श्रीश पाठक “प्रखर” का अभियोग है कि मेरी टिप्पणी लेकॉनिक (laconic) होती हैं। पर मैं बहुधा यह सोचता रहता हूं कि काश अपने शब्द कम कर पाता! बहुत बार लगता है कि मौन शब्दों से ज्यादा सक्षम है और सार्थक भी। अगर आप अपने शब्द खोलें तो विचारों (और शब्दों) की गरीबी झांकने लगती है। उसे सीने के प्रयास में और शब्द प्रयोग करें तो पैबन्द बड़ा होता जाता है।
ज्यादतर यह कविता पर टिप्पणी करने के मामले में होता है। बहुधा आप टटोलते हैं अपने से ज्यादा बुद्धिमान लगने वाले पाठक की टिप्पणी को। उसके आस-पास की टेनटेटिव सी टिप्पणी करते हैं – जिससे सरासर लण्ठ न लगें। टिप्पणी भी, लिहाजा, टर्स (terse) लगती हैं वाक्य विन्यास में। पर वे खास मतलब नहीं रखतीं!!! आप ज्यादा चादर तान कर फंसने का जोखिम नहीं ले सकते!
श्रीश सम्भवत: इस टिप्पणी को सन्दर्भित कर रहे हैं। इस कविता में ढेर सारी उर्दू थी। मेरे बहुत पल्ले नहीं पड़ी। पहले टिप्पणी करने वालों से भी बहुत सहायता नहीं मिली। लोग कविता पर ज्यादातर सेफ साइड टिपेरते हैं – दो लाइने कट-पेस्ट कर वाह वाह चेपते हैं। लिहाजा मैने टेंजेंशियल टिपेरा – बड़ी झकाझक टेम्प्लेट है!
स्लाइड शो मे मुखड़े के साथ टेम्प्लेट वास्तव में झकाझक थी! और मैं यह ईमानदारी से दर्ज करना चाहता था।
टिपेरना महत्वपूर्ण क्यूं है? मुझे मालूम है इस प्रश्न का कायदे से समीर लाल को उत्तर देना चाहिये। पर एक बढ़िया कारण बताया है पंकज उपाध्याय ने। उन्होने कहा - आप एक बार ब्लाग पर कुछ टिपिया देते है तो हम बार बार पोस्ट और कमेन्ट पढते रहते है…। असल में मैं भी पुरानी अपनी पोस्टें पढ़ता हूं तो अपने रचे को निहारने नहीं, टिप्पणियां पढ़ने के लिये। टिप्पणियों में बहुत कीमती चीजें मिलती हैं। गद्य लिखने वाले को वैसे भी बहुत वाहवाहियत भरी टिप्पणियां नहीं मिलती! लोगों की सोच के नमूने ज्यादा मिलते हैं।
एक और बात जो मैं लिखना चाहता हूं, वह यह है कि मैं कैसे ब्लॉग पोस्टों पर जाता हूं। मैं फीड एग्रेगेटर से चुनाव नहीं कर पाता। मेरा फीड रीडर (जैसा अमित बार बार कहते हैं अपने बारे में), बहुधा भर जाता है। आप अमित की ट्वीट - Been more than a week since I opened my feed reader – damn its gonna be stuffed full!! देखें।
सो अपना फीड रीडर खंगालने में ही फेचकुर निकल जाता है। यह अवश्य है कि फीडरीडर की पोस्टें पढ़ कर उनपर टिप्पणी करने का भरसक प्रयास करता हूं। मेरे ब्लॉग पर जो रोचक टिप्पणी करते हैं, उनका ब्लॉग कौतूहल वश अवश्य देखता हूं और पसन्द आने पर उसे फीडरीडर में बिना देरी जोड़ लेता हूं। उसके बाद उन्हे पढ़ना और टिपेरना प्रारम्भ हो जाता है। फीड रीडर में एक बार जोड़ने पर ब्लॉग लगभग स्थाई हो जाते हैं वहां। अत: पठन सामग्री भी बढ़ती जा रही है। और कठिन होता जा रहा है पठन प्रबन्धन! यह भी एक कारण है लेकॉनिक टिप्पणी का।
बहुत हुआ मोनोलॉग। पोस्ट लम्बी सी हो गयी है संक्षिप्त टिप्पणी की सफाई देने में। अब चला जाये!

@ श्री Shiv Kumar Mishra जी , ये रही वह टिप्पणी जिसपर आप ' महामना ' का ऐसा अर्थ-विस्तार कर रहे हैं …श्रीश द्वारा — '' सेलियुग / गैटक्रैशीय तरीका / शब्दों से प्रयोग सर्वोत्तम ढंग ढंग से महामना आप करते हैं. उम्दा. और ये लगभग हर पोस्ट की विशेषता है. इतिहास की सबसे बड़ी सेलिब्रिटी से इतना स्नेह-प्रेम रखने वाला खुद भी तो एक सेलेब्रिटी ही होगा….!आपका सफल सफाई-अभियान एक ही साथ व्यष्टि और समष्टि के व्यापक चिंतन का परिणामस्वरूप उपजा यथार्थ-प्रकटीकरण है ''कोई भी यहाँ अगर महामना में मजाक उड़ाना देखे तो यह यथार्थ देखने की अपेक्षा उसके पूर्वाग्रह का आरोपण ज्यादा होगा .. देव जी ( यानी ज्ञान दत्त जी )शब्दों से प्रयोग सर्वोत्तम ढंग ढंग से करते हैं , यह कहना क्या मजाक उड़ाना है ?.. आपकी बात पढ़कर मैंने श्रीश द्वारा देव जी पर की गयी अन्य टिप्पणियों को देखा , कहीं भी मुझे मजाक उड़ाने जैसा नहीं दिखा | ३० oct . की '' देव दीपावली @ '' वाली पोस्ट पर श्रीश की छोटी-सी टिप्पणी है — '' महामना को नमन…'' | कोई चाहे तो अपने पूर्वाग्रह का आरोपण यहाँ भी कर दे .. परन्तु यह संवाद-धर्मिता तो नहीं होगी .. ईगो-धर्मिता भले हो .. हाँ , देव जी ने भी अब तक जो किया है उससे 'महामना' में मजाक के अर्थ-विस्तार का जरा भी स्पर्श नहीं दिखता .. @ ''मुझे पता नहीं कि आपको क्यों लगा कि मैं अंध-श्रद्धा का पक्षधर हूँ.''मेरी क्या मजाल है जो आपको अंध-श्रधा का पक्षधर मानूँ .. मैंने उस प्रक्रिया की बात की जिसमे अंध-श्रधा , प्रश्न-परकता का गला घोटने लगती है .. सवाल अपमान माना जाने लगता है .. ऐसी प्रक्रिया के साथ जो भी हो , उसका स्टैंड गलत कहा जायेगा ..आपसे विनम्र असहमति ..
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महामना पर महासमर तो शायद नहीं होनी चाहिये। हमारे लिये तो यह सम्बोधन पण्डित मदन मोहन मालवीय के लिये आरक्षित है। और उन सा बनने के लिये तो अगले जन्म का सोचना होगा। यह तो निरर्थक जा रहा है! शब्द से तो इण्टेलेक्चुअल खेलते हैं। ब्लॉगर इण्टेलेक्चुअल नहीं होता और अगर होता है तो स्तरीय ब्लॉगर नहीं बन सकता।
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@ शिव कुमार मिश्र जी(आपको जवाब नहीं देना चाहता था पर आपने बाध्य कर दिया) शब्दों का लिजलिजा प्रयोग नहीं करता मै…मुझमे किसी के लिए कितना सम्मान है इसकी स्केल खींचने की जिम्मेदारी/इजाजत मै आपको नहीं दे सकता. "महामना" शब्द में बेईमानी की बू कहाँ से ले आये आप..? मुझे आहत ना करें…असहमति की आवश्यकता का महत्व तो नहीं ही बताना होगा मुझे…! आदरणीय ज्ञानदत्तजी मेरे पितातुल्य हैं..संबंधों का नियमन और संचलन हम दोनों पर ही छोड़ दें..उनकी डांट भी सुन लूँगा और दुलार पर मेरा विशेषाधिकार तो चाह कर भी आप छीन नहीं सकते….!!!
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हम्म्म…तो ये मसला है.इस बीव, श्रीश जी को पढ़ आया हूं.चलो अच्छा है कुछ क्रियाशील मस्तिष्क कार्य पर हैं…
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पहले मैं laconic शब्द का अर्थ तो देख आउं..मैं तो अभी तक iconic, lexicon ही सुने हुए था..
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@ अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठीत्रिपाठी जी, तार्किक प्रश्नों को रखा ही जाना चाहिए. तार्किक प्रश्न न रखे जाएँ, यह मैंने कब कह दिया? इस पोस्ट की बात जाने दीजिये. ज्ञान जी की इससे पहले की पोस्ट पर 'प्रखर' जी का कमेन्ट पढ़िए. जिस तरह से वे ज्ञान जी के लिए महामना संबोधन लिखते हैं, पढ़कर लगता है जैसे उनका मज़ाक उड़ा रहे हैं. कल उनकी पोस्ट पर तमाम लोगों ने उनकी ईमानदारी की प्रशंसा की इसलिए मैंने उनसे यह प्रश्न किया कि महामना जैसे संबोधन में कितनी ईमानदारी है? मुझे पता नहीं कि आपको क्यों लगा कि मैं अंध-श्रद्धा का पक्षधर हूँ.
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अर्से पहले मैं इस विषय पर कुछ बोल चुका हूं। इस पर आलसी काया पर कुतर्कों की रजाई झेली थी। अब देखते हैं कि नया क्या आता है। मेरा विचार है कि छोटी टिप्पणी नए ब्लॉगर का उत्साहवर्द्धन तो कर सकती है…. बाकी लिखकर मैंने वापस डिलीट कर दिया। मैं छोटी टिप्पणियों के पक्ष में नहीं हूं फिर भी मुझे मिलती है तो खुशी होती है।
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यह जरूरी नहीं कि टिप्पणीकर्ता अपनी बात लम्बी टिप्पणी में ही कर सके। जो कुशल और प्रखर हैं वे कम शब्दों में ही कमाल कर जाते हैं। मैं तो संक्षिप्त और loaded comments करने का कौशल ज्ञान जी से नकल करने की कोशिश करता रहता हूँ, लेकिन आजतक नहीं जान पाया इस विलक्षण कला को।मैने बहुत लम्बी टिप्पणियाँ करने वालों को भी भूसा परोसते देख लिया है। एक उदाहरण स्वयं हूँ। :)
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अगर आप अपने शब्द खोलें तो विचारों (और शब्दों) की गरीबी झांकने लगती है, अजी गरीबी तो बाद मै झांके गी अब बताये इन शव्दो को बन्द केसे करुं, एक को पकडता हुं तो दुसरा भाग खडा होता है..
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जहां तक मैंने अपने आप को समझा है (?), वो यह कि अपने मन की बात तो मैं टिप्पणियों में कहता ही हूँ, लेकिन कभी कभी टिप्पणीयों को रोचक बनाने के क्रम मे उनकी लंबाई बढ जाती है। सोचता तो हूँ कि केवल वाह, बहुत बढिया, उम्दा कह कर निकल लूँ लेकिन फिर सोचता हूँ, ऐसा भी क्या कतराना, लिख डालो जो मन में है :) Who cares…. Who cares…. Who cares …. ( Courtesy for Who cares – Gyandutt pandey :-)
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