काक्रोचित अनुकूलन की दरकार


धरती का वातावरण पलट रहा है। गर्मियां आते ही ग्लोबल वार्मिंग का मन्त्रोच्चार प्रारम्भ हो जाता है। किसी दिन ग्रिड बैठ जाये तो यह मन्त्रोच्चार और भी नादमय हो जाता है। सर्दियों के आगमन पर निकट भविष्य में हिम युग आने की बात पढ़ने में आती है। गंगा मर रही हैं। एक पूरी पीढ़ी देव नदी को मार कर जीवन यापन कर रही है। रसायनों, प्रदूषण, पॉलीथीन, ओजोन परत में छेद, नाभिकीय कचरा… जाने क्या क्या हैं जान के बवाल।

ऐसे ही किसी विकट समय में डायनासोर और मस्तोदान टें बोल गये। विशालकाय डयनासोर और हाथी जैसे मस्तोदान धरती से गायब हो गये। अब भी जीव गायब हो रहे हैं – कभी मोर का नाम उछलता है, कभी तेंदुयेका, कभी गिद्ध का तो कभी सोन चिरैया का। गौरैया भी घटती जा रही हैं।

mastodonविकीपेडिया से लिया गया मस्तोदान का चित्र

मस्तोदान – हाथी जैसे लगने वाले भीमकाय ७ टन के जीव जो यूरेशिया, उत्तरपूर्व अमेरिका, और दक्षिण अमेरिका में तीस लाख वर्ष पूर्व अवतरित हुये और अन्तिम रूप से ११ हजार वर्ष पूर्व धरती से गायब हुये – लगभग आदमी के विश्व में अवतरण के साथ साथ।

आप विकी पर लिंक मस्तोदान के चित्र पर क्लिक कर पायें। नेशनल ज्योग्राफिक में यहां बताया गया है कि सम्भवत मस्तोदान बोन टीबी के शिकार हो कर मरे।

मजे की बात है कि बैसिलस ट्यूबरक्युलॉसिस धरती पर जिन्दा है – कॉक्रोच की तरह। Thinking

पर अगर नहीं घट रहे हैं कोई तो वे हैं कॉक्रोच। मच्छर भी नये पेस्टिसाइड से पटपटा कर मरते हैं। फिर वे एक्लेमेटाइज हो जाते हैं और दूनी रफ्तार से बढ़ते हैं। पंकज अवधिया जी फिर उनके लिये चार पांच जैव रसायनों को मिलाने का प्रयोग करते हैं। मेरा अनुमान है कि मच्छर या कॉक्रोच आज की बजाय १० डिग्री सेल्सियस तापक्रम बढ़ या घट जाये तब भी इस धरती पर रहेंगे – भले ही आदमी वातानुकूलित इगलूओं में सिमट जायें या धरती से चले जायें।

जब कॉक्रोच जैसा प्राणी जिन्दा रह सकता है वातावरण के सभी दुष्प्रभावों को झेल कर भी; तब आदमी – सबसे बुद्धिमान जीव; काहे डायनासोर/मस्तोदान बन जायेगा? मानव में कॉक्रोचित अनुकूलन की दरकार है।

कैसे आयेगा यह अनुकूलन? वातावरण को अपने अनुकूल बनाने की जद्दोजहद से आयेगा अथवा कॉक्रोच की तरह अपने को वातावरण के अनुकूल ढ़ालने से आयेगा? आपका क्या विचार है?


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फाटक के नीचे से सहसा
महाबली सा निकला ऐसा
लाल लाल वो मूछों वाला
मानो आफत का परकाला
उसकी आंखों में थी ज्वाला
वह तिलचट्टा डराने वाला
वो चिल्लाये, शोर मचाये
अपनी मूछें खूब हिलाये
“मैं खा जाऊं, मैं खा जाऊं
नहीं जरा भी दया दिखाऊं”
सभी जानवर कांपें थर थर
कुछ बेहोश हो गये गिर कर …
(मेरी बिटिया वाणी की रटी हुई नर्सरी कविता का अंश)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

17 thoughts on “काक्रोचित अनुकूलन की दरकार

  1. गुर तो अपन को यही सही लगता है कि वातावरण के अनुकूल अपने आप को ढाल लेना ही उचित है.और काकरोच ये बात सही ढंग से सिखाता है जर कोई सिखने वाला हो तो.

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  2. आओ कोकरोच बन जाएं :)मनुष्य रहेगा जी लम्बे काल तक रहेगा. पृथ्वी से परे जायेगा भी तो यहाँ धत्ता बता कर ही.

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  3. मस्तोदान की मस्तीमस्तोदान की करामातये सब तो टीवी कार्यक्रम के शीर्षक हो सकते हैं जी। जमाये रहियेतिलचट्टे को नहीं, पोस्ट को

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  4. बताइए भला, कहां कभी आप अंग्रेजी शब्द ज्यादा ठेलते थे, अब देखिए “मस्तोदान”;)पर्सन – पर्सोना कितना बदलेगा हजूर।

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  5. काक्रोच भी हमारे नेताओ की तरह बेशरम है जी, इस्के उपर भी किसी बात का कोई फ़रक नही, उनके उपर भी नही, ना वो पीछा छोडते ना ये :)

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  6. मनुष्य काकरोच से बहुत कुछ सीख रहा है। बारुदी सुरंग और विस्फोटको का पता लगाने इसका प्रयोग हो ही रहा है। अभी कुछ दिनो पहले डिस्कवरी मे एक कार्यक्रम आ रहा था जिसमे बताया गया कि अब काकरोच को दूर बैठकर भी ‘नियंत्रित’ किया जा सकेगा। परमाणु विस्फोट के बाद जो जीव बचे रहेंगे उनमे से एक काकरोच भी है। क्यो बचे रहेंगे इसकी पडताल हो ही रही है। काकरोच से होम्योपैथी की ब्लाट्टा ओरियेंटलिस नामक दवा बनी रही है और दुनिया भर मे रोज खायी जा रही है। चाय की केतली मे इसे उबालकर दमा की चिकित्सा भी अंग्रेजो के जमाने से हो रही है। विदेशो मे इसे भूनकर और पकाकर व्यंजन बनाये जा रहे है।संक्षेप मे यह कहा जा सकता है कि मनुष्य काकरोच के पीछे पडा है और तब तक पीछे पडा रहेगा जब तक मंत्र न मिल जाये। :)

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  7. काकरोच आदमी के धरावतरण के करोड़ों वर्ष पहले से था और शायद बाद तक रहे भी .मनुष्य तिल तिल कर मर रहा है ,पर अफसोस वह तिलचट्टा नही हो सकता .

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  8. मस्तोदान. पहली बार सुना यह शब्द. मैमथ ही अक्सर सुनने में आता है.यदा-कदा प्रकृति अपना आक्रोश दिखाती रहती है, मगर जब तक पानी बिल्कुल नाक तक ना जाए हम लोग कहाँ चेतने वाले हैं.लाइव रायटर इंस्टाल करने का प्रयास असफल रहा, अब हमें तो ऐसी ब्लॉग सजावट के लिए कोई और जुगत लगानी होगी.

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  9. संकट यही है कि आदमी ने अनुकूलन का एक सीमा तक त्याग कर दिया है। वह कमरे को वातानुकूलित करता है, खुद को नहीं। यही उस की मुसीबत का कारण बन सकता है, और नस्ल वे लोग बचाएंगे जो अनुकूलन को नहीं छोड़ेंगे।

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