आज ब्लॉगरी के सेमीनार से लौटा तो पत्नीजी गंगा किनारे ले गयीं छठ का मनाया जाना देखने। और क्या मनमोहक दृष्य थे, यद्यपि पूजा समाप्त हो गयी थी और लोग लौटने लगे थे।
चित्र देखिये:
तट का विहंगम दृष्य:

घाट पर कीर्तन करती स्त्रियां:
घाट पर पूजा:
सूप में पूजा सामग्री:
लौटते लोग:
Published by Gyan Dutt Pandey
Exploring rural India with a curious lens and a calm heart.
Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges.
Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh.
Writing at - gyandutt.com
— reflections from a life “Beyond Seventy”.
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गंगा जी के घाट पर भई संतन की भीड़और अब छठ पूजा भी…तस्वीरें लाजवाब हैं ज्ञान भाई साहब – लावण्या
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पर, ये तो बहत गलत बात है. हमारे इलाहाबाद में होते हुए भी आपने अकेले छठ देख ली. हमें भी दिखा देते तो थोड़ा पुण्य आपको और मिल जाता. हमें भी खयाल नहीं था नहीं तो सप्रयास देख ही लेते. चलिए, चित्रों से ही देख लेते हैं.एक आग्रह है कि बाजू में ब्लॉग आर्काइव को सूचीबद्ध कर दें (जैसा कि रचनाकार में है) – इससे पुराने पोस्टों में नेविगेशन बेहद आसान हो जाता है.
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गंगा किनारे की छठ भी देख ली ..उम्मीद है सुबह के अर्ध्य की तस्वीरें भी उपलब्ध होंगी …!!
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ये रिपोर्टिंग अच्छी है. हर जगह तो ब्लॉगरी सेमिनार की ही रिपोर्टिंग चल रही है !
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अच्छा लगा घर बैठे ही छठदर्शन हेतु आभार.
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gyaan ji, kabhi kabhi mann ko lagta ki humare reeti rivaz, paramparayen sab prakriti ke against kyun hain?? Ganga ji mein bahte diye bahut achhe lagte hain lekin agar wo dissolvable nahi hue to ganga ji ko ganda karenge… Hum Holi mein wo kaanch mila hua rang lagate hain, diwali mein aaatishbajiyon se oxygen ko pollute kar dete hain….kya hum sahi kar rahe hain ya yahan bhi humein badlaav ki jaroort hai? Lekin samsya bhi yahi hai ki kya hum is naye jamane mein bhi apne reeti rivajon ko badalne ka sonch sakte hain??
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बहुत लम्बे अरसे बाद शाम को एक पोस्ट का आना सुखद है.लिछ्ले कुछ समय से छठ इतना प्रचारित हो गया है… इसे पुरबिया की अस्मिता से जोड़ के देखने लगे हैं बहुतेरे. बहुतों के लिए ये बचकाना है. हमारे एम् पी में तो यह बहुत कम होता है इसलिए इसे देखना बहुत भाता है. आखिर हमारी लोकसंस्कृति की ऐसी कितनी चीज़ें अपने शुद्ध रूप में बची रह गयी हैं?दोपहर में बिहार के छठ मेले देख रहे थे टी वी में, हर तरफ फूहड़ बाजारू भोजपुरी गाने बजते सुनकर मन खट्टा हो गया. लोग एक दिन के लिए भी अपसंस्कृति नहीं छोड़ सकते.
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लगता है कि इलाहाबाद ब्लाग सम्मेलन का फ़ोटो सेशन कन्टिन्यू हो रहा है:)
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जी आज मैं भी मार्केट गयी तो देखा कुछ लोग सड़क पर पूरे रस्ते लेट लेट कर सूर्य को नमस्कार करते आगे बढ़ रहे थे मेरे लिए ये अद्भुत नजर था …इतनी कठोर तपस्या …..?
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@ नदियों में फैली गंदगी उन जगहों पर, उन मंदिरों में जहां बडे पैमाने पर फूल मालाएं रोजाना जमा होती हैं, वहां मैंने देखा है कि उन फूल मालाओं से खाद बना कर बेची जाती है। मुंबई का सिद्धिविनायक मंदिर यह काम बखूबी और प्रशंसात्मक ढंग से और अच्छे से करता है। गांवों में तो लोग फूल मालाओं का कम ही इस्तेमाल करते हैं। यदि करते भी हैं तो उन सूखे फूलों को कही खेत आदि में ही फेंक देते हैं। यहां शहरों में बात थोडी अलग है। हर कालोनी में अक्सर डेली बेसिस पर फूल मालाएं देने के लिये माली नियुक्त है जो रोज फूल दे जाता है। मैं सोचता हूँ कि शहरों में घर-दुकान में कई जगह अक्सर फूल मालायें चढती ही हैं। महीने में एक थैली भर कर सूखी मालाएं जमा हो जाती हैं। लोग मौका निकाल कर महीने में एक दिन उसे तालाब या पानी वगैरह में फेंक आते हैं। इस भावना से कि भगवान को चढे फूल हैं इसलिये कहीं नाले वगैरह में नहीं फेंकना चाहिए। अब यहां एक Opportunity develop हो रही है। ऐसे में अगर कोई नया व्यवसाय अपनाए की वह केवल फूल मालाएं ही हफ्ते में हर घर से कलेक्ट करेगा और उसे लेजाकर बडी मात्रा में एक जगह इकट्ठा कर खाद आदि बनाएगा तो कैसा रहेगा ? हर घर से यदि वह हफ्तेवार पांच रूपया भी लेता है तो महीने के बीस रूपये एक घर से बनते हैं। एक कॉलोनी से हजार रूपये महीने के तो कहीं नहीं गए। खाद बनेगी सो अलग प्रॉफिट। कलेक्शन ब्वॉय के रूप में लोगों को रोजगार मिलेगा सो अलग। ओहो…लिजिए मैं भी उंचे उंचे सपने देखने लगा हूँ ….लगता है मुंगेरी लाल कहीं आस पास ही हैं शायद :)
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