वह दौड़


नाइटिंगेल नाइटटिंगेल कॉनेण्ट के ई-मेल से मिलने वाले सन्देशों का मैं सबस्क्राइबर हूं। कुछ दिन पहले “द रेस” नामक एक कविता का फिल्मांकन उन्हों ने ई-मेल किया। आप यह फिल्मांकन देख सकते हैं। यह श्री डी ग्रोबर्ग की कविता है जो मैने नेट पर खोजी। फिर उसका अनुवाद किया। कविता बहुत सशक्त है और अनुवाद सामान्य। आप देखें, पूरा पढ़ पाते हैं क्या?:
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“छोड़ दो, हट जाओ, तुम हार गये हो”
वे मुझ से चिल्ला कर कहते हैं।
“अब तुम्हारे बस में नहीं है;
इस बार तुम सफल नहीं हो सकते।“
और मैं अपना सिर लटकाने की
मुद्रा में आने लगता हूं।
असफलता मेरे सामने है।
मेरी हताशा पर लगाम लगती है,
मेरी यादों में बसी एक दौड़ से।
मेरी कमजोर इच्छाशक्ति को
आशा की प्राणवायु मिलती है।
उस दौड़ की याद
मेरी नसों में भर देती है जोश!
बच्चों की दौड़, बड़े होते बच्चे,
कितना ठीक ठीक याद है मुझे।
कितना जोश था और कितना भय भी
मुश्किल नहीं है उसकी कल्पना।
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एक लकीर पर पांव रखे,
हर बच्चा सोच रहा था।
प्रथम आने की,
नहीं तो कम से कम दूसरे नम्बर पर!
सभी के पिता साइड में खड़े
अपने बच्चे का बढ़ा रहे थे हौसला।
हर बच्चा चाहता था उन्हे बताना
कि वह अव्वल आयेगा।
सीटी बजी, वे सब दौड़ पड़े
उमंग और आशा से भरे।
हर बच्चा जीतना चाहता था,
चाहता था वह हीरो बने।
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और एक बच्चा, जिसके पिता,
भीड़ में थे, जोश दिलाते।
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सबसे आगे था वह, सोच रहा था –
“कितने खुश होंगे मेरे पिताजी!”
पर जैसे वह मैदान में आगे बढ़ा,
आगे एक छोटा सा गड्ढ़ा था।
वह जो जीतना चाहता था दौड़,
पैर फिसला, गिर पड़ा वह।
न गिरने का पूरा यत्न किया उसने,
हाथ आगे टिकाने की कोशिश की।
पर रोक न सका गिरने से अपने को,
भीड़ में हंसी की लहर चली।
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वह गिरा, साथ में उसकी आशा भी,
अब नहीं जीत सकता वह दौड़…
कुछ ऐसा हो, उसने सोचा,
कहीं मुंह छिपा कर खो जाये वह!
पर जैसे वह गिरा, उठे उसके पिता,
उनके चेहरे पर पूरी व्यग्रता थी।
वह व्यग्रता जो बच्चे को कह रही थी –
“उठो, और दौड़ को जीतो!”
वह तेजी से उठा, अभी कुछ गया नहीं,
“थोड़ा ही पीछे हुआ हूं मैं”,
वह दौड़ पड़ा पूरी ताकत से,
अपने गिरने की भरपाई के लिये।
दौड़ में वापस आने की व्यग्रता,
और जीतने की जद्दोजहद।
उसका दिमाग उसके पैरों से तेज था,
और वह फिर गिर पड़ा।
उसने सोचा कि बेहतर था,
पहली गिरान पर अलग हट जाता।
“मैं कितना खराब दौड़ता हूं,
मुझे हिस्सा नहीं लेना था दौड़ में।“
पर उसने हंसती भीड़ में’
अपने पिता का चेहरा खोजा।
वे देख रहे थे उसे अपलक,
मानो कह रहे हों – “दौड़ो, जीतो!”
और वह फिर कूदा दौडने को,
अन्तिम से दस गज पीछे।
“अगर मुझे जीतना है तो,
और तेज दौड़ना होगा”, उसने सोचा।
पूरी ताकत झोंक दी उसने,
आठ दस गज का फासला कम किया।
पर और तेज दौड़ने की आपाधापी में,
वह फिर फिसला और गिर पड़ा।
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हार! वह चुपचाप पड़ा रहा,
उसकी आंख से एक बूंद टपकी।
“अब कोई फायदा नहीं,
अब तो यत्न करना बेकार है!”

उठने की इच्छा मर चुकी थी,
आशा साथ छोड़ गयी थी
इतना पीछे, इतनी गलतियां,
“मैं तो हूं ही फिसड्डी!”
“मैं तो हार चुका हूं, और
हार के साथ जीना होगा मुझे।“
पर उसने अपने पिता के बारे में सोचा,
जिनसे कुछ समय में वह मिलने वाला था।
“उठ्ठो” एक ध्वनि धीमे से सुनी उसने,
“उठो और अपनी जगह लो।“
“तुम यहां हारने को नहीं आये,
चलो, दौड़ो और जीतो!”
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“उधार लो इच्छाशक्ति को”, कहा आवाज ने,
“तुम हारे नहीं हो, बिल्कुल नहीं”
क्यों कि जीतना और कुछ नहीं है,
वह सिर्फ यह है कि गिरो तो उठ खड़े हो!”

सो वह एक बार फिर उठ खड़ा हुआ,
एक नये विश्वास के साथ।
उसने निश्चय किया कि जीते या हारे,
वह मैदान नहीं छोड़ेगा।

औरों से इतना पीछे था वह,
जितना पीछे हो सकता था।
फिर भी पूरी ताकत लगाई उसने,
वैसे ही दौड़ा जैसे जीतने के लिये हो।

तीन बार गिरा वह बुरी तरह,
तीन बार वह फिर उठा।
इतना पीछे था वह कि,
जीत नहीं सकता था, पर दौड़ा।

जीतने वाले को भीड़ ने तालियां दी,
जिसने पहले लाइन पार की।
ऊंचा सिर, पूरे गर्व से,
न गिरा, न कोई गलती की जिसने।

पर जब गिरने वाले बच्चे ने,
अन्त में लाइन पार की, तब,
भीड़ ने और जोर से तालियां बजाईं,
उसके दौड़ पूरा करने के लिये।

वह अन्त में आया, सिर झुकाये,
चुपचाप बिना किसी खुशी के।
पर अगर आप दर्शकों की मानते,
तो कहते कि दौड़ उसने जीती है!

अपने पिता से वह बोला, दुखी मन से,
“मैने अच्छा नहीं किया।“
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“मेरे लिये तो तुम जीते!”, कहा पिता ने,
“तुम हर बार उठ खड़े हुये, जब भी गिरे!”

और अब, जब सब कुछ घना, कठिन,
और हताश लगता है,
तब उस छोटे बच्चे की याद मुझे,
आज की दौड़ में बने रहने की ताकत देती है।

पूरी जिन्दगी उस दौड़ जैसी है,
सभी ऊंचाइयों और गड्ढों से युक्त।
और जीतने के लिये आपको सिर्फ यह करना है –
जब भी गिरो, उठ खड़े होओ!

“छोड़ो, हट जाओ, तुम हार गये हो”’
वे आवाजें मेरे मुंह पर अब भी चिल्लाती हैं।
पर मेरे अन्दर एक आवाज अब भी कहती है,
“उठ्ठो, और जीतो इस दौड़ को!”

— डी ग्रोबर्ग की एक कविता का अनुवाद। चित्र नाइटिंगेल कॉनेण्ट के उक्त फिल्मांकन के स्टिल्स हैं।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

28 thoughts on “वह दौड़

  1. आशा पर ही तो जीवन टिका है…सच है…किंतु सबसे मुश्किल पाठ जो मै भी बार बार भूल जाती हूँ…. याद दिलवाने के लिए शुक्रिया..बहुत ही अच्छा लगा..

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  2. दौड़ते रह सकने की हिम्‍मत के लिए उस आंख का होना ज़रूरी है, जो आपको हिम्‍मत देती हो, आपकी जीत देखना चाहती हो। इस बच्‍चे को उसके पिता की एक जोड़ी आंखें देख रही थीं, कुछ के साथ हो सकता है ऐसा न हो, तो भी ये याद रख लेना पर्याप्‍त है कि ईश्‍वर तो देख ही रहा है अपने बच्‍चों को इस इच्‍छा के साथ कि हारें नहीं। आपकी पोस्‍ट ने आज कुछ ख़ास दिया मुझे। धन्‍यवाद

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