बहुत से आते हैं। बहुत प्रकार की चीजों को बेचते। विविध आवाजें। कई बार एक बार में सौदा नहीं पटता तो पलटकर आते हैं। वे चीजें बेचना चाहते हैं और लोग खरीदना। जबरदस्त कम्पीटीटिव सिनर्जी है कि कौन कितने मुनाफे में बेच सकता है और कौन कितने कम में खरीद सकता है। विन-विन सिचयुयेशन भी होती है और भिन-भिन सिचयुयेशन भी! यूफोरिया भी और बड़बड़ाहट भी!
वैरियेबल केवल दाम, क्वालिटी, एस्टेब्लिश्ड मार्केट से दूरी या नया प्रॉडक्ट ही नहीं है। तराजू और तोलने के तरीके पर भी बहुत माथापच्ची होती है।
घरों में रहने वाली गृहणियों और बड़े बूढ़ों के पास समय गुजारने की समस्या होती है। बाजार जा पाना उनके लिये कठिन काम है। बहुत महत्वपूर्ण हैं उनके जीवन में ये फ़ेरीवाले।
यह बन्दा नायलोन की पट्टियों के बण्डल ले कर साइकल पर निकला है – पलॉऽऽऽऽग बिन्वालो! »»
ये फेरीवाले सामान ही नहीं बेच रहे – एक बहुत बड़ा सोशल वॉइड (void – gap) भर रहे हैं। अगर एक कानून बन जाये कि ये फेरीवाले वर्जित हैं तो बहुत सी गृहणियां और वृद्ध अवसाद के शिकार हो जायें। आपको नहीं लगता?
मेरे मां-पिताजी के पास इन फेरीवालों का बहुत बड़ा आंकड़ा संग्रह है। बहुत थ्योरियां हैं कि उनसे सामान कैसे लिया जाये।
एक बार हमने तय किया कि गोविन्दपुर बाजार से जाकर सब्जी लाया करेंगे। पैदल चलना भी होगा। पर जल्दी ही समझ आ गया कि हम अपने पेरेण्ट्स के रीक्रियेशन को चौपट किये दे रहे थे। फेरीवालों को जीवन में वापस लाया गया।
बड़ी दुकानें – मॉल बन रहे हैं। नुक्कड़ के किराना स्टोर को कम्पीटीशन मिल रहा है। पर इन फेरीवालों का क्या होगा जी? क्या बिगबाजार फेरीवालों से कम्पीट कर पायेगा? कौन जीतेगा – डेविड या गोलायथ?
मै फेरीवाला हुँ
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"ये फेरीवाले सामान ही नहीं बेच रहे – एक बहुत बड़ा सोशल वॉइड (void – gap) भर रहे हैं"…आपको तनिक देर से पढ़ना शुरु कर रहा हूँ, किंतु आपका विषय-चयन हतप्रभ कर दे रहा है। इन फेरीवालों के बारे में इस तरह से तो कभी सोचा ही नहीं था।
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सतीश पंचम जी की टिप्पणी में मेरा भी नाम जोड़ा जाय..फेरीवाले गाँव की संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा बनाते हैं.. हो सकता है कि शहरी संस्कृति में ठेले पर सब्जी या रेवड़ियां बेचने वाले की अनुपस्थिति नजरंदाज हो जाय, उनकी जगह बिग-बाजार ले ले..लेकिन गाँव में बिसारथिन, ठठेरे, मसलपट्टी, बनारसी लड्डू वाले डिप्लीट नहीं किये जा सकते.. उन्हें होना ही है..भावना कहती है कि डेविड सर्वाइव करेगा/समय की माँग बताती है कि गोलियथ को हराना अब आसान नहीं।
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मुक्त बाज़ार में शायद दोनों ही रह सकते हैं मगर जब किसी एक को प्रशासनिक प्रश्रय मिलता है तो दुसरे का मार्ग कठिन हो जाता है. मसलन सड़क पर फेरी लगाने वालों का चालान कटने लगे, सड़क पर ठेला लगाने की मनाही हो जाए, या कुछ मार्ग केवल पैदल या मोटर वाहनों के लिए निश्चित हो जाएँ, या कोई कैश-रिच कंपनी जानकार लम्बे समय तक घाटा भी उनका बेचा माल सस्ते में बेचने लगे या उन पर भी विक्रय/आय कर देने और बही-खाता रखने की बाध्यता हो जाए तो संपेरों, मदारियों की तरह ही फेरीवाले भी विलुप्त हो जायेंगे. वैसे भी बसावट के बीच में खानाबदोश कब तक टिकेंगे भला? रोमा जातियों का दमन आज भी यूरोप भर में हो रहा है. भारत में भी वन्जारों, गाडिया लुहारों, आदि का हाल कोई बहुत बढ़िया नहीं है.कुछ सालों या दशकों में यदि फेरीवालों को देखने के लिए दिल्ली-हाट जैसी जगहों पर टिकट लेकर जाना पड़े तो आश्चर्य नहीं. यह मसला उठाने का शुक्रिया!
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चमकते माल्स केदमघोटू वातावरणसे दूरनुक्कड़ का"हाट "नई ताजगी दे जाता हैमुझे |मै तो बस इतना ही कहूँगी और ये ही हाट वाले ही और दिन फेरी वाले बन जाते है |इन फेरी वालो में ही "काबुली वाला "भी था |
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