मुशर्रफ अन्त तक एक उद्दण्ड अवज्ञाकारी कमाण्डो की तरह अपने पर हो रहे आक्रमणों का जवाब देते रहे – यह मैने एक समाचारपत्र के सम्पादकीय में पढ़ा। मैं मुशर्रफ का प्रशंसक नहीं हूं। किसी समय शायद उनके व्यक्तित्व से नफरत भी करता था। पर वे एक उद्दण्ड अवज्ञाकारी कमाण्डो की तरह थे; इस पर मुझे कोई शक नहीं है।
बतौर कमाण्डो उनकी छवि आकर्षित करती है। मुझे विश्वास है कि पाकिस्तान को उनसे बेहतर नेता मिलने नहीं जा रहा। और जिस तरह सन सतहत्तर में आम भारतीय के स्वप्नों को श्रीमती गांधी के बाद मोरारजी/चरणसिंह युग ने बड़ी तेजी से चूर किया; उससे कम तेजी के भाग्य वाले पाकिस्तानी नहीं होंगे!
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खैर, मैं एक कमाण्डो की बात कर रहा हूं। मुशर्रफ या पाकिस्तान की नहीं – वे तो केवल इस पोस्ट की सोच के ट्रिगर भर हैं।
कुछ साल पहले एक वीवीआईपी की सुरक्षा में लगे एक ब्लैक कैट कमाण्डो को मैने बातों में लेने का प्रयास किया। उसके साथ मुझे कुछ घण्टे यात्रा करनी थी। या तो मैं चुपचाप एक किताब में मुंह गड़ा लेता; पर उसकी बजाय यह जीव मुझे ज्यादा रोचक लगा।
पहले मैने उसे अपनी सैण्डविच का एक पीस ऑफर किया। कुछ देर वह प्रस्तर प्रतिमा की तरह बैठा रहा। शायद तोल रहा हो मुझे। फिर वह सैंण्डविच स्वीकार कर लिया उसने। मेरे साथ के रेलकर्मियों के कारण मेरे प्रति वह आश्वस्त हो गया होगा। उसके अलावा निश्चय ही उसे भूख भी लगी होगी। फिर मैने कहा कि क्या मैं उसकी गन देख सकता हूं – कि उसमें कितना वजन है। उसने थोड़ी झिझक के बाद वह मुझे उठाने दी।
"यह तो बहुत कम वजन की है, पर इससे तड़ातड़ निकली गोलियां तो कहर बरपा सकती हैं। बहुत डरते होंगे आतंकवादी इससे!" – मैने बात बढ़ाई।
अब वह खुल गया। "इससे नहीं साहब, इससे (अपने काले कपड़े को छू कर बताया उसने) डरते हैं।"
मुझे अचानक अहसास हुआ कि वह वास्तव में सही कह रहा है, गर्वोक्ति नहीं कर रहा। आतंकी ब्लैक कैट की छवि से आतंकित होता है। उस वर्दी के पीछे जो कुशलता और अनुशासन है – उससे डरता है दहशतगर्द! यह ड़र बना रहना चाहिये।
वह मेरे साथ दो-ढ़ाई घण्टे रहा। यहीं उत्तरप्रदेश का मूलनिवासी था वह – गोरखपुर/देवरिया का। बाद में उसने कहा कि लोगों से मेलजोल-बातचीत न करना उसकी ट्रेनिंग का हिस्सा है। शायद बातचीत करने से इमोशनल अटैचमेण्ट का दृष्टिकोण आ जाता हो।
मैं शायद अब इतने सालों बाद उसके बारे में सोचता/लिखता नहीं; अगर मुशर्रफ-कमाण्डो विषयक सम्पादकीय न पढ़ा होता।

ऐसे ही एक कमांडो के पैर का “वार्ट” निकालने का मौका मुझे मिला था उसके बाद से मोबाइल पर किसी प्राइवेट नंबर से उसके कॉल आते रहते है ओर हर दीवाली पर एक शुभकामना मेसेज
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आजकल तो लोग ब्लॉगर से डरने लगे है.. खैर आपने बढ़िया बात बताई.. इस से पहले ऐसा कुछ सोचा नही था..
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ब्लैक कमाण्डो की कथा का सार : बन्द मूठी लाख की. उसकी पोशाक भयभीत करती रहे इसी में लाभ है.
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कमांडो भी इंसान होते हैं, पर अलग टाइप के। मुशर्रफ का तो पतन हो लिया था, वह नेता हो लिये थे। पावर में रहकर पतन सुनिश्चित हो लेता है।
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मै समझ गया यह यह पेशबंदी क्यूँ की जा रही है -पर यह जान लीजिये हम आपको कमांडों हरगिज नही बनने देंगे .
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बहुत नज़दीक से देखने का मौका मिला, बधाई! ;-)
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वो भी एक इन्सान ही हैं….वक्तानुरुप भूमिका निभा रहे हैं-क्या जाने कब किसका कैसा वक्त आये. :)
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जिस तरह सन सतहत्तर में आम भारतीय के स्वप्नों को श्रीमती गांधी के बाद मोरारजी/चरणसिंह युग ने बड़ी तेजी से चूर किया; उससे कम तेजी के भाग्य वाले पाकिस्तानी नहीं होंगेइस बात से पूरी तरह सहमत
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हमारे यहाँ के पस्चिम / दक्षिण दिशामेँ एक विशाल और खुला , नैसिर्गिक सौँदर्य से भरपूर STATE है -वहीँके मेहमान बनकर आ रहे हैँ आजके विषय के मुख्य पात्र ! ( mr Munshee :)जी हाँ ! और कमान्डो भाई से मुलाकात भी रोचक लगी ..बात ना करना सही है क्या पता किस भेस मेँ कौन घूम रहा हो ! वो तो अच्छा हुआ आप थे और उसका भरोसा जायज रहा ~~ -लावण्या
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इंन्सान अनजान से ही डरता है। फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो। जीव या निर्जीव।
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