रमज़ान के शुरू होने वाले दिन मेरा ड्राइवर अशरफ मुझसे इजाजत मांगने लगा कि वह तराबी की प्रार्थना में शरीक होना चाहता है। शाम चार बजे से जाना चाहता था वह – इफ्तार की नमाज के बाद तराबी प्रारम्भ होने जा रही थी और रात के दस बजे तक चलती। मुझे नहीं मालुम था तराबी के विषय में। मैने उसे कहा कि अगर एक दो दिन की बात हो तो घर जाने के लिये किसी से लिफ्ट ले लूंगा। पर अशरफ ने बताया कि वह पूरे रमज़ान भर चलेगी। और अगर छोटी तराबी भी शरीक हो तो सात या पांच दिन चलेगी। मैं सहमत न हो सका – अफसोस।
पर इस प्रकरण में अशरफ से इस्लामिक प्रेक्टिसेज़ के बारे में कुछ बात कर पाया।
पहले तो ई-बज्म की उर्दू डिक्शनरी में तराबी शब्द नहीं मिला। गूगल सर्च में कुछ छान पाया। एक जगह तो पाया कि पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब नें तराबी की प्रार्थना अपने घर पर काफी सहज भाव से की थी – दो चार रकात के बीच बीच में ब्रेक लेते हुये। शाम को दिन भर के उपवास से थके लोगों के लिये यह प्रार्थना यह काफी आराम से होनी चाहिये। अशरफ ने जिस प्रकार से मुझे बताया, उस हिसाब से तराबी भी दिन भर की निर्जल तपस्या का नमाज-ए-मगरिब से नमाज-ए-इशा तक कण्टीन्यूयेशन ही लगा। मैं उस नौजवान की स्पिरिट की दाद देता हूं। उसे शाम की ड्यूटी से स्पेयर न करने का कुछ अपराध बोध मुझे है।
रोज़ा रखना और तराबी की प्रार्थना में उसे जारी रखना बहुत बडा आत्मानुशासन लगा मुझे। यद्यपि यह भी लगा कि उसमें कुराअन शरीफ का केवल तेज चाल से पाठ भर है, उतनी तेजी में लोग शायद अर्थ न ग्रहण कर पायें।
तराबी की प्रार्थना मुझे बहुत कुछ रामचरितमानस का मासपारायण सी लगी। अंतर शायद यह है कि यह सामुहिक है और कराने वाले हाफिज़ गण विशेषज्ञ होते हैं – हमारी तरह नहीं कि कोई रामायण खोल कर किसी कोने में हनुमान जी का आवाहन कर प्रारम्भ कर दे। विधर्मी अन्य धर्मावलम्बी (यह परिवर्तन दिनेशराय जी की टिप्पणी के संदर्भ में किया है) होने के कारण मुझे तराबी की प्रार्थना देखने का अवसर शायद ही मिले, पर एक जिज्ञासा तो हो ही गयी है। वैसे अशरफ ने कहा कि अगर मैं क्यू-टीवी देखूं तो बहुत कुछ समझ सकता हूं।
अशरफ इसे अचीवमेण्ट मानता है कि उसने कई बार रोज़ा कुशाई कर ली है (अगर मैं उसके शब्दों को सही प्रकार से प्रस्तुत कर पा रहा हूं तो)। बहुत कुछ उस प्रकार जैसे मैने रामायण या भग्वद्गीता पूरे पढ़े है।
अशरफ के साथ आधा-आधा घण्टे की दो दिन बातचीत मुझे बहुत कुछ सिखा गयी। और जानने की जिज्ञासा भी दे गयी। मुझे अफसोस भी हुआ कि दो अलग धर्म के पास पास रहते समाज एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं।
मुझे खेद है कि मैं यह पोस्ट अपनी जानकारी के आधार पर नहीं, पर अशरफ से इण्टरेक्शन के आधार पर लिख रहा हूं। और उसमें मेरी समझ की त्रुटियां सम्भव हैं।

हमारे लिए भी ये जानकारी एकदम नयी है। ड्राइवर से और जानकारी पाने की संभावनाएं बाकी है। आशा करती हूँ कि यूनूस जी अब इसके आगे की कमान संभाल लेगें और हमें और नयी नयी जानकारी देगें।
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रोचक और सामयिक लेख।तराबी शब्द मैं भी पहली बर सुन रहा हूँ।आम लोग इस्लाम के विवादास्पद प्रथाओं पर ज्यादा ध्यान देते हैं और जानकारी (प्राय: अधूरी) रखते हैं। (जैसे विवाह और तलाक़ सम्बन्धी प्रथाओं पर)जिहाद पर हर कोई प्रवचन देने के लिए तैयार हो जाता है।सही अर्थ कितने लोग जानते हैं? औरों के धर्म के बारे में सतही ज्ञान रखकर टिप्प्णी करने वाले बहुत लोग मिल जाएंगे।एक और बात।आज की पीढ़ी, अन्य धर्मों के बारे में चाहे ज्यादा न जानती हो, कभी कभी तो अपना ही धर्म के बारे में उनकी जानकारी अधूरी है।हिन्दू और इसाई धर्म और इस्लाम ज्यादा चर्चित हैं।जैन, सिख और बौद्ध धर्म के बारे में जनता बहुत कम जानती है ।मेरा विचार है के स्कूलों और कालेजों में सभी छात्रों को भारत के सभी धर्मों कि थोड़ी बहुत जानकारी दी जानी चाहिए (जैसे धर्म का इतिहास, ग्रन्थों के सूची, धर्म के मूल सिद्धान्त, प्रथाएं, त्योहारों के नाम और सन्दर्भ/अर्थ , जाने माने गुरुओं के नाम वगैरह)। इससे समाज में साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ेगा।लेकिन इस विषय पर पाठ्यक्रम बिना विवाद का तैयार हो सकता है, आज के जमाने में? क्या कुछ स्कूलों में अन्य धर्मों के बारे में जिक्र करने की भी अनुमति दी जाएगी? कुछ लोग तो यही कहेंगे ” न बाबा न। रहने दो इसे। कौन मुसीबत मोल लेगा?”
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धर्म या सम्प्रदाय के तौर-तरीकों को जानना एक अहम बात है। इससे सम्मान की भावना मन में जगती है। प्रेरणा के लिए धन्यवाद।
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muslim bahul mohalle me rahne ke karan thoda bahut jaanta hun.lrkin jaankari badhana achhi baat hai.aabhar aapka
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कितना सच कहा है की हम दो धर्म वाले सदियों से साथ रहते आए हैं लेकिन कितना कम एक दूसरे के बारे में जानते हैं…क्यू टी.वी. पर चैनल बदलते बदलते रुक गया वहां रात एक मोतारमा कुरान शरीफ का कोई प्रसंग सुना रहीं थीं…मैंने सुना और जाना अगर की इसे कोई भी इंसान, हिंदू या मुसलमान समझ और मान ले तो शायद दुनिया में सिवाय अमन के और कुछ बचे ही ना… दोनों धर्म एक सी बात ही करते हैं कोई फर्क नहीं है… आपकी दी जानकारी का शुक्रिया और अशरफ मियां को हम पहले से ही ईद मुबारक कह देते हैं…नीरज
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किसी ओर ने भी ऐसा ही लिखा था ….ये वही महिला है जिन्हें घोस्ट बस्टर जी” पुरूष” बता रहे है ..
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एक दुसरे के बारे में नहीं जानते या फिर बताते ही नहीं. क्या आप जैन तपस्याओं के बारे में जानते है? आपका लेख जानकारी बढ़ा गया.
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लगता था की बहुत जानते हैं दुसरे धर्मों के बारे में पर तराबी पहले नहीं सूना था.
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आलोक जी बस इत्ती सी बात . आप प्रोग्राम बनाईये हम आपको निकह के बाद के छुआरे खिलवा कर लाते है जी , वलीमा की दावत शादी के अगले दिन या उसके बाद होती है :)
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एक दूसरे को जानने में बहुत आफतें हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्र हर साल पाकिस्तान जानते हैं, पाकिस्तान को समझने, दिल्ली विश्वविद्यालय से पांच किलोमीटर दूर जामा मस्जिद के इलाके के आसपास को समझने का काम अभी होना बाकी है। मैंने भी चार दशक से ऊपर की जिंदगी पार कर ली है, पर आज तक एक भी मुसलिम शादी नहीं देखी, फिल्मी शादियों को छोड़कर।
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