सोंइस होने की गवाही

Dolphin_22 निषादघाट पर वे चार बैठे थे। मैने पहचाना कि उनमें से आखिरी छोर पर अवधेश हैं। अवधेश से पूछा – डाल्फिन देखी है? सोंइस

उत्तर मिला – नाहीं, आज नाहीं देखानि (नहीं आज नहीं दिखी)।

लेकिन दिखती है?

हां कालि रही (हां, कल थी)।

Gavaahaयह मेरे लिये सनसनी की बात थी। कन्फर्म करने के लिये पूछा – सोंइस?

हां, जौन पानी से उछरथ (हां, वही जो पानी से उछलती है)।

कितनी दिखी?

बहुत कम दिखाथिं। एक्के रही (बहुत कम दिखती हैं, एक ही थी)।

साथ वाले स्वीकार में मुण्डी हिला रहे थे। एक की बोली हुई और तीन की मौन गवाही कि सोंइस है, यहां गंगा में, शिवकुटी, प्रयागराज में। मुझे बहुत खुशी हुई। कभी मैं भी देख पाऊंगा। बचपन में देखी थी।

snakesमुझे प्रसन्नता इसलिये है कि सोंइस होने से यह प्रमाण मिलता है कि ईको-सिस्टम अभी बरबाद नहीं हुआ है। गंगामाई की जीवविविधता अभी भी बरकरार है – आदमी के सभी कुयत्नों के बावजूद! सोंइस स्तनपायी है और श्वांस लेने के लिये रेगुलर इण्टरवल पर पानी के ऊपर आती है। कभी कभी शाम के अन्धेरे में जब सब कुछ शांत होता है तो दूर छपाक – छपाक की ध्वनि आती है गंगा तट पर – शायद वह गांगेय डॉल्फिन ही हो!

मुझे तीन-चार पानी के सांपों का परिवार भी किनारे तैरते दिखा। मेरा कैमरा उन्हे ठीक से कवर नहीं कर पाया। पर सवेरे सवेरे वह देखना मुझे प्रसन्न कर गया।

और यह गार्जियन का लिंक मुझे शाम के समय पता चला जो बताता है कि चीन की यांग्त्सी नदी में डॉल्फिन सन २००२ के बाद नहीं दिखी। अब यह माना जा सकता है कि मछली पकड़ने, बांध/डैम बनने और नदी में गाद भरने के फल स्वरूप यह विलुप्त हो गयी। पानी के मटमैला होने से यह लगभग अंधी पहले ही हो गयी थी। गंगा में डॉल्फिन बची है, यह प्रसन्नता की बात है न?

आप पता नहीं पहले पैराग्राफ के मेरी पोस्ट के लिंक पर जाते हैं या नहीं, मैं अपनी पुरानी पोस्ट नीचे प्रस्तुत कर देता हूं।


सोंइस

(नवम्बर 13′ 2008)

Map picture

कल पहाड़ों के बारे में पढ़ा तो बरबस मुझे अपने बचपन की गंगा जी याद आ गयीं। कनिगड़ा के घाट (मेरे गांव के नजदीक का घाट) पर गंगाजी में बहुत पानी होता था और उसमें काले – भूरे रंग की सोंइस छप्प – छप्प करती थीं। लोगों के पास नहीं आती थीं। पर होती बहुत थीं। हम बच्चों के लिये बड़ा कौतूहल हुआ करती थीं।

मुझे अब भी याद है कि चार साल का रहा होऊंगा – जब मुझे तेज बुखार आया था; और उस समय दिमाग में ढेरों सोंइस तैर रही थीं। बहुत छुटपन की कोई कोई याद बहुत स्पष्ट होती है।

Photobucketसोंइस/डॉल्फिन

अब गंगा में पानी ही नहीं बचा।

पता चला है कि बंगलादेश में मेघना, पद्मा, जमुना, कर्नफूली और संगू  (गंगा की डिस्ट्रीब्यूटरी) नदियों में ये अब भी हैं, यद्यपि समाप्तप्राय हैं। हजार डेढ़ हजार बची होंगी। बंगला में इन्हें शिशुक कहा जाता है। वहां इनका शिकार इनके अन्दर की चर्बी के तेल के लिये किया जाता है।

मीठे पानी की ये सोंइस (डॉल्फिन) प्रयाग के परिवेश से तो शायद गंगा के पानी घट जाने से समाप्त हो गयीं। मुझे नहीं लगता कि यहां इनका शिकार किया जाता रहा होगा। गंगा के पानी की स्वच्छता कम होने से भी शायद फर्क पड़ा हो। मैने अपने जान पहचान वालों से पूछा तो सबको अपने बचपन में देखी सोंइस ही याद है। मेरी पत्नी जी को तो वह भी याद नहीं।

सोंइस, तुम नहीं रही मेरे परिवेश में। पर तुम मेरी स्मृति में रहोगी।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

32 thoughts on “सोंइस होने की गवाही

  1. एम टी एन एल के जी एस एम मोबाइल के लिए जब ब्रांड नाम ‘डालफिन” प्रस्ताव किया था तब बहुत अध्यनन किया था इस के बारे में. बाद में यह स्वीकृत हुआ और दिल्ली और मुंबई में इसी नाम से चल रहा है. इसकी संचार क्षमता अदभुद है. और डोल्फिन को आपस में बहुत प्यार होता है… इस लिए हमने अपने ब्रांड डोल्फिन का पंच लाइन रखा था “दि फ्रेंडलियेस्ट वन ” … आपकी पोस्ट मन को छू गई..

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  2. मैंने देखा तो नहीं, लेकिन बुजुर्गों से सुना है कि पहले राप्ती में भी खूब दिखते थे सूंस. वही जिसे आप सोंइस कह रहे हैं. माता जी नाक (मगरमच्छ), घरियार (घड़ियाल) और सूंस (डॉल्फिन) में अंतर भी बताती हैं और उन लोगों को कोसती भी हैं जो इनका शिकार करते थे. पानी का एक कोई ऐसा ही जानवर गोहटा भी होता है. लेकिन धरती पर दो पैर से चलने वाले कुछ मगरमच्छों ने इन सबकी जीवनलीला और इसके साथ ही राप्ती की जैव विविधता भी समाप्त कर दी.

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