ज्यादा पढ़ने के खतरे(?)!


Books Stackअभय तिवारी ने एक ताजा पोस्ट पर ठेला है कि उनकी पत्नी तनु उनसे ज्यादा किताबें पढ़ती हैं। यह मुझे भीषण भयोत्पादक लगा। इतना कि एक पोस्ट बन गयी उससे। “डर लगे तो पोस्ट लिख के सिद्धांतानुसार”।

मैं अगर दिन भर की सरकारी झिक-झिक के बाद घर आऊं और शाम की चाय की जगह पत्नीजी वेनेजुयेला या इक्वाडोर के किसी कवि की कविता पुस्तक अपनी समीक्षा की कमेण्ट्री के साथ सरकाने लगें तो मन होगा कि पुन:दफ्तर चल दिया जाये। वहां कण्ट्रोल की नाइट शिफ्ट वाले चाय तो पिला ही देंगे और श्रद्धा हुयी तो नुक्कड़ की दुकान के एक रुपये वाले समोसे भी खिला देंगे!

अब यह भी क्या सीन होगा कि सण्डे को सवेरे आप डाइनिंग टेबल पर इडली का इन्तजार कर रहे हैं पर भरतलाल (मेरा भृत्य) और रीता (मेरी पत्नी) का संवाद चल रहा है – “बेबी दीदी, साम्भरवा में कौन कितबिया पड़े? ऊ अंग्रेजी वाली कि जौन कालि फलाने जी लिआइ रहें अउर अपने साइन कई क दइ ग रहें?” (बेबी दीदी, साम्भर में क्या पड़ेगा? वह अंग्रेजी की किताब या कल फलाने जी की आटोग्राफ कर दी गयी नयी पुस्तक)।

भाई जी/बहन जी; इतना पढ़ें तो भोजन बनाने को समय कब मिलेगा? मेरी पत्नी रोज कहेंगी – तुम्हारा बीएमआई वैसे भी बहुत बढ़ गया है। दफ्तर में बहुत चरते हो। ऐसा करो कि आज खाने की बजाय हम पाब्लो नेरूदा के कैप्स्यूल खा लेते हैं। सलाद के लिये साथ में आज नयी आयी चार मैगजीन्स हैं। लो-केलोरी और हाई फाइबर डाइट ठीक रहेगा तुम्हारे लिए।

Booksज्यादा पढ़ने पर जिन्दगी चौपट होना जरूर है – शर्तिया! जो जिन्दगी ठग्गू के लड्डू या कामधेनु मिष्ठान्न भण्डार की बरफी पर चिन्तन में मजे में जा सकती है, वह मोटी मोटी किताबों की चाट चाटने में बरबाद हो – यह कौन सा दर्शन है? कौन सी जीवन प्रणाली?

किताब किताब और किताब। अभय तिवारी के ब्लॉग पर या तो ओवर हेड ट्रान्समिशन वाले लेखकों के भारी भरकम नाम आते हैं। इन सब के नामों से परिचय की हसरत ले कर जियेंगे और जायेंगे हम दुनियां से। ऑब्स्क्योर (मेरे लिये तो हिट फिल्म भी ऑब्स्क्योर है) सी फिल्मों का वर्णन इस अन्दाज में होता है वहां कि उन्हें नहीं देखा-जाना तो अब तक की जिंदगी तो बरबाद हो चुकी (और लोग हैं कि बचपन में पूप्सी की दूध की बोतल मुंह से लगाये भी देखते रहे हैं इनको!)। पहले भयानक भयानक लेखों की श्रृंखला चली थी ऋग-यजुर-साम-अथर्व पर। वह सब भी हमारे लिये आउट ऑफ कोर्स थी।

भइया, मनई कभौं त जमीनिया पर चले! कि नाहीं? (भैया, आदमी कभी तो जमीन पर चलेगा, या नहीं!)। या इन हाई फाई किताबों और सिद्धांतों के सलीबों पर ही टें बोलेगा?  

मुझे तो लगता है कि बड़े बड़े लेखकों या भारी भरकम हस्ताक्षरों की बजाय भरतलाल दुनिया का सबसे बढ़िया अनुभव वाला और सबसे सशक्त भाषा वाला जीव है। आपके पास फलानी-ढ़िमाकी-तिमाकी किताब, रूसी/जापानी/स्वाहिली भाषा की कलात्मक फिल्म का अवलोकन और ट्रेलर हो; पर अपने पास तो भरत लाल है!

वैसे देशज लण्ठई में भी जबरदस्त प्रतिभा की दरकार होती है। इसे शुद्ध बनारसी गुरुओं और गुण्डों से कंफर्म किया जा सकता है।


और एक सीरियस स्वीकारोक्ति: एक शुष्क सरकारी मुलाजिम होने के बावजूद लगभग साल भर से हिन्दी ब्लॉगरी में टिका हूं तो अभय तिवारी जैसों की बदौलत। मुझे यह अहसास है कि अभय थ्रू एण्ड थ्रू सज्जन और भद्र व्यक्ति हैं। थोड़ा इण्टेलेक्चुअल चाशनी में रचा-पगा पर संस्कारी सज्जन। बस; अभय की ’कलम की मजदूरी’ छाप बुद्धिजीवी फसाड पर खुन्दक है। उसकी बजाय अगर वे अगले दस साल में करोड़पति बनने की अलानिया इच्छा शक्ति जाहिर करें तो अधिक प्रिय लगें।

अच्छी किताबें ज्यादा पैसे से आती हैं कि नहीं?

और हां, अभय की पत्नी जी से क्षमा याचना सहित। अभय पर “स्माइलीय” पोस्ट कसते समय उनसे कोई रार ठानने का मन नहीं है। बल्कि अगली किसी पोस्ट में अभय अगर यह बतायें कि उनकी पत्नीजी को बहुत बढ़िया खिचड़ी (मेरा सर्वाधिक प्रिय भोजन) बनानी आती है तो मुझे प्रसन्नता होगी!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

35 thoughts on “ज्यादा पढ़ने के खतरे(?)!

    1. खिचड़ी वास्तव में ऐसा ईजाद है, जिसपर नोबल पुरस्कार मिलना चाहिये! :)

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  1. जितना मज़ा आपका व्यंग्य लेख पढ़ कर आया. उससे ज़्यादा मज़ा रंग-बिरंगी टिप्पणियों ने दिया. सबका शुक्रिया!

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