सिविल सेवा परीक्षा


इस वर्ष की सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम 100 चयनित अभ्यर्थियों में केवल एक के विषय गणित और भौतिकी हैं। मुझे यह तब पता लगा जब मैंने एक परिचित अभ्यर्थी से उसके विषयों के बारे में पूछा। आश्चर्य की बात यह थी कि वह एक इन्जीनियर हैं और विज्ञान के विषय न लेकर बिल्कुल ही नये विषय लेकर तैयारी कर रहे हैं।

praveen
यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है।

यह बहस का विषय है कि इन्जीनियरों को सिविस सेवा में आना चाहिये कि नहीं लेकिन पिछले 10 वर्षों में विज्ञान विषयों को इतना कठिन बना दिया गया है कि इन विषयों को लेकर सिविल सेवा में चयनित होना लगभग असम्भव सा हो गया है।

सिविल सेवा परीक्षा ने देश के लाखों युवाओं को सार्थक अध्ययन में लगा कर रखा हुआ है। चयनित होना तो सच में भाग्य की बात है पर एक बार सिविल सेवा की तैयारी भर कर लेने से ही छात्र का बौद्धिक स्तर बहुत बढ़ जाता है। साथ ही साथ कई वर्ष व्यस्त रहने से पूरी कि पूरी योग्य पीढ़ी वैचारिक भटकाव से बच जाती है।

सिविल सेवा की परीक्षा कठिन है और पूरा समर्पण चाहती है। अभी कुछ अभ्यर्थियों के बारे में जाना तो पता लगा कि वो माता पिता बनने के बाद इस परीक्षा में चयनित हुये हैं। यदि आप किसी अन्य नौकरी में हैं या विवाहित हैं या माता-पिता हैं तो सिविल सेवा की तैयारी में कठिनता का स्तर बढ़ता जाता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि तैयारी तब जोरदार होती है जब आप इनमें से कुछ भी न हों।


ज्ञानदत्त पाण्डेय का कथ्य

प्रवीण शैक्षणिक रूप से इन्जीनियर और पेशे से सिविल सर्वेण्ट हैं। मेरा मामला भी वैसा ही है। पर बतौर इंजीनियर अध्ययन में जो बौद्धिक स्तर बनता है, उसमे सिविल सेवा की तैयारी बहुत कुछ सप्लीमेण्ट करती है – ऐसा मेरा विचार नहीं है। उल्टे मेरा मानना है कि बतौर इंजीनियर जो विश्लेषण करने की क्षमता विकसित होती है, वह सिविल सर्वेण्ट को कार्य करने में बहुत सहायक होती है।   

हां, अगर आप विज्ञान/इंजीनियरिंग से इतर विषय लेते हैं तब मामला व्यक्तित्व में एक नया आयाम जोड़ने का हो जाता है!

और यह तो है ही कि जैसे लेखन मात्र साहित्यकारों का क्षेत्राधिकार नहीं है वैसे ही सिविल सेवा पर केवल ह्यूमैनिटीज/साइंस वालों का वर्चस्व नहीं! और ऐसा भी नहीं है कि एक सिविल सर्वेण्ट बनने में एक डाक्टर या इंजीनियर अपनी कीमती पढ़ाई और राष्ट्र के रिसोर्स बर्बाद करता है।

लम्बे समय से मुझे लगता रहा है कि हिन्दी में बेकर-पोस्नर ब्लॉग की तर्ज पर ब्लॉग होना चाहिये, जहां दो व्यक्ति अपने विचार रखें और वे जरूरी नहीं कि एक रूप हों!। यह फुट-नोट लिखते समय वही अनुभूति पुन: हो रही है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

24 thoughts on “सिविल सेवा परीक्षा

  1. "यदि आप किसी अन्य नौकरी में हैं या विवाहित हैं या माता-पिता हैं तो सिविल सेवा की तैयारी में कठिनता का स्तर बढ़ता जाता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि तैयारी तब जोरदार होती है जब आप इनमें से कुछ भी न हों।"लेकिन दुनिया के सबसे बड़े प्रबंधकों को नियोक्ता तब काबिल मानते हैं जब वे किसी नौकरी और पारिवारिक जीवन के साथ तैयारी करके चयनित होते हैं."एक बार सिविल सेवा की तैयारी भर कर लेने से ही छात्र का बौद्धिक स्तर बहुत बढ़ जाता है। साथ ही साथ कई वर्ष व्यस्त रहने से पूरी कि पूरी योग्य पीढ़ी वैचारिक भटकाव से बच जाती है।"और उसके बाद का भटकाव? जब वे एक हायर सैकंडरी पास हिस्ट्रीशीटर के सामने हाथ बांधे खड़े रहते हैं और जुगाड़ बिठाते हैं की उन्हें ट्रबल्ड एरिया या कम कमाई वाली जगह में न फेंक दिया जाय.ये प्रतियोगी परीक्षाएं निस्संदेह कठिन हैं लेकिन फैक्ट पर जोर देने के कारण. गुप्त काल का फलाना सिक्का कितने ग्राम का होता था इस जानकारी का कोई सिविल सर्वेंट क्या अचार डालेगा?दुनिया के किसी देश में सिविल सर्वेंट की नियुक्ति इस प्रकार नहीं होती. भारत में लोग इसे बदलना नहीं चाहते क्योंकि यह उन्हें यकायक सबके सर पर बिठा देता है. एक पच्चीस साल के अफसर के पास IAS-IPS का तमगा होने से वह पचपन साल के अधिकारी से ज्यादा काबिल नहीं हो जाता.

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  2. आदरणीय ज्ञानदत्त जी,मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि सिविल सेवा में जाकर कोई इंजिनियर या डॉक्टर राष्ट्र के संसाधन और समय को बर्बाद नही करता है बल्कि अपनी विश्लेषणात्म्क क्षमता क उपयोग कर ज्यादा बेहतर और उन्नत तरीके से कार्य कर सकता है।सादर,मुकेश कुमार तिवारी

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  3. हम क्या चर्चा में भाग लें । हमने तो कभी आई ए एस का फार्म तक नहीं खरीदा डर के मारे कि कहीं सालों ने सेलेक्ट कर लिया तो गधों की नस्ल बचाने की जिम्मेदारी हम पर आ जाती ।

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  4. आप दोनों के ही विचारों से सहमति है….बल्कि यदि यह कहा जाय कि दोनों बात मिलकर बात पूरी होती है तो अधिक सटीक होगा…

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  5. भाई बेचलर डिग्री के बाद चार वर्षीय सिविल सेवा परीक्षा की पढाई का ही बंदोबस्त सरकार क्यों नहीं कर देती. पाठ्यक्रम आवश्यकतानुरूप तय कर दिए जायें और यह परीक्षा पास करने के बाद ही कोई भी व्यक्ति सिविल सेवा परीक्षा में बैठ सके, या लोक प्रतिनिधि के रूप में चुनावों में खडा हो सके, कंपनियों में एच.आर. या मनाग्मेंट में शामिल हो सके, ताकि परीक्षा में समानता, कोर्स में समानता, कही किसी को असंतोष का बोध तो न हो., जैसे चार साल सेल्फ स्टडी में गंवाते हैं, फिर भी यदि असफल रहे तो कैरियर ही चौपट दिखाई देता है, फिर तो ये नहीं तो वो सही, कैरियर तो सामने रहेगा, पढाई निरर्थक तो न जायेगी.चन्द्र मोहन गुप्त.जयपुरwww.cmgupta.blogspot,com

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  6. 15-20 बरस पहले तक भौतिकी व गणित deadly combination कहलाता था. हालत ये थी कि लगभग आधे लोग इसी तरह के विषयों से उत्तीर्ण होते थे. उस पर तुर्रा ये कि साक्षात्कार में 250 में से 100-50 नंबर पाने वाले भी ठस्से से बढ़िया ग्रुप-ए में सिलेक्ट हो जाया करते थे वहीं दूसरी ओर अन्य विषयों वाले 200-200 नंबर लेकर भी ग्रुप-बी में झूलते मिलते थे.गणित वाला 100 में से 100 पा सकता था पर हिंदी के पर्चे में अगर प्रेमचंद अपनी ही कहानियों या उपन्यासों पर परीक्षार्थी बन उत्तर देते तो पट्ठा एग्ज़ामिनर 100 में 60-65 से गर एक नंबर भी ज्यादा दे देता तो बात थी. कुछ विषयों में लोग 25-50 सवाल घोट डालते थे, उनमें से 5 फंस गए तो बल्ले-बल्ले.. दूसरी तरफ ह्यूमेनिटीज़ वाले डी.लिट लेवल की भी तैयारी कर मारते तो भी कम पड़ता था.कुछ-कुछ ऐसे महानुभाव भी थे जो पंजाबी और अरबी-फारसी जैसे भाषाई विषय लेकर 'अल्पसंख्यक' फ़ैक्टर के चलते 300 में से 275 तक पा जाते थे.इन्ही सब के चलते माडरेशन के बारे में अक्सर चर्चा होती थी पर इसका कोई खास मतलब नहीं होता था. अंतत: साक्षात्कार के 50 नंबर बढ़ाने और निबंध पर एक नया पर्चा शुरू करने के निर्णय इसी कारण किये गए थे.आज ये जानकर अच्छा लगा कि अब सिविल-सेवा में इस तरह का वर्चस्व समाप्त हो गया है और सभी एक ही धरातल पर साथ-साथ हैं…मैं नि:संदेह इंजीनियरिंग इत्यादी के विरूद्ध नहीं हूं :-) *******@डॉ .अनुराग जो भी सिविल-सेवा परीक्षा पास करके नियुक्त होते हैं उन्हें अपने-अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ बना दिया जाता हैं, चाहे वह प्रशासन हो या तकनीकि महारत या दोनों का सम्मिश्रण. दो साल का प्रोबेशन पूरा होते-होते उन्हें घोड़ा बना दिया जाता है (अपवाद स्वरूप कुछेक गधे भी रह जाते हैं, पर वह शायद नस्ल बचाए रखने की क़वायद रहती होगी):-)

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  7. मेरा मानना है सिविल सर्विसिस में उन लोगो को आना चाहिए जिनमे प्रबंधन कुशलता के नासर्गिक गुण छिपे है ओर जो एक संवेदनशील ओर देश के लिए अन्दर से भला सोचने वाले लोग हो….चाहे वे किसी भी ब्रांच के क्यों न हो…..कई बार आपकी पिछली पढाई काम आ जाती है परिस्थितियों को संभालने में …ओर की बात …जैसे कोई इन्जिय्नर अपने शेत्र का जानकार होता है … साहित्यकार भी उन बातो को शब्द देता है ओर नजरिया भी .. जिन्हें आम इन्सान शायद उतनी सुघड़ता ओर अछे तरीके से पेश नहीं कर पाता …ये भी एक नैसर्गिक गुण है ..जो किसी कलाकार को कलाकार बनता है …जैसे किसी को गाना अच्छा आता है ..पर हर कोई गा नहीं सकता

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  8. @लेखन मात्र साहित्यकारों का क्षेत्राधिकार नहीं है।सब कुछ कहते हुए बीच में हौले से, इतने हौले से कि पता ही न चले, आप अपनी मान्यता का ट्रे सरका देते हैं – पाठक के दिमाग की रैक में। ..चचा ये ठीक नहीं।साहित्यकार कोई हमसे आप से अलग स्पीसीज थोड़े होते हैं।

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  9. प्रवीण शैक्षणिक रूप से इन्जीनियर और पेशे से सिविल सर्वेण्ट हैं।यही प्रमाणित करता है कि वैज्ञानिक से सिविल सर्वेन्ट बनना कितना सरल है:)

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