भारत की अर्थव्यवस्था अचानक नाजुक हो जाती है। अचानक पता चलता है कि ढ़ांचागत उद्योग डावांडोल हैं। कच्चे तेल में आग लग रही है। रियाल्टी सेक्टर का गुब्बारा फूट रहा है।
यह सब जानने के लिये आपको रिप वान विंकल की तरह २० साल सोना नहीं पड़ता। अखबार २० दिन में ऐसी पल्टीमार खबरें देने लगते हैं। सफेद पन्ने के अखबार कहें तो ठीक; पर बिजनेस अखबार मायूसी का अचानक राग अलापने लगें तो अटपटा लगता है। आपको मिरगी की बीमारी हो तो वह भी कुछ प्रीमोनीशन के साथ आती है। पर यहां तो जब निफ्टी सरक-दरक जाता है तो बिजनेस अखबार रुदाली का रोल अदा करने लगते हैं। मैने तो यही देखा है। रोज सवेरे दफ्तर जाने के रास्ते में अखबार स्कैन करता हूं तो यह अहसास बड़ी तीव्रता से होता है।
शिवकुमार मिश्र या स्मार्ट निवेश पुराणिक ज्यादा जानते होंगे। पर हमें तो न ढ़ंग से स्टॉक खरीदना आया न बेचना। यह जरूर जानते हैं कि लॉग-टर्म में इण्डेक्स ऊर्ध्वगामी होता है। उसी सिद्धान्त का कुछ लाभ ले लेते हैं। बाकी शिवकुमार मिश्र को अपना पोर्टफोलियो भेज देते हैं – कि हे केशव, युद्धक्षेत्र में क्या करना है – यह एक मत से बतायें।
पर जैसा मैं कुछ दिनों से देख रहा हूं; गुलाबी पन्ने के अखबारों को कोई सिल्वर लाइन नहीं नजर आ रही।
अर्थव्यवस्था चौपट लग रही है। अचानक यह कैसे हो जाता है। ये अखबार बैलेन्स बना कर क्यों नहीं चल सकते?
मुझे लगता है कि कुछ ही महीनों में पल्टी मारेंगे ये अखबार। चुनाव से पहले एक यूफोरिया जनरेट होगा जो बिजनेस अखबारों के पोर-पोर से झलकेगा। चुनाव से पहले फील-गुड फेक्टर आयेगा। अब उसको समझाने के लिये तरह तरह के जार्गन्स का प्रयोग होगा। पर आजकी मायूस अर्थव्यवस्था की खबरों से सॉमरसॉल्ट होगा जरूर।
बाकी; ज्यादा बढ़िया तो अर्थजगत के जानकार बतायेंगे! (क्या वास्तव में?!)
और इस पोस्ट पर पिछले कुछ दिनों से मिल रही आलोक पुराणिक जी की निचुड़ी हुई टिप्पणी मिली तो ठीक नहीं होगा! वे टिप्पणी में चाहे अगड़म बगड़म की प्रैक्टिस करें या स्मार्ट निवेश की। कुछ भी चलेगा। ![]()

मेरा तो यही सुझाव है कि आलोक जी के नेतृत्व मे अर्थ-व्यवस्था पर चर्चा करने एक कम्युनिटी ब्लाग बनाये। यह अभी के बिजनेस अखबारो को मात कर देगा। एक से बढकर एक विशेषज्ञ है हमारे ब्लाग जगत मे।
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काकेश जी के कहने के बाद मै बस इत्ता कर सकता हूं कि राखी सावंत को ढूंढ के ला सकता हूं इधर ;)
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अखबार वालों को पन्ने भरना है। जब सेन्सेक्स लगातार अधोगामी होता है, तो आर्थिक अखबार स्यापा करने लगते हैं। पुरानी खबरें और इतिहास छापते हैं। पिछले दिनों दलाल स्ट्रीट में लुटे पिटे एक पुराने पापी से मेरी बात हुई थी। वे बता रहे थे, अभी 13000 तक नीचे आएगा, उस के बाद सोचेंगे कुछ खरीद की। यह खबर 15 दिन पुरानी है, किसी अखबार ने नहीं छापी। आप चाहें तो टिप्पणी में से भी हटा दें। इसे पढ़ कर कइयों की होली मायूस हो जाएगी। हम तो इस बाजार के बारे में पढ़-सुन कर आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। जैसे मॉल में घूमें तीन घंटे, खर्च ना करें एक पैसा और चाय पिएं, बाहर जा कर थडी वाले के यहाँ। होली-पर्व आप को सपरिवार आनन्द प्रदान करे।
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सुबह पढ़ा ..पर टिप्पणी नहीं की क्योंकि आलोक जी की टिप्पणी की प्रतीक्षा थी. आलोक जी ने अब तीन एक्स बता दिये अब ये आप पर है आप किस पर ध्यान लगाते हैं. दूसरे वाले एक्स के लिये कहें तो राखी या मल्लिका का पता आलोक जी से पूछ्कर बता सकते हैं.. :-) बकिया जमाये रहिये जी …
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भारतीय मीडिया और एक हद अर्थशास्त्र तीन किसिम के एक्स पर चलता हैएक्स नंबर वन सेनसेक्सएक्स नंबर टू सेक्स एक्स नंबर थ्री मल्टीप्लेक्सएक एक्स ठंडा पड़ा हो, तो बाकी के एक्स पर मन लगायें। वैसे जब त्राहिमाम् हो रहा हो, तो यह समय खऱीदने का होता है। मेरे पास तो सारे पैसे खत्म हो गये हैं। मार्च का महीना वैसे भी मारु होता है।वैसे अगर आईएफसीआई, आईडीएफसी और जे पी एसोसियेट्स च रिलायंस इंडस्ट्री में रकम लगायेंगे, तो मजे रहेंगे। वैसे, सेक्स और सेनसेक्स में अत्यधिक दिलचस्पी सेहत के लिए घातक है। यह चेतावनी बहुत जरुरी है। आज रकम लगाकर तीन साल बाद सेनसेक्स देखें, मजा आयेगा। विस्तार से आगे कुछ सेनसेक्सी पोस्टों में बताया जायेगा।
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भइयाआपकी अपील के हिसाब से अलोक जी टिपण्णी करेंगे ही. इसलिए उनकी टिपण्णी आज मैं कर देता हूँ.”जमाये रहिये जी”…..:-)
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ज्ञानजी, क्या हमने कभी कहा है कि रेलवे का मुनाफा कम हो जाये? हम तो चाहते हैं कि ये दिन दूना रात चौगुना बढे | फ़िर आप क्यों कच्चे तेल में आग लगने की बात कहकर हमारे पेट पर लात मार रहे हैं :-)अक्सर ऐसा ही होता है, जब कालेज में थे तो खूब साफ्टवेयर सुना, पास होने के ठीक पहले गुल हो गया | अभी तेल कम्पनिया खूब कमा रही हैं और हमारे डाक्टर बनने के आस पास ही कहीं बत्ती गुल न हो जाये :-) तेल पर किया पूरा शोध धरा रह जायेगा :-)
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Rip Van winkle !! ये भली याद करी आपने ज्ञान भाई साहब …अमरीका मान भी महंगाई का पूछिये नाही ..बुरा हाल हुई रहा है ..
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अर्थव्यवस्था का अर्थ समझने में लगे हैं हम भी और शायद पेपर वाले भी तभी इधर उधर पलटी मारते रहते हैं ये सफेद गुलाबी पन्ने रंगने वाले।
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रिप वान विंकल -हम नहीं जानते।बकिया चकाचक है। आलोक पुराणिक की टिप्पणी का हमें भी इंतजार है।
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