कल यह फिल्म देखी और ज्ञान चक्षु एक बार पुनः खुले। यह बात अलग है कि उत्साह अधिक दिनों तक टिक नहीं पाता है और संभावनायें दैनिक दुविधाओं के पीछे पीछे मुँह छिपाये फिरती हैं। पर यही क्या कम है कि ज्ञान चक्षु अभी भी खुलने को तैयार रहते हैं।
पर मेरा मन इस बात पर भारी होता है कि कक्षा 12 का छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है? … भारत का बालक अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता।

चेतन भगत की पुस्तक “फाइव प्वाइन्ट समवन” पढ़ी थी और तीनों चरित्रों में स्वयं को उपस्थित पाया था। कभी लगा कि कुछ पढ़ लें, कभी लगा कुछ जी लें, कभी लगा कुछ बन जायें, कभी लगा कुछ दिख जायें। महाकन्फ्यूज़न की स्थिति सदैव बनी रही। हैंग ओवर अभी तक है। कन्फ्यूज़न अभी भी चौड़ा है यद्यपि संभावनायें सिकुड़ गयी हैं। जो फैन्टसीज़ पूरी नहीं कर पाये उनकी संभावनायें बच्चों में देखने लगे।
फिल्म देखकर मानसिक जख्म फिर से हरे हो गये। फिल्म सपरिवार देखी और ठहाका मारकर हँसे भी पर सोने के पहले मन भर आया। इसलिये नहीं कि चेतन भगत को उनकी मेहनत का नाम नहीं मिला और दो नये स्टोरी लेखक उनकी स्टोरी का क्रेडिट ले गये। कोई आई आई टी से पढ़े रगड़ रगड़ के, फिर आई आई एम में यौवन के दो वर्ष निकाल दे, फिर बैंक की नौकरी में पिछला पूरा पढ़ा भूलकर शेयर मार्केट के बारे में ग्राहकों को समझाये, फिर सब निरर्थक समझते हुये लेखक बन जाये और उसके बाद भी फिल्मी धनसत्ता उसे क्रेडिट न दे तो देखकर दुख भी होगा और दया भी आयेगी।
पर मेरा मन इस बात पर भारी होता है कि कक्षा 12 का छात्र यह क्यों नहीं निर्धारित कर पाता है कि उसे अपने जीवन में क्या बनना है और क्यों बनना है? क्या हमारी संरक्षणवादी नीतियाँ हमारे बच्चों के विकास में बाधक है या आर्थिक कारण हमें “सेफ ऑप्शन्स” के लिये प्रेरित करते हैं। भारत का बालक अमेरिका के बालक से दुगनी तेजी से गणित का सवाल हल कर ले पर आत्मविश्वास उसकी तुलना में एक चौथाई भी नहीं होता। किसकी गलती है हमारी, सिस्टम की या बालक की। या जैसा कि “पिंक फ्लायड” के “जस्ट एनादर ब्रिक इन द वॉल” द्वारा गायी स्थिति हमारी भी हो गयी है।
हमें ही सोचना है कि “थ्री इडियट्स” को प्रोत्साहन मिले या “वी इडियट्स” को।
पुन: विजिट; ज्ञानदत्त पाण्डेय की –
ओये पप्पू, इकल्ले पानी विच ना जाईं।
बड़ी अच्छी चर्चा चल रही है कि ग्रे-मैटर पर्याप्त या बहुत ज्यादा होने के बावजूद भारतीय बालक चेतक क्यूं नहीं बन पाता, टट्टू क्यों बन कर रह जाता है।मुझे एक वाकया याद आया। मेरे मित्र जर्मनी हो कर आये थे। उन्होने बताया कि वहां एक स्वीमिंग पूल में बच्चों को तैरना सिखाया जा रहा था। सिखाने वाला नहीं आया था, या आ रहा था। सरदार जी का पुत्तर पानी में जाने को मचल रहा था, पर सरदार जी बार बार उसे कह रहे थे – ओये पप्पू, इकल्ले पानी विच ना जाईं।
एक जर्मन दम्पति भी था। उसके आदमी ने अपने झिझक रहे बच्चे को उठा कर पानी में झोंक दिया। वह आत्मविश्वास से भरा था कि बच्चा तैरना सीख लेगा, नहीं तो वह या आने वाला कोच उसे सम्भाल लेंगे।
क्या करेगा भारतीय पप्पू?!

भारत की दशा सचमुच शोचनीय है -यहाँ शायद ही कोई वहां है जिसे जहां होना चाहिए -यहाँ तक कि ब्लागर भी इसका अपवाद नहीं है .
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कल जब थ्री इडियट देख रहा था तो एक कैरेक्टर को देख मन में सवाल उठा कि ये साला 'चतुर रामलिंगम' भी हम लोगों में कहीं न कहीं घर कर बैठा है। ठीक दस साल बाद घूम कर उसी जगह आता है यह देखने कि मेरे और दोस्त मुझसे कहां पहुंचे और मैं कहां तक पहुँचा। बुढापा आने पर लोग जब अपने आप को क्या खोया क्या पाया कि कैल्कुलेशन में लीन कर लेते हैं तो वह एक तरह से चतुर रामलिंगम की जिंदगी जी रहे होते हैं। चेतन ने जब कॉन्ट्रैक्ट साईन किया था तब उसी तरह से साईन किया होगा जैसा हम लोग कोई सॉफ्टवेयर इन्सटॉल करते समय यूसर एक्सेप्टेस पर क्लिक करते हैं कि I Accept. नहीं जानते कि इसी I Accept में कहीं कहीं पर लिखा होता है कि U cannot use this software for Missile making…….any kind of distructive material…. अब तक मैंने बहुत सी फिल्में देखी लेकिन कभी थियेटर में लोगों को फिल्म के अंत में नेमिंग रोल देखने के लिये खडे होकर इंतजार करते नहीं देखा। कल पहली बार थ्री इडियट के खत्म होने पर देखा लोग नेमिंग रोल में देखना चाहते थे कि देखे चेतन भगत का नाम किधर है। फिल्म का ही डायलॉग चस्पा हो रहा है चेतन भगत पर कि काबिल बनो, कामयाबी साली झख मार कर मिलेगी।
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पूरी तरह से सिस्टम की गलती है।सादर श्यामल सुमन09955373288www.manoramsuman.blogspot.com
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बीती ताहि बिसार दे….!देर आयद, दुरुस्त आयद!
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धीरे चलें, सुरक्षित पहुंचे के साथ राजमार्ग पर चलने का प्रयास काफ़ी होता है अपने यहां।काम-धाम तो विकसित देश में भी बहुत बदले जाते हैं शायद। वहां सुरक्षा का एहसास शायद ज्यादा रहता है अपने यहां की तुलना में इसीलिये आत्मविश्वास भी होता है नया काम करने का। अच्छा लिखा!
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मेरा मानना है बच्चो को अपने आप पंख फ़ैलाने दो उड्ने दो . और साथ साथ जो % का चाबुक उनको दिन मे कई बार दिखाया जाता है उस पर लगाम लगे
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बहुत उम्दा विचारधारा प्रवाहित की है..कल ही थ्री इडियट्स देखी और फिर रात्रि भोज पर एक पुराने मित्र से बरसों बात मुलाकात हुई.मेरे दोनों बेटों एक भारतीय बाप की सोच का अनुसरण करते हुए कम्प्यूटर इन्जीनियर हैं और काफी अच्छा कर रहे हैं.मुझे उस भारतीय मित्र के बेटे के लिए भी उम्मीद थी कि बतायेगा कि मेडीकल या इन्जिनियरिंग कर रहा है…जानकर आश्चर्य हुआ कि बी .ए. म्यूजिक में कर रहा है और मेजर ड्रम्स में. समर जॉब्स में न्यूयार्क में किसी होटल में बेहतरीन ड्रम बजा कर नाम कमाया.शायद बाहर आ गये भारतीयों में वह परिवर्तन दिख रहा है मगर भारत में अभी हर हुनर को अनुरुप पारिश्रमिक नहीं मिल रहा..शायद आने वाला समय बदले..काफी हद तक बदला है, अब तो प्रोफेशनल फोटोग्राफर और प्लेयर दिखने लगे हैं.आलेख अच्छा लगा….—ब्लॉग स्वामी के लिए:’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.-सादर, समीर लाल ’समीर’
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एग्री १०० प्रतिशत..दरअसल शिक्षा प्रणाली ही कुछ ऐसी है.. की स्टुडेंट को सोचने का कोई मौका ही नहीं देती..
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प्रोत्साहन पर तो सभी का हक है। थ्री और वी सभी का और समझदारों का भी चाहे वे तथाकथित ही क्यों न हों ?
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प्रवीणजी!चेतन भगत को शायद इस बात के पैसे मिले हो की वो चुपचाप बिना नाम खाम बैठे रहे. चुकी यह बात मिडिया मे उजागर हुई है. “थ्री इडियट्स ने चेतन भगत को इडियट्स बना दिया यह साफ़ जाहिर होता है, तर्क-सगत लेखन है आपका, आभार.शुभकामनाऎ
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