श्राद्धपक्ष का अन्तिम दिन


Shraddh1 सवेरे का सूरज बहुत साफ और लालिमायुक्त था। एक कालजयी कविता के मानिन्द। किनारे पर श्राद्धपक्ष के अन्तिम दिन की गहमा गहमी। एक व्यक्ति नंगे बदन जमीन पर; सामने एक पत्तल पर ढेर से आटे के पिण्ड, कुशा और अन्य सामग्री ले कर बैठा; पिण्डदान कर रहा था पण्डाजी के निर्देशन में। थोड़ी दूर नाई एक आदमी का मुण्डन कर रहा था।

पण्डाजी के आसपास भी बहुत से लोग थे। सब किसी न किसी प्रकार श्राद्धपक्ष की अनिवार्यतायें पूरा करने को आतुर। सब के ऊपर हिन्दू धर्म का दबाव था। मैं यह अनुमान लगाने का यत्न कर रहा था कि इनमें से कितने, अगर समाज के रीति-रिवाजों को न पालन करने की छूट पाते तो भी, यह कर्मकाण्ड करते। मुझे लगा कि अधिकांशत: करते। यह सब इस जगह के व्यक्ति की प्रवृत्ति में है।

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बन्दर पांड़े वापस आ गये हैं। मुझे बताया गया कि मेरे बाबाजी के श्राद्ध की पूड़ी उन्हें भी दी गयी। लोग उन्हें भगाने में लगे हैं और भरतलाल पूड़ी खिला रहा है।

इस पूरे परिदृष्य में जब मैं अपने आपको बाहरी समझता था – और वह समय ज्यादा पुराना नहीं है – तब मैं शायद यह सब देख सटायर लिखता। बहुत कुछ वैसे ही खिल्ली उड़ाता जैसे ट्विटर पर श्री थरूर [१] जी इकॉनमी क्लास को कैटल क्लास कहते हैं। पर जैसे जैसे यह आम जन से आइडेण्टीफिकेशन बढ़ता जा रहा है, वैसे वैसे शब्द-सम्बोधन-साइकॉलॉजी बदलते जा रहे हैं। मुझे यह भी स्वीकारने में कष्ट नहीं है कि ब्लॉग पर लिखने और इसमें लोगों से इण्टरेक्शन से नजरिये में बहुत फर्क आया है। इसी को पर्सोना बदलना कहता हूं। अब मैं शिवकुटी के पण्डा को पण्डाजी कहता हूं – सहज। और यह गणना करने के बाद कि उनका उनके कार्य के बल पर आर्थिक पक्ष मुझसे कमतर नहीं होगा, एक अन्य प्रकार की ट्यूबलाइट भी जलती है दिमाग में।

श्राद्धपक्ष के अन्तिम दिन और नवरात्र के प्रथम दिन बहुत गहन अनुभव हो रहे हैं – बाहरी भी और आन्तरिक भी। मातृ शक्ति को नमस्कार।     


[१] मैने कहा – श्री थरूर। असल में उनके मन्त्री होने को ध्यान में रख कर मुझे शब्द प्रयोग करने चाहिये थें – सर थरूर। ब्यूरोकेट मन्त्रीजी को सदैव सर कहता है। पिछले चुनाव में अपने समधीजी को मैने कहा था कि चुनाव जीतने के बाद अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वे मन्त्री बनेंगे और तब मैं उन्हे “प्रणाम पाण्डेजी” की जगह “गुड मॉर्निंग सर” कहूंगा। वे तो चुनाव जीत गये मजे से, पर पार्टी लटक गई! :-( 


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

20 thoughts on “श्राद्धपक्ष का अन्तिम दिन

  1. आमजन से आइडेण्टीफिकेशन बढ़ना उनके बारे में सोचने से आता है । गंगा के बारे में लिखते लिखते चिंतन प्रक्रिया भी गंगा जैसी सर्वसमाहिता हो गयी है । बहुत ही अच्छी और बेबाक स्वीकरोक्ति है । थरूर जी की कैटल क्लास मानसिकता को नमन । इस माध्यम से कम से कम कैटलों की पीड़ा थरूर जी की वाणी से निकली तो ।

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  2. "उनके कार्य के बल पर आर्थिक पक्ष मुझसे कमतर नहीं होगा,…"जब मैंने देखा कि पण्डाजी मारुती में आ रहे है और हम पूर्वजों के नाम पर सीधा देने स्कूटर पर जा रहे हैं, तब से उनके आर्थिक पक्ष को देखकर दान-दक्षिणा का यह क्रम छोड़ दिया॥

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  3. हमारे यहाँ की परंपरा कुछ अलग है. श्राद्ध उसी तिथि पर की जाती है. (मृत्यु के) न की एक साथ सभी के लिए. यह तो शोर्ट कट हुआ

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  4. यहां आकर यूं लगता है मानो हम भी गंगा-तट की सैर पर निकलते हैं रोज़/अकसर । ममता जी आपकी पोस्‍टों को पढ़ती नहीं लेकिन हमने तय किया है कि उन्‍हें अपनी 'बालक वाली व्‍यस्‍तताओं' से बाहर निकालकर 'गंगा' वाली सारी पोस्‍टें पढ़ा ही डालें । जबर्दस्‍ती । 'नॉस्‍टेलजिया' होगा जो फिर 'चिंतन' में बदल जायेगा । आपके ज़रिए हमारी आत्‍मोन्‍नति हो रही है जी ।

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  5. एक्स् पोस्ट् मे सब का श्राद्ध कर डाला बहुत खूब आभार नवरात्र पर्व की शुभकामनायें

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  6. किसी कृत्य को करने के लिए रीति-रिवाजों के पालन की अपेक्षा अपने भीतर की श्रद्धा अधिक प्रेरित करती है।

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  7. न पिंडदान किये न किसी का कराये ही फिर कैसे दिमाग में ट्यूब जला ?

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