यह पोस्ट आगे आने वाले समय में पर्यावरण परिवर्तन, ऊर्जा का प्रति व्यक्ति अंधाधुंध बढ़ता उपभोग और उसके समाधान हेतु श्री सुमन्त मिश्र कात्यायन जी के सुझाये सादा जीवन उच्च विचार के बारें में मेरी विचार हलचल को ले कर है।
“सादा जीवन उच्च विचार” – अगर इसको व्यापक स्तर पर व्यवहारगत बनाना हो तो – केवल वैचारिक अनुशासन का मामला नहीं है। इसका अपना पुख्ता अर्थशास्त्र होना चाहिये। कभी पढ़ा था कि बापू को हरिजन बस्ती में ठहराने का खर्च बहुत था। सादा जीवन जटिलता के जमाने में कठिन है।
कहां गयी जीवन की प्रचुरता
मेरे ही बचपन मेँ हवा शुद्ध थी। गंगा में बहुत पानी था – छोटे-मोटे जहाज चल सकते थे। गांव में खेत बारी तालाब में लोगों के घर अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। बिसलरी की पानी की बोतल नहीं बिकती थी। …
एक आदमी की जिन्दगी में ही देखते देखते इतना परिवर्तन?! प्रचुरता के नियम (Law of abundance) के अनुसार यह पृथ्वी कहीं अधिक लोगों को पालने और समृद्ध करने की क्षमता रखती है।…..
फ्रूगालिटी (frugality – मितव्ययता) अच्छा आदर्श है। पर जब अर्थव्यवस्था ७-९% से बढ़ कर मध्य-आय-वर्ग को बढ़ा रही हो और सब के मन में मीडिया और विज्ञापन अमेरिकन स्तर के जीवन का स्वप्न बो रहे हों; तब मितव्ययी कौन होगा? पैसा हो और खर्च करने को न कहा जाये तो बड़ी आबादी अवसाद का शिकार हो जायेगी। अमरीकन जीवन स्तर का आदर्श कैसे दिमाग से निकाला जाये जवान (और अधेड़ भी) पीढ़ी के मन से! और यह सवाल किसी एक व्यक्ति, राज्य, देश के सादा जीवन जीने का भी नहीं है – जब भारत से इतर चीन और सारा मध्य-पूर्व पैसे की बढ़त से खर्च करने पर आमदा हो तो मामला ग्लोबल हो जाता है।
मध्यवर्ग का बढ़ना और ऊर्जा का प्रयोग बढ़ना शायद समानार्थी हैं। ज्यादा ऊर्जा का प्रयोग और वायुमण्डल को प्रदूषित करने वाली गैसों का उत्सर्जन अभी कारण-परिणाम (cause – effect) नजर आते हैं। यह सम्बन्ध तोड़ना जरूरी है। उस अर्थ में अमेरिकन जीवन शैली की बजाय अन्य जीवन शैली बन सके तो काम चल सकता है।
समतल होते विश्व में जनसंख्या विस्फोट शायद रुक जाये। पर मध्य-आय-वर्ग विस्फोट नहीं रुकने वाला। मध्य-आय-वर्ग को अक्षम/भ्रष्ट/तानाशाही साम्य/समाजवाद की तरफ नहीं लौटाया जा सकता जिसमें सादा जीवन स्टेट डिक्टेटरशिप के जरीये आता है। अब तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग, कम्यून में रहना, अपना उपभोक्ता का स्तर ट्यून डाउन करना आदि अगर मध्यवर्ग के व्यक्ति को आर्थिक रूप से मुफीद बैठता है, तो ही हो पायेगा। कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन (carbon sequesteration) या जंगलों की फाइनेंशियल रिपोर्ट अगर अर्थशास्त्र के अनुसार तत्वयुक्त हुई तो वातावरण सुधरेगा। और अन्तत: ऐसा कुछ होगा ही!
Evan Pickett का टर्टल फ्रॉग का फोटो।धरती पर हमारी दशा उस मेंढ़क सरीखी है जिसे बहुत बड़े तवे पर हल्के हल्के गरम किया जा रहा है। गरम होना इतना धीमा है कि मेढ़क उछल कर तवे से कूद नहीं रहा, सिर्फ इधर उधर सरक रहा है। पर अन्तत: तवा इतना गरम होगा कि मेढ़क तवे से कूदेगा नहीं – मर जायेगा। हममें और मेढ़क में इतना अन्तर है कि मेढ़क सोच नहीं सकता और हम सोच कर आगे की तैयारी कर सकते हैं।
मैं जानता हूं कि मैं यहां भविष्य के लिये समाधान नहीं बता रहा। पर मैं यह स्पष्ट कर रहा हूं कि समाधान आत्म नकार (self denial) या अंधाधुंध अमरीकी मॉडल पर विकास – दोनो नहीं हो सकते।

सादा जीवन तो अपनाना ही होगा। मध्यवर्ग का जीवन वैसे भी सादगी से परिपूर्ण ही है। हाँ, दिखावे के लिए कभी कभी कुछ अतियाँ अवश्य करता है, लेकिन उस का आर्थिक स्तर बहुत अतियों की अनुमति भी नहीं देता। जबरन मनुष्य से कुछ भी नहीं कराया जा सकता। प्रेरणा से सब कुछ कराया जा सकता है। आज भी भारतीय पुरुषों के परिधान में श्वेत रंग की बहुलता है।
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हम मेंढ़्क नहीं है… सोच सकते है.. सही है.. सोचो और करो..
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जीवन चलने का नाम है, चलता रहेगा, हमारी मजबूरी है कि हमको हमारे जीने लायक प्रकृति चाहिए. एवोलुशन (का विज्ञान) बताता है कि प्रकृति हमेशा से बदलती रही है, और बदलेगी ही. अगर कोई निदान है तो वो ये है कि हम इस प्राकृतिक परिवर्तन को धीमे करे. मनुष्य के पास एक दिमाग है, जिसके दम पर वो इस प्रकृति के साथ खेल रहा है,तमाम अलग तरह के नाम से (विज्ञान, तकनीक, विकास, कुछ भी कह ले ). रही बात कार्बन सेक्वेस्तारिंग कि तो अगर कोई प्राकृतिक तरीका है तो ठीक है नहीं तो मनुष्य का दिमाग तो समस्या ही खड़ी करेगा. कुछ विज्ञान के पुराने नियम है (उर्जा हमेशा नियत रहती है ,केवल उसके रूप बदल जाते है) पता नहीं आज कल के तकनीकी लोग जानते है कि नहीं, मुझे लगता है उर्जा के रूप बदलने के चक्र को धीमा करना ही एक उपाय है प्रकृति के परिवर्तन को धीमा करने के लिए. बाकी विद्वानों कि मर्जी. हमारा क्या है आये है चले जायेंगे, ये विशेष किस्म के तकनीक विशेषज्ञ ही है जो सोचते है कि दुनिया में वो कुछ स्थाई बना सकते है.
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हाँ ….. हम सब शायद किसी तकनीकी चमत्कार के ही इन्तजार में ही बैठे हैं……….पक्का इसे जान लीजिये!!
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नीरज रोहिल्ला के बातों से पूरी सहमति के बावजूद कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह जायेंगे-१ -क्या प्रत्येक व्यक्ति स्व-नकार कर सकेगा ?……..तब उसके तथाकथित अमीरी का क्याऔर कैसा प्रदर्शन ?२-क्या entropy मॉडल पर अगर हम यकीन करें तो धरती का गर्म होना हर प्रक्रिया की उपज है ……..फ़िर यह प्रक्रिया केवल धीमी ही की जा सकती है ।३-आज हर व्यक्ति अपने ग्रामीण दिनों की याद करते हुए भी मन बहलाव करते दिखता है ……. कहीं सच में यदि उस परिवेश में पहुँच जाए तो ……..कितनी समस्याएं ??
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सादा जीवन जीना सुनने में जरूर अच्छा लगता है लेकिन व्यवहारिक नहीं है, बदलती उपभोक्तावादी संस्कृति के सामने तो और । हम एक बार को जरूर सोच सकते हैं कि चलो कुछ खर्चे कम कर दिये जायं….यह न लिया जाय…वह न लिया जाय। लेकिन आगे आने वाली हमारी पीढी ? उसे कैसे मनाया जायेगा जोकि अचानक उठे चकाचौंध को समेटने की कोशिश में ही उछल कूद करती है। अपने आप को ही यदि देखूं तो मेरे से ज्यादा मितव्ययी मेरे पिताजी हैं। कुछ न कुछ बचाने की कोशिश करते है जैसे जूते यदि फट जांय तो सिलवा लेंगे लेकिन नये नहीं लेंगे। और एक मैं हू जो जूते में सिलाई किया काम इसलिये पसंद नहीं करता कि ऑफिस में लोग क्या सोचेंगे। उधर मेरे बच्चे औऱ एक कदम आगे :) शायद उन्हें आगे जाकर कई जोडे जूते-चप्पल भी कम पड जांय :) दरअसल ये मानव मन बडा जोडू है…कुछ न कुछ अगली पीढी में जोडता चला जाता है :) उपभोक्तावाद भी उसकी अगली कडी है।
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उच्च जीवन स्तर उच्च विचार भी तो हो सकता है, यदि मितव्ययता का मतलब कंजूसी ना हो।
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पर्यावरण के प्रति जागरुकता, शिक्षा और अंधाधुंध विकास के बजाये संतुलित विकास को परिभाषित करने से ही दुर्गति की गति कम की जा सकती है-ध्यान रहे सिर्फ कम की जा सकती है. बाकी तो परिणाम हम निर्धारित कर ही चुके हैं.
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उम्दा ज्ञान चिंतन -अब ऐसे चिंतन के साथ उच्च जीवन भी चल जाए तो क्या बुरा है !
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ज्ञानदत्तजी,ये बहुत महत्वपूर्ण विषय है। गाँधीजी को हरिजन बस्ती में ठहराने के खर्च के बारे में तो पता नहीं लेकिन गाँधीजी के ही लेखों में कहीं पढा था “Self Imposed Poverty”| भारत में इसके उदाहरण भी मिल जायेंगे, भले ही लोग उनका मजाक बना लें लेकिन उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। अभी विद्यार्थी जीवन है तो ज्यादा पैसे ही नहीं हैं :-)जब कभी घर जाता हूँ तो वो जबरदस्ती कपडे खरीदवा देते हैं जो कभी पहने नहीं जाते। पिछली बार नये कपडे खरीदे थे जब एक खास डिनर पर जाना था और एक भी जोडी ढंग के कपडे न निकले :-) पश्चिम के विकास के माडल की भारत में नकल नहीं हो सकती। उसको अपना माडल खुद विकसित करना होगा। विश्व की आधी आबादी को केवल वातावरण का वास्ता देकर ऊर्जा के उपयोग से रोका नहीं जा सकता जबकि वही आधी आबादी विश्व के लिये मुख्य बाजार भी है। बडी विकट स्थिति है कोई हल नजर नहीं आता, लेकिन लगता है विज्ञान से ही कोई हल निकलेगा। मनुष्यों से स्व-अनुशासन की अपेक्षा करने से हल शायद ही निकले। Carbon sequesteration पर हमारी लैब में भी काफ़ी काम चल रहा है। देखिये अगले आने वाले सालों में कुछ ठोस तकनीक सामने आती है कि नहीं।
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