बहुत पहले मेरे जिम्मे रेल मण्डल स्तर पर मीडिया को सूचना देने का काम था। मैने पाया कि जबानी बात सही सही छपती नहीं थी। लिहाजा मैने ३०० शब्दों की प्रेस रिलीज स्वयं बनाने और खबर बनाने की समय सीमा के पहले अखबारों के दफ्तरों तक पंहुचवाने का इन्तजाम कर लिया था। मेरे पास एक वृद्ध पी.आर.ओ. थे। उनसे अगर प्रेस रिलीज बनाने को कहता तो वे ऐसी बनाते जैसी बाबू फाइल में आदेशार्थ-अवलोकनार्थ नोटिंग प्रस्तुत करता है। लिहाजा वह काम मैने स्वयं करने का फैसला कर लिया था।
मेरी प्रेस रिलीज से पत्रकार बन्धु प्रसन्न थे। उनकी मेहनत कम हो गयी। थोड़ा बहुत शाब्दिक हेर-फेर से वे पूरी प्रेस रिलीज ठेलने लगे थे। करीब २०-२५ पत्रकार थे। कुछ बहुत शार्प थे, कुछ "हॉकर-टर्ण्ड पत्रकार" थे, अधिकतर अपने को स्पेशल बताने में लगे रहते थे और (लगभग) सभी आलसी थे। लिहाजा महीने में १७-१८ प्रेस रिलीज ठेलना मेरा रूटीन बन गया था। आप जान सकते हैं कि वह ब्लॉगिंग का पूर्वाभ्यास था! प्रेस विज्ञप्तियों पर कई फॉलो-अप स्टोरीज़ बन सकती थीं। पर मुझे याद नहीं आता कि ऐसा कभी यत्न पत्रकार मित्रों ने किया हो।
वे मेरी प्रेस रिलीज में जो परिवर्तन करते थे, उसमें सामान्यत विषयवस्तु बदलने/परिवर्धित करने की बजाय सुपरलेटिव्स घुसेड़ना होता था। मेरी समझ में नहीं आता कि इतने सुपरलेटिव्स स्प्रिंकल (superlative sprinkle – "अतिशयोक्तिपूर्ण अन्यतम शब्द" का छिड़काव) करने की बजाय वे कण्टेण्ट सुधारने में क्यों नहीं ध्यान देते थे।
और उनकी अपनी रेल विषयक खबर तो चाय के कप में सनसनी उठाने वाली होती थी। टीटीई या मालबाबू की १४ रुपये की घूस (जिसका सत्यापन न हुआ हो) को १४.०० रुपये की घूस बताना; जिससे कि संख्या बड़ी लगे; सामान्य अक्षमता, पोस्टिंग-ट्रान्सफर, ठेके देने आदि को ऐसे बताना, जैसे बहुत बड़ा घोटाला, करोड़ों का लेन देन, देश को बहुत बड़ा चूना लगा हो और देश गर्त में छाप हो रहा हो। यार्ड का छोटा अनियमित परिचालन इस प्रकार से प्रस्तुत होता था, मानो वह केवल दैवयोग ही था जिसने पचीस-पचास को दुर्घटना में मरने से बचा लिया।
लगता है सुपरलेटिव्स, और विशेषत: ऋणात्मक सुपरलेटिव्स की बहुत मांग है, बहुत रीडरशिप है। लिहाजा उनका स्प्रिंकलिंग पत्रकार अनजाने में – बतौर आदत सीख जाते हैं।
आप जरा अखबारों को ध्यान से देखें। विशेषत: भाषायी अखबारों को। जरा सुपरलेटिव्स का प्रयोग निहारें। आप में से (बावजूद इसके कि हिन्दी में ब्लॉगिंग में पत्रकार बिरादरी की भरमार है और वे अपने व्यवसाय में गहन गर्व करते हैं) आधे से ज्यादा मेरी बात से सहमत होंगे। इतने ऋणात्मक सुपरलेटिव्स के साथ या बावजूद यह देश चल रहा है – अजूबा ही है न!
हमारे देश में बहुत कुछ सामान्य है – मीडियॉकर (mediocre – औसत या घटिया)। उसे सुपरलेटिव्स से नवाजना बहुत जायज नहीं है। अच्छे और बैलेंस्ड पत्रकार भी हैं। पर सुपरलेटिव्स स्प्रिंकलर्स ज्यादा हैं।
| मैं कैसा भी अच्छा लिखूं; मेरी पंहुच एक इलाकाई अखबार के कण्ट्रीब्यूटर का हजारवां हिस्सा भी न होगी। उसी प्रकार अगर मैं एक लेख विकीपेडिया पर लिखूं, और उससे खराब, कहीं ज्यादा खराब गूगल के नॉल पर, तो बावजूद इसके कि मेरा विकी पर लेख ज्यादा अच्छा लिखा है, गूगल सर्च नॉल पर लिखे मेरे लेख को बेहतर सर्च वरीयता देगा।
आपका क्या सोचना है? |

सिद्धाथ और पुराणिक जी सही कह रहे हैं पत्रकारिता के लिहाज से और आप की कलम में धार है ही….अच्छा मुद्दाहै।
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pranaam aapko aur aapke patrakaron par shodh ke liye naman bhi.bahut baareek aur sateek adhyayan hai aapka.main patrakar bhi hun aur is desh ko kuch hawker turned patrakaaron maine bhi diye hai.patrakaaron ka neta bhi hun iske bavjood aapki saari baat man leta hun magar ek baat unki taraf se kehna chhahunga maalik hi nahi chhahta achhe aur jyada wetan wale patrakar.ya naukar rakhen.aajkal khabaron ke liye kaha jaata hai jo dikhta hai wo bikta hai.ek akhbaar samooh to akhbaar ko product kehne laga hai to patrakaar bhi sales men jaise hi milenge na.waise is desh ka durbhagya hai ki yanha shikshak aur patrakaar ko samaaj me wo mahatva nahi mil paya jo ek bank ke babu ya sarkaari chapraasi ko mila.aapne patrakaron ki alaali ki bhi badhiya vyakhya ki hai aap ek safal pro the hain aur rahenge.koi bat buri lage to use raddi press not samajh kar…..baki to aap samajhdaar hain hi
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इस लेख से तो काफ़ी जानकारी मिली.. वैसे विकी या नोल, मैने तो दोनो पर ही कुछ नही लिखा है.. इसलिए अभी तो कुछ कहना कठिन है.. नोल के साथ कुछ वक़्त और बिताना है.. उसके बाद ही कुछ कहेंगे
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superlatics sprinkle wale patrkar ko hi nahi balki bahut sari baaton ko dekh ke bhi taajub hota hai…..aakhir desh chal kaisi reha hai
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वही तो मैं कहूं, कि आप यूं ही ब्लागर ना हुए। बतौर अर्धपत्रकार के तौर पर आप काम करते रहे हैं। सरजी कुछ रहम खाईये पत्रकार पर, सिंपल सिंपल से आंकड़े रखेगा, बातें रखेंगा, तो कौन पढ़ेगा। समझिये अगर आप यह लिखें कि आज दिल्ली से आने वाली वाया इलाहाबाद कलकत्ता को जाने वाली सभी समय गाड़ियां सुरक्षित निकल गयीं। कऊन छापेगा। ट्रेन सुंदरियों का गिरोह सक्रिययह छपवाइये पहले पेज की खबर है। जनरल डिब्बे का भूत, इस पर तो कई दिन फाओअप चलेगा। खबर दरअसल अब मनोरंजन है, जिसमें मनोरंजन और तनोरंजन नहीं है, उसे कौन छापेगा जी।
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वही तो है पीत पत्रकारिता !ज्ञानदत्त पाण्डेय जी न तो विकीपीडिया पर ही हैं और न नाल पर ही.सरह तो यही बताता है -कहीं को फिक्र करते हैं -जहाँ हैं चंगे तो हैं .
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“हमारे देश में बहुत कुछ सामान्य है – मीडियॉकर”मैं सहमत हूँ – हमारे विश्व में भी ऐसा ही है. और शायद हमारे मीडियॉकर होने में उतनी बुराई नहीं है जितनी इसको छिपाकर अपनी बुद्धिमता का दिखावा करने के उल-जलूल प्रयासों में जैसे की यह सुपरलेटिव वाला मामला.
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सनसनी और विज्ञप्तियाँ ही तो अखबारों का मुख्य आधार हो गए हैं।
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पत्रकारों को बताया जाता है कि समाचार वही है जो सामान्य से अलग हो। `साधारण आइटम’ बिकता नहीं है, इसीलिए इसे असाधारण बनाना पड़ता है। ‘अतिशयोक्ति’ का प्रयोग इनकी अक्षमता को छिपाने का असफल प्रयास है। वास्तव में असाधारण तथ्य दिखाने के लिए असाधारण दृष्टि की आवश्यकता है जो सबके पास नहीं होती।
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-हॉकर-टर्ण्ड पत्रकार-जबरदस्त जुमला लगा..दिल हाय हाय हो गया. -माह में १७-१८ प्रेस रिलिज ठेलने वाला अब माह में मात्र ३०-३१ पोस्ट ठेल रहा है, अति शर्मनाक. कितनी प्रोडक्टिविटी गिर जाती है उम्र के साथ..कुछ च्व्यनप्राश टाईप लेते क्यूं नहीं. -ऋणात्मक सुपरलेटिव्स की बहुत मांग है-क्या यह आप ब्लॉगस पर नहीं देख पा रहे हैं…मोदी घसीटन से लेकर परमाणु डील तक यही तो है. रीडरशिप जो है इसकी। -अच्छे और बैलेंस्ड पत्रकार भी हैं। पर सुपरलेटिव्स स्प्रिंकलर्स ज्यादा हैं। -इसे डिस्क्लेमर माने लें क्या??-गुगल के नॉल पर ट्राई मारने में कोई बुराई नहीं है मगर कुछ स्पेस्फिक्स हैं जैसे लेख की विषय विषेज्ञता एवं दीर्घकालिक प्रभावशीलता-वैसे तो आपके तो सभी आलेख इस पर खरे हैं-समस्या तो हमारे साथ है. :)-बेहतरीन आलेख. मजा आया विश्लेषण करने में मजा आया बिना सुपरलेटिव्स स्प्रिंकल किए. :) कहीं हो तो नहीं गये ज्यादा स्प्रिंकल??
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