गोरखपुर में गोलघर और मोहद्दीपुर को जोड़ने वाली सड़क पर रेलवे के बंगले हैं। उनमें से एक बंगला मेरा था। सड़क के पार थी रिक्शा खटाल। रिक्शा खटाल का मालिक बिल्लू सवेरे अपने सामने मेज लगा कर बैठता था। चारखाने की तहमद पहने, सिर पर बाल नहीं पर चंद्रशेखर आजाद छाप मूंछें। आधी बढ़ी दाढ़ी, जो सप्ताह में एक दिन वह शेविंग कराता होगा। सामने एक ग्लास में रंगहीन पेय होता था जिसमें पर्याप्त अल्कोहल कण्टेण्ट प्रतीत होता था और जिसमें से वह दिन भर चुस्की लेता रहता था। निश्चय ही बोतल भी आस पास होती थी, पर वह मैने सामने कहीं देखी नहीं।
बिल्लू रिक्शा वालों से पैसा लेता था और रिक्शा किराये पर अलॉट करता था। उसे दिन भर अपनी मेज पर बैठे ही पाया मैने। दबंग और भारी शरीर का व्यक्तित्व। चिमिरखी रिक्शा चालक को झापड़ मार दे तो रिक्शा वाल उठ न सके! बिल्लू को अपने रिक्शा निवेश पर जबरदस्त रिटर्न मिलता रहा होगा।
मैं केवल अन्दाज लगाता हूं कि वह प्रॉमिस्कुअस (promiscuous – एक से अधिक को सेक्सुअल पार्टनर बनाने वाला) रहा होगा। रात में यदा कदा कई औरतों की चिल्लाहट की आवाज आती थी। और उसके बाद सन्नाटा पसरता था बिल्लू की गरजती अलंकारिक भाषा से। जिन्दगी का सब प्रकार से मजा लेता प्रतीत होता था बिल्लू।
यहां इलाहाबाद में सवेरे घूमने जाते समय एक खटाल दीखती है रिक्शे की। उसे देख कर बरबस याद हो आता है बिल्लू। तीन साल से ज्यादा समय हो गया है। अब भी वह वैसे ही होगा। मैं रेलवे अधिकारी था, सो बिल्लू का कुछ कर नहीं पाया। पर छोटा मोटा भी प्रशासनिक/पुलीस अधिकारी रहा होता मोहद्दीपुर इलाके का तो शायद एक बार तो बिल्लू की फुटपाथ घेर कर बनाई खटाल उखड़वाता। उसका अनाधिकृत जगह कब्जियाना तो निमित्त होता। असल में कष्ट यह था कि एक तीस-चालीस रिक्शों की खटाल (यानी निवेश लगभग दो लाख) से बिल्लू इतनी मौज कैसे कर रहा है, और हम दिन रात रेल परिचालन में ऐसी तैसी कराते रहते हैं।
लगता है कि रेलवे सर्किल में मेरे ब्लॉग की जिज्ञासाहीनता की समाप्ति हो रही है। उस पोस्ट पर भी प्रवीण ने टिप्पणी की थी और कल की पोस्ट पर तो एक सशक्त टिप्पणी है उनकी।
प्रवीण पाण्डेय झांसी रेल मण्डल के वरिष्ठ मंडल वाणिज्य प्रबन्धक हैं। एक सार्थक हौलट रेल अधिकारी! — वह जो बकलोल और हौलट में अन्तर भी जानते हैं! यह रही प्रवीण की टिप्पणी:
हौलट और बकलोल में एक अन्तर है। बकलोल अपने बोलने से पहचाना जाता है जबकि हौलट अपने व्यवहार से। दोनो के अन्दर ही बुद्धि और व्यवहार या बुद्धि और बोलचाल में तारतम्य नहीं रहता है। दोनो ही दया के पात्र नहीं हैं। सभी समाज सुधारक एवं वैज्ञानिक प्रारम्भ में इसी उपाधि से जाने जाते हैं। आजकल भी तेज तर्रार अधिकारियों को हौलट कहा जाता है। बिना हौलटीय मानसिकता के कोई विकास सम्भव नहीं है ।
ब्लॉग स्तरीय है। आचार संहिता में बँधे बगैर लिखें यही विनती है। ज्ञान बाँटने से बढ़ेगा।
— प्रवीण पाण्डेय

बिल्लुआटिक मौज, नये शब्द गढने में आपका सानी नहीं।
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बिल्लू का किस्सा और आपका लिखने का अंदाज दोनों गजब !
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अब होली के हौल्टीय मूड में आ गए हैं आप -इसी में पुराने सभी गलत गम कर लीजिये -अभी आप की उम्र ही कितनी हुयी है -अभी से ये निह्स्वास ठीक नही लगते ! तो कुछ हो जाय प्रामिस्कुअस इस होली में ( यह केवल सेक्सुअल कहाँ है ? बल्कि मनमौजी रिश्ते को इंगित करता है ! )
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क्या केने क्या केने, बिल्लूजी के। अच्छा आपने वो भूत वाला इलाका रिविजिट किया कि नहीं, जहां पर्याप्त जनसंख्या थी भूतों की। बहुत दिनों से वहां की रिपोर्ट ना दी आपने, जनसंख्या बढ़ी या नहीं, या क्या सीन है वहां का। भरतलालजी से कालोबेरेशन करके भुतहा रिपोर्ट दीजिये। इधर नेताओं पर इतना पढ़ना सुनना पड़ रहा है कि भूतों की सुनकर कुछ राहत मिलेगी।
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promiscuous यह शब्द पहली बार पढ़ा और जाना। इस के अर्थों में एक अर्थ यह भी कि जो एक यौन साथी से बंधा न रहे। यह शब्द स्त्रियों के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है। प्रोमिसकुअस होने के लिए जरूरी नहीं कि वह बिल्लू की तरह का ही हो। हर तरह से कायदे कानून को मानने वाले भी ऐसे हो सकते हैं। आप का बताया हौलट शब्द इन दिनों तो होली से जुड़ गया है।
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असल में कष्ट यह था कि एक तीस-चालीस रिक्शों की खटाल (यानी निवेश लगभग दो लाख) से बिल्लू इतनी मौज कैसे कर रहा है, और हम दिन रात रेल परिचालन में ऐसी तैसी कराते रहते हैं। बिल्लू का किस्सा मजेदार रहा…..Regards
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ज्ञान भैया,मौका अच्छा है बिल्लुआटिक मौज लेने का,और द बेस्टेस्ट होलीयाटिक फ़ेस्टिव बहाना भी है,बचने के लिये। हा हा हा………………………………………।बुरा न मानो होली है।होली की रंग-बिरंगी बधाई,आपको,आपके परिवार को,अभी से।
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“…पर छोटा मोटा भी प्रशासनिक/पुलीस अधिकारी रहा होता मोहद्दीपुर इलाके का तो शायद एक बार तो बिल्लू की फुटपाथ घेर कर बनाई खटाल उखड़वाता। …”मैं शर्त लगाकर कह सकता हूं कि आप कतई ऐसा नहीं कर सकते थे. सोच भी नहीं सकते थे, क्योंकि बिल्लू आपकी आशा से अधिक आपकी मुट्ठी गर्म करता रहता!
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न जाने कितने BILLU इसी तरह जिन्दगी काट रहे होंगे ?
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बिल्लुआटिक मौज-ऐसी भी क्या मायूसी..लिजिये न!! आप भी दफ्तर की टेबल पर स्टील का गिलास सजा कर बैठ जायें. कई अधिकारी बैठते हैं. मैने देखा है.बाकी तो प्रॉमिस्कुअस और जिन्दगी के बाकी सो-काल्ड मजे- इस पर क्या प्रकाश डालूँ. स्टील के गिलास के माध्यम से आधा रास्ता दिखा दिया बाकी खुद तय हो जायेगा. :)हाँ… प्रवीण जी की टिप्पणी बहुत अच्छी लगी. …आचार संहिता में बँधे बगैर लिखें ??? मुझे लगा कि सरकारी नौकरी में इससे बँधे रहना आवश्यक है..शायद मै गलत होऊँ.
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