्कर में सत्य की रोज बलि चढ़ाता!
क्या कहना है आपका?

खालिस “ज्ञानी” पोस्ट!! अर्थात चिंतन वाली।देखते है यह किताब यहां मिलती है या नई!!
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सबसे ऊपर विमला तिवारी ‘विभोर’ नाम से की हुई टिप्पणी मेरी है.. माँ की पोस्ट चढ़ाते समय उनकी पहचान से लॉग इन किया हुआ था.. जिस के कारण यहाँ पर भी यह टिप्पणी उसी पहचान से दर्ज हो गई गलती से.. अनजाने में.. अतः इसे मेरे विचार के रूप में ही दर्ज माना जाय..
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नाम छिपाना पहली कमजोरी है। फिर वह और कमजोरियों को खींचती जाती है। नाम छिपाना भी सत्य को छिपाना ही है।” एक दम सही कहा उन्होंने….मैंने भी ठान लिया है….आज से अपना नाम नहीं छिपाऊँगा…
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गुरूदेव ने सही फरमाया. कुछ लोग विवाद से बचने के लिए या छवि के चक्कर में या तो लिखते नहीं या नाम छूपा जाते हैं. राम को लेकर कईयों के मन दुखे होंगे मगर कट्टरपंथि न कहलाये जायें इस डर से नहीं लिखे. अपना तो सिद्धांत है जो सही लगता है वह सीना ठोक कर कहो.
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आलोक जी और आप जैसे समझदार लोगों के बीच हमारी ब्लॉगरी क्या चलेगी इसलिये सोच रहे हैं ब्लॉगरी बन्द ही कर दें. वैसे भी इसमें बहुत टाइम खोटा होता है हम जैसे नासमझदारों का आप दोनों की बात कुछ और है ;-) वैसे आप नागेश्वर नाथ बन कर आ ही जाइये.
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बेहद रोचक और सुंदर प्रसंग है। गुरुदेव ने ठीक ही कहा है कि नाम छिपाना भी सत्य को छिपाना ही है।…सत्य अपना पूरा दाम चाहता है।लेकिन कभी-कभी आपका नाम, आपकी पहचान बहुत रूढ़ हो जाती, जबकि आप उससे इतर भी बहुत कुछ होते हैं। ऐसी हालत में लिखने के लिए आपको नया नाम चुनना ही पड़ता है, भले ही अनाम सही।
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‘विभोर’ जी ने बिल्कुल सही कहा… चिंतन भरी पोस्ट है जिसे पढ़कर सबसे पहले अपने ही व्यक्तितत्ब का चिंतन शुरु हो गया है. आभार
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“पूरा लेख बड़ा मार्मिक बना है। उसे आप अलग से पढ़ने का कष्ट करें (अगर न पढ़ा हो!)।”हमारे पास तो वो आलेख व वो किताब मिलना मुश्किल है. स्कैन कर कहीं अपलोड कर दें तो बहुत अच्छा. आपको अग्रिम धन्यवाद.
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नहीं हमें पता है कि कई किसिम के ब्लाग आप ही चला रहे हैं। बेनाम, सुनाम नाम की टिप्पणियां तो की कई ब्लागर आपके ही खाते में डालते हैं। सच्ची बात तो यह है कि बेनाम टिप्पणियां इतनी समझदारी भरी होती हैं, लगता है कि इन्हे आपके अलावा कोई लिख ही नहीं सकता। ब्लागिंग मे समझदार लोग हैं ही कितने, एक आप और एक मैं। और मैं भी क्या। आप ही हैं। मैंने तो अब तक 786 टिप्पणियां आपके ही खाते में ही डाली हैं। मोहल्ले, भड़ास पर बहुत कर्ज है आपका, अच्छा हुआ, आपने आज अपने प्रेरणा पुरुष के बारे में बता दिया। मोगंबो खुश हुआ।
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हमारा कहना है कि ऐसी चिंतन भरी पोस्ट हमें हमेशा भाती है..
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