हम सोचते हैं कि ग्रामीण परिवेश से शहर में पलायन करने पर संयुक्त परिवार टूट जाते हैं। निश्चय ही चार-पांच पीढियों वाले कुटुम्ब तो साथ नहीं रह पाते शहर में – जिनमें १०० लोग एक छत के नीचे रहते हों। पर फिर भी परिवार बिल्कुल नाभिकीय (माता-पिता और एक या दो बच्चे) हो गये हों, ऐसा भी नहीं है।
मैं सवेरे घूमने जाता हूं तो अपनी मध्यवर्गीय/निम्नमध्यवर्गीय कालोनी – शिवकुटी में ढ़ेरों नाम पट्ट ऐसे मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि दो-तीन पीढ़ियां एक साथ रह रही हैं। ऐसे ही कुछ नाम पट्टों के चित्र प्रस्तुत कर रहा हूं।
शिवकुटी, इलाहाबाद के नाम पट्ट जो बताते हैं कि संयुक्त परिवार रह रहे हैं – एक छत के नीचे। ऐसे और भी बहुत घर हैं। पहला पट्ट (शिव धाम) तो वंश-वृक्ष जैसा लगता है! |
सम्भवत: मेट्रो शहरों में नाभिकीय परिवार अधिक हों, पर इलाहाबाद जैसे मझले आकार के और बीमारू प्रदेश के शहर में आर्थिक अनिवार्यता है संयुक्त परिवार के रूप में अस्तित्व बनाये रखना। मुझे लगता है कि तकनीकी विकास के साथ जब रोजगार घर के समीप आने लगेंगे तथा रहन सहन का खर्च बढ़ने लगेगा; तो लोग उत्तरोत्तर संयुक्त परिवारों की तरफ और उन्मुख होंगे।
क्या विचार है आपका?
गूगल के ऑफीशियल जीमेल ब्लॉग ने 31 अक्तूबर को बताया था कि विश्व मेँ स्पैम बढ़े हैं, पर जीमेल उन्हें उत्तरोत्तर स्पैम फिल्टर में धकेलने में सफल रहा है। स्पैम फ़िल्टरमें तो मुझे रोज ६-१० स्पैम मिलते हैं। औसतन एक को रोज मैं इनबॉक्स से स्पैम में धकेलता रहा हूं। पर कल अचानक स्पैम की इनबॉक्स में आमद बढ़ गयी। कल ६-७ स्पैम मेल इनबॉक्स में मिले। उनपर यकीन करता तो मुझे लाटरी और किसी मरे धनी आदमी की वसीयत से इतना मिलता कि मै तुरन्त नौकरी की चक्की से मुक्त हो जाता। बिजनेस पार्टनर बनाने के लिये भी एक दो प्रस्ताव थे – जैसे मुझे बिजनेस का अनुभव हो!
कल आप सभी ’लक-पति (luck-pati)’ रहे या मैं अकेला ही?!
युनुस जी ने जो कहा सही है पर वो सिर्फ़ गु्जराती और मारवाड़ीयों पर लागू होता है।बाकी तो न्युकिलअर परिवार ही ज्यादा हैं।आलोक जी की निराशा निराधार नहीं पर हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि आने वाले भविष्य में सयुंक्त परिवार का चलन लौट आए।
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ज्ञानदा आपकी अब तक की शानदार पोस्टों में से एक है ये पोस्ट । प्यारी पोस्ट ।
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मौजूं पोस्ट है। कानपुर में भी कुछ दिन पहले खबर निकली थी- सौ लोगों का एक परिवार है। तमाम कारक हैं परिवार का साइज तय करने वाले। रोजी-रोटी, नौकरी-पेशा सबसे अहम हो गये हैं।
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सयुक्त परिवारों के जहाँ लाभ हैं वहाँ नुक्सान भी कम नहीँ.रिश्तों की चाहत की प्यास हमारे परिवार में तो बहुत है… छोटे शहरों के रिश्तेदारों के दिल बड़े होते हैं और बड़े शहरों के दिल छोटे… हालाँकि हम दिल्ली के हैं लेकिन जो अनुभव हुआ वही बता रहे हैं..
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संयुक्त परिवार का एक बहुत ही अच्छा उदाहरण हमारी एक दोस्त का घर है जहाँ चार पीढियाँ एक साथ रहती है।और वैसे इलाहाबाद मे अभी भी संयुक्त परिवार मे ज्यादातर लोग रहते है।स्पैम तो हम बस डिलीट ही करते रहते है। वर्ना तो …..:)
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हम सभी जानते हैं कि शहरों, महानगरों में रहने वाली महिलाएं, खासकर कामकाजी महिलाएं और कुछ हद तक पुरुष भी, संयुक्त परिवार को अपनी आजादी और स्पेस में बाधक मानती हैं। कई बार महानगरों में रहने वाले बेटे अपने मां-बाप को साथ रखना चाहते हैं, मगर सास-बहू के धारावाहिक वाला माहौल घर में न बन जाए, इस आशंका से ऐसा कर नहीं पाते। जैसा कि आलोक जी ने कहा, महानगरों में ज्यादातर लोगों के पास इतने बड़े घर नहीं होते कि बड़े परिवार को समा सके। ग्रामीण जीवन के खुले, विस्तृत दायरे में रहने के अभ्यस्त बुजुर्ग भी महानगरों की घुटन भरी संकीर्णता में फंस कर छटपटाहट महसूस करते हैं। फिर भी, दिल्ली के पार्कों में जब भी जाता हूं, वहां बुजुर्ग सबसे ज्यादा संख्या में टहलते-दौड़ते-ठहाका लगाते नजर आते हैं।
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फिर एक बार बढ़िया मुद्दे पर आपकी दिमागी हलचल अटकी।वैसे सुब्बो सुब्बो ये सब फोटो लेते हुए आपके इन्ट्रोवर्ट मनवा को झिझक नही हुई क्या।कल वाकई ज्यादा स्पैम आए, यही सब आपने जो बताया।मुझे लगता है कि जीमेल स्पैम फ़िल्टर स्ट्रॉंग होने की बात क्यों करता है, जितने याहू में आते हैं तकरीबन उतने ही जी मेल में भी आते हैं।
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सन्युक्त परिवार मे बचपन के कुछ कीमती साल बिताये है। कुछ धुन्धली सी यादे है। अब एक बार फिर आपने मन की लालसा को जगा दिया। अविवाहित हूँ अत: अब सयुक्त परिवार तो क्या परिवार बना पाना ही सपने जैसा है। वैसे ब्लागरो का एक सन्युक्त परिवार तो है ही और आप जैसा पारिवारिक मुखिया।
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