अरहर की दाल और नीलगाय

मुझे पता चला कि उत्तरप्रदेश सरकार ने केन्द्र से नीलगाय को निर्बाध रूप से शिकार कर समाप्त करने की छूट देने के लिये अनुरोध किया है। यह खबर अपने आप में बहुत पकी नहीं है पर मुझे यह जरूर लगता है कि सरकार दलहन की फसल की कमी के लिये नीलगाय को सूली पर टांगने जरूर जा रही है। इसमें तथाकथित अहिन्दूवादी सरकार का मामला नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार, जो हिन्दूवादी दल की है और जो गाय के नाम पर प्रचण्ड राजनीति कर सकती है, नीलगाय को मारने के लिये पहले ही तैयार है! बेचारी नीलगाय; उसका कोई पक्षधर नहीं!

Blue bull नीलगाय, बिजनेस एण्ड इकॉनमी (1 Oct’2009) का एक पन्ना

मेरी मां अरहर की दाल के दाम में आग लगी होने की बहुधा बात कहती हैं खाने की मेज पर। पर अगर मैं उन्हे कहूं कि उत्तरप्रदेश में दलहन की पैदावार कम होने के पीछे नीलगाय को जिम्मेदार माना जा रहा है और उसे अंधाधुन्ध मारा जायेगा, तो पता नहीं कि वे अरहर के पक्ष में जायेंगी या नीलगाय के! मैं पोस्ट अपनी अम्माजी से चर्चा कर नहीं लिखता। इसलिये पता नहीं किया कि उनका विचार क्या है। पर पता करूंगा जरूर। और सभी घरों में ९० रुपये किलो अरहर की दाल से त्रस्त धर्मभीरु अम्मायें जरूर होंगी। क्या कहती हैं वे? [1]

मेरा अपना सोचना (किसी धर्मांधता के प्रेरण से नहीं) तो यह है कि नीलगाय को नहीं मारा जाना चाहिये। यही कथन जंगली सूअर के बारे में भी होगा। प्रकृति की फूड चेन (अर्थात 10/100/1000 हर्बीवोरस/शाकाहारी के ऊपर एक कार्नीवोरस/मांसाहारी पशु) से छेड़छाड़ में पहले कार्नीवोरस की संख्या ध्वस्त कर आदमी ने अपने लिये जगह बढ़ाई। अब हर्बीवोरस को समाप्त कर अपने लिये और अधिक जगह बनाना चाहता है। अंतत इस तरीके से आदमी भी न बचेगा! अगर वह समझता है कि वही सबसे निर्मम है तो प्रकृति उससे कहीं ज्यादा निर्मम हो सकती है। और यह समझने के लिये हिन्दू या जैन धर्मग्रंथों का उद्धरण नहीं चाहिये।

प्रकृति अपनी निर्ममतामें यह छूट नहीं देगी कि आप कितना बड़ा तिलक लगाते हैं, पांच बार नमाज पढ़ते हैं या नियमित चर्च जाते हैं। वह यह भी नहीं मानेगी कि आप दलित हैं तो आपको जीने की स्पेशल छूट मिलनी चाहिये।

नीलगाय के नाम के साथ "गाय" शब्द शायद औरंगजेब ने लगाया जिससे कि इस जानवर का अंधाधुन्ध शिकार न हो। नीलगाय की प्रजाति विलुप्त होने के खतरे की जोन में फिलहाल नहीं है। पर कई प्रजातियां जो बहुतायत में थीं आज या तो समाप्त (extinct) हो गई हैं या विलुप्त होने के खतरे की जोन (endangered species) में हैं अंधाधुन्ध शिकार होने के कारण।

मुझे नीलगाय की हत्या की कीमत पर अपनी अरहर की दाल बचानी चाहिये?

मेरी नीलगाय विषयक पोस्टें –

शहर में रहती है नीलगाय

नीलगाय अभी भी है शहर में


हंस के अक्तूबर अंक में नीलगाय के बहाने धर्म पर ढेला तानता लेखन –

सवाल है कि नीलगाय (या बन्दर) इतने अपराजेय हैं। जी हां, सच्चाई कुछ ऐसी ही है।

हमारी मिथकीय आस्था ने हममें इतना अन्धविश्वास भरा है कि हम बन्दरों को हनुमान और नीलगायों को गायों का प्रतिरूप मानने लगे हैं, जबकि नीलगाय और गाय में, सिवाय स्तनपायी होने के, काफी अन्तर हैं। गाय गाय है और नीलगाय नीलगाय – न नील न गाय। फिर गाय हो या नीलगाय, किसी को भी हम फसलों को चरने की छूट कैसे दे सकते हैं? ऐसे धर्मभीरु हिन्दीपट्टी वालों का भला क्या भला हो सकता है?


[1] – मेरी अम्माजी ने तो मुद्दा डक कर दिया। उनका कहना है कि नीलगाय नहीं मारी जानी चाहिये। “हमारे गांव में नीलगाय आती ही नहीं। वह तो निचले कछार के इलाके में आती है”। पर वे इस बात पर भी सहमत होती नहीं दिखीं कि मंहगी दाल खा लेंगी, अगर नीलगाय पर संकट आता है तो! उनके अनुसार इस बार खेत में अरहर बोई गई है। अगर ओले से फसल खराब न हुई तो काम भर की अरहर मिल ही जायेगी!


निशाचर जी की टिप्पणियों का कम्पैण्डियम:

१. अधिकांश ब्लॉगर शहरी क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते हैं इसलिए शायद नहीं जानते होंगे कि नीलगाय और जंगली सूअर पूर्वी उत्तर प्रदेश और लगे हुए बिहार के भागों में आतंक का पर्याय बने हुए हैं. नेपाल के तराई क्षेत्रों में मानव बसावट के बढ़ने और जंगलों के समाप्त होने से इन्होने आगे बढ़कर मैदानी क्षेत्रों में अपना बसेरा बना लिया है. संरक्षित प्रजाति होने से इन्हें मारना जुर्म है और इस जुर्म से बचने के लिए किसानों ने बहुत सी फसलों को बोना ही छोड़ दिया है. अरहर उनमें से एक है.

इसी फ़रवरी में तकरीबन पंद्रह सालों बाद मैं अपने गाँव जा पाया. लेकिन वहां पहुँच कर जो हैरानी और निराशा हुई उसे बयां करना मुश्किल है. आमतौर से इस (फ़रवरी) महीने में खेतों में चारो तरफ सरसों और अरहर के पीले फूलों की बहार रहा करती थी. साथ ही आलू, मटर और तमाम अन्य सब्जियों से खेत हरे- भरे रहा करते थे. लेकिन अब गेंहूं, कुछ मात्रा में सरसों तथा गन्ना और तमाम अन्य खेतों में बहुत सी अनजानी फसलों को देखकर बड़ी हैरानी हुई. पूछने पर पता चला कि अरहर, सरसों, मटर, आलू, सब्जियां नीलगायों और सूअरों कि भेंट चढ़ चुकी हैं और किसानो ने इन्हें बोना बंद कर दिया है क्योंकि इसको बोने से बीज, सिंचाई, खाद और श्रम सब कुछ व्यर्थ ही जाता है. रात में नीलगाय और सूअरों के झुण्ड आकर सबकुछ बर्बाद कर देते हैं. इनको भगाने के प्रयास में कई लोग जख्मी हो चुके हैं और कुछ अपनी जान भी गवां बैठे हैं. कुछ किसानों से अपनी फसल बर्बाद होते देखा न गया तो उन्होंने अपनी बंदूकों का प्रयोग किया. सुबह पुलिस ने उन्हें पकड़कर वन्य जीव संसक्षण अधिनियम में चालान कर दिया और वे जेलों में बंद अपने फैसले का इन्तजार कर रहे हैं. ऐसे में किसके पास इतना पैसा है कि वह अपनी पूँजी और श्रम लुटाने के बाद कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाता फिरे.

किसानो की दूसरी नगदी फसल गन्ने का हश्र क्या है आप सभी रोज टी0 वी0 पर देख ही रहे हैं. फसल तुलवा देने के बाद भी सही कीमत और समय पर ना मिले तो किसान उसे बोने का हौसला कैसे करे? सरकार में बैठे मंत्रियों, अधिकारियों को तो कच्ची चीनी के आयात में कमीशन खाना है और किसानों को चीनी के उत्त्पादन चक्र से बाहर कर मिल मालिकों को मनमाना दाम वसूलने की छूट देना है. सो किसान भी खड़ी फसल जला देने को मजबूर हैं.

अब बात नीलगाय की. नीलगाय वास्तव में गाय नहीं हिरन (antelope) प्रजाति का जीव है. गाय से इसका दूर – दूर तक कोई लेना- देना नहीं है. जहाँ तक इन्हें मारने या ना मारने की बात है तो किसान इन्हें कोई शौकिया नहीं मार रहे हैं. जब उनकी आजीविका पर बन आई है तो आखिर वे करें भी तो क्या? सरकार इसके लिए कोई उपाय करने में रूचि नहीं रखती तो किसानों के पास इन्हें मारने के सिवाय और चारा ही क्या है? हम यहाँ शहरों में बैठकर मजबूर किसानों को निर्दयी, हत्यारा कहकर कोसते हुए खुद को वन्य जीव प्रेमी घोषित करने में लगे हुए हैं लेकिन अरहर दाल के सौ रूपये किलो हो जाने पर हैरत भी जता रहे हैं.

२. @प्रवीण पाण्डेय जी,
नीलगाय और जंगली सूअर हमारे पालतू जीव नहीं हैं कि आप उनके गले में रस्सी डालेंगे और उन्हें “जंगलों” में हकाल आयेंगे. ये जंगली जीव हैं और आक्रामक होते हैं. अनेकों लोग इनके हमलों में जान तक गवां चुके हैं. इनसे मुकाबले के लिए भाले, बल्लम और बंदूकों के साथ-साथ काफी हिम्मत की भी जरूरत पड़ती है लेकिन जैसे ही आप इन हथियारों का प्रयोग करते हैं आप पर वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत केस बन जाता है. मतलब किसान जान और फसल तो गंवाए लेकिन मुकाबला न करे. (कई बार तो दिशा-मैदान, खेतों की देखभाल, सब्जियां तोड़ने जैसे कार्य करते हुए भी किसान, महिलाएं और बच्चे हमले का शिकार हो जाते हैं). बाड़ लगाने का खर्च किसानो के बूते से बाहर की चीज है क्योंकि लोहे, स्टील और सीमेंट के आसमान छूते दामों के बीच किसान खाद, बीज और सिंचाई के लिए रकम जुटाए या बाड़ के लिए. वैसे भी साधारण बाड़ इसमें कारगर नहीं होती क्योंकि ये उसे तोड़ देने या फिर फांद जाने की सामर्थ्य रखते हैं.

@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी जी,
ये जीव नेपाल के तराई क्षेत्रों से भाग कर यहाँ आये हैं जो कि यहाँ से २००-५०० कि0 मी० दूर है. ऐसे में ये किसान अपनी खेती बाड़ी देखें या नेपाल की सीमा में जाकर जंगलों को बचाएं. यह एक ऐसी समस्या है जो खड़ी की है वन-विभाग के भ्रष्टाचार और नाकारापन ने और भुगत रहे हैं किसान.
यह कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ लोगों ने जंगल काटकर खेती शुरू कर दी हो. सदियों से यहाँ गाँव आबाद है और खेती किसानी हो रही है जबकि यह समस्या अभी आठ-दस बरस पहले ही शुरू हुई है.

@नीरज गोस्वामी जी,
किसान अपना खेत खुला नहीं छोड़ता बल्कि नीलगाय उसमे घुस आती है. वैसे नीलगाय तो घास छोड़कर अरहर खा लेगी लेकिन आपको पागल कुत्ता काट भी ले तो भी आप घास नहीं खा पाएंगे.

जैसा कि मैंने कहा है कि किसान इन्हें कोई शौकिया नहीं मारता है. वैसे भी ग्रामीण किसान से ज्यादा धर्मभीरू कोई नहीं होता. किसी जीव की हत्या करना किसान पाप ही समझता है और अगर वह जीव “गाय” हो तो तौबा-तौबा!! और सच बात यह है कि यदि यह जीव किसानों का इतना नुकसान करने के बाद भी अभी तक बचे हुए हैं तो यह किसानों कि धर्मभीरूता और इनके नाम के साथ ‘गाय’ जुड़ा होने के कारण ही है. जो थोड़े -बहुत जीव मारे भी जाते हैं तो वे भी मुस्लिम समुदाय (कृपया इसे साम्प्रदायिकता से ना जोड़े) के किसानो द्वारा लेकिन सूअर को वे भी नहीं मारते:)

इस समस्या के समाधान के लिए यहाँ शहरों में बैठकर गाल बजाने के बजाए लोगों को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए. किसान का विरोध कर आप क्या-क्या खाना छोड़ देंगे?? किसान तो अपने खेतों में कुछ न कुछ पैदा कर अपना पेट भर लेगा लेकिन आप चाहे कितना भी पैसा कमाते हों आप पैसे को खा नहीं सकते. अनाज खरीदने के लिए आप किसान पर ही निर्भर हैं और अगर किसान के पास अधिशेष उत्पादन नहीं हुआ तो आप पैसा होते हुए भी भूखे मरने लगेंगे.

कुछ अंग्रेजीदां लोग जिन्हें यह नहीं पता कि आलू जमीन के नीचे होता है या ऊपर, वे यह जान लें कि “पिज्जा” भी मैदे और आटे से ही बनता है.

३. @अमरेन्द्र जी,
जैसा कि मैंने कहा किसान भी इन्हें मारना नहीं चाहता परन्तु वन्य जीव अधिनियम के कारण वह अपनी रक्षा तक करने में असमर्थ हो रहा है. अभी हाल ही में लखीमपुर के जंगलों से एक बाघ निकलकर लखनऊ, बाराबंकी, फैजाबाद होते हुए गोरखपुर तक पहुँच गया. वह जिन क्षेत्रों से गुजरा वह दस पंद्रह दिनों के लिए नीलगायों के प्रकोप से मुक्त हो गया. मेरे कहने का मतलब है कि किसी भी प्रकार का खतरा न होने के कारण यह जीव निर्द्वंद हो गएँ है. यदि इन्हें मारने की इजाजत दे दी जाती है तो कुछ एक के मारे जाने से ये स्वयं ही इन इलाको को छोड़कर भाग जाएँगी और शेष मरने से बच जाएँगी. खेती वाले क्षेत्रों में बिना किसी खतरे और आसान भोजन की प्रचुरता के कारण इनकी आबादी तेजी से बढ़ रही है. ऐसे में एक न एक दिन इनके और मानव के बीच संघर्ष अवश्यम्भावी है. परन्तु तब किसानों के एकजुट और आक्रोशपूर्ण हमलों से शायद इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाये.

४. गिरिजेश भाई, दुकानों से पैकेट बंद राशन खरीदते-खरीदते लोग यह समझने लगे हैं कि सब-कुछ फैक्टरियों में बनता है और किसान तो एक ऐसा जीव है जो इस “माल संस्कृति” वाले समाज पर बोझ बना हुआ है. नीलगाय के लिए मोमबत्ती मार्च को हुलसने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि मोमबत्ती में लगे धागे का कपास भी किसान के खेत से ही आया है.

५. @अभिषेक ओझा जी,
जहाँ तक बात जीव हत्या की है तो मांसाहारी लोग रोज मटन, मुर्गा, अंडे, मछलियाँ और भी बहुत कुछ रोज खा रहे हैं. यहाँ तक कि शाकाहारी लोग अपने घरों में चूहे, काकरोच, मच्छर, खटमल रोज मार रहे हैं. तो यह तो मत ही पूछिए कि क्या-क्या मारोगे?

@अमरेन्द्र जी, मैं स्वयं भी केवल २०० कि0 मी० दूर होने के बावजूद अपने गाँव कभी-कभी और बड़े अंतराल के बाद ही जा पाता हूँ. मैं स्वयं को खुशकिस्मत समझता हूँ कि मैं ग्रामीण संस्कृति से कच्चे धागे से ही सही जुड़ा हुआ तो हूँ परन्तु शहरों में अब ऐसी पीढियां तैयार हो गयी हैं जिन्होंने ग्रामीण जीवन (वह भी अतिरंजित ग्लेमर पूर्ण) केवल सिनेमा और टेलीविजन के रूपहले परदे पर ही देखा है. इन्ही लोगों के लिए अखबारों ने दिल्ली में हुए गन्ना किसानों के प्रदर्शन पर शीर्षक लगाया “BITTER HARVEST,THEY PROTESTED,DRANK,VANDALISED AND PEED”. अब बताईये कि किसान सात सालों से गन्ने के उचित और समय पर भुगतान की मांग कर रहा है- कोई सुनता नहीं, और जब वह दिल्ली आकर प्रदर्शन करता है तो उसके पेशाब करने से दिल्ली गन्दी हो जाती है.क्या किसान अब दिल्ली के लिए इस कदर अछूत है कि वह अपना दुखड़ा रोने भी वहां न आये??

अब इसी पोस्ट पर देखिये- इस समस्या के जितने भी समाधान सुझाये गए उनमें से एक भी व्यावहारिक है क्या? कितने “कैजुअल” तरीके से लोग बाड़ लगाने, दूसरी फसले बोने, नई प्रजाति विकसित करने, जंगलो में हांक देने, खेत खुला छोड़ देने के लिए प्रताड़ना देने और यहाँ तक कि दाल ना खाने की बात करते हैं. लेकिन सचमुच ही दाल न मिले तो लोग क्या खायेंगे- अंडा, मुर्गा, मटन या फिर नीलगाय का गोश्त ?? और यह समस्या सिर्फ अरहर की दाल के साथ नहीं है, सरसों, आलू, सब्जियां तक इस समस्या से पीड़ित है. अब क्या- क्या खाना छोड़ देंगे??

नीलगाय का अस्तित्व जंगलों में ही सुरक्षित हो सकता है मैदानी और कृषि क्षेत्रों में आने से मनुष्य के साथ इसका टकराव टाला नहीं जा सकता. इन्हें वन क्षेत्रों की और धकेलने और वन क्षेत्रों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी वन विभाग उठाने को तैयार नहीं है. खाली हाथों से इन्हें खदेड़ना भी असुरक्षित और ख़ुदकुशी करने जैसा ही है. किसानों को, इन्हें मारकर न तो कोई सुख मिलने वाला है न ही फ़ायदा. फिर वन्य जीव अधिनियम के तहत इन्हें संरक्षित करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि यदि इस जीव का शिकार आर्थिक रूप से फायदेमंद होता तो कानून होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, यह अब तक वैसे ही विलुप्त हो चुका होता- जैसा कि शेर, बाघ, भालू, चीता, कस्तूरी मृग, चिरु आदि के साथ हो रहा है. इन्हें मारने कि अनुमति देने का मतलब यह नहीं है कि किसान इनका अंधाधुंध शिकार करने लगेंगे क्योंकि पीड़ित क्षेत्रों के अधिकांश किसान शाकाहारी हैं और फिर ‘गाय’ होने के कारण इसकी हत्या करने का पाप भी वे नहीं लेना चाहते. इस अनुमति का अर्थ सिर्फ यही होगा कि वे सशस्त्र होकर उन्हें अपने खेतों और अपने क्षेत्रों से दूर खदेड़ने में समर्थ हो जायेंगे. अगर यह जिम्मेदारी सरकार अपने हाथों में लेकर पूरी करे तो भी किसान को क्या आपत्ति हो सकती है. किसान की मांग है कि उसकी समस्या का समाधान हो और जल्द हो – कैसे और किसके द्वारा इस पर विचार करने की शक्ति और सामर्थ्य उसके पास नहीं है.

मेरे आक्रोश का लक्ष्य आप नहीं हैं और न ही मैंने आपकी बात का विरोध किया था बल्कि मैंने आपकी शंकाओं पर स्पष्टीकरण ही दिया था. मेरा इरादा इसे ‘जनवादी’ बनाम ‘मॉल संस्कृति’ की बहस में बदलने का भी नहीं है.

आपके मौन में मेरा कोई हित नहीं है. थोड़े गंभीर, सहानुभूतिपूर्ण और व्यावहारिक सुझावों के साथ सभी आगे आयें क्योंकि यह समस्या सिर्फ किसान की नहीं है, भोजन के लिए किसान पर आश्रित पूरे देश की है.

अपने ई-मेल में यही टिप्पणियां मैं ट्रेस कर पाया। पर मुझे स्वयं समझ नहीं आ हा है कि टिप्पणी गायबीकरण कैसे हुआ! पता नहीं, औरों की भी टिप्पणियां न गायब हुई हों?! मैं यह कम्पैण्डियम टिप्पणियों में पेस्ट करना चाहता था, पर लगता है ब्लॉगर वह अनुरोध एग्जीक्यूट करने में बारम्बार एरर दिखा रहा है। लिहाजा यह पोस्ट की बॉडी में डाल रहा हूं। प्रोग्रामिंग के जानकार इसपर कुछ बता सकते हैं?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

51 thoughts on “अरहर की दाल और नीलगाय

  1. श्री ज्ञान जी, चिट्ठी चर्चा आपकी इस पोस्‍ट की चर्चा हुई है, शायद आप पढ़ न सके होगे :)

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