मालगाड़ी के इंजन पर ज्ञानदत्त

footplate1 इलाहाबाद में आती मालगाड़ी, जिसपर मैने फुटप्लेट निरीक्षण किया। नेपथ्य में कोहरे के अवशेष देख सकते हैं आप।

यह कोई नई बात नहीं है। रेलवे इंजन पर चढ़ते उतरते तीसरे दशक का उत्तरार्ध है। पर रेलवे के बाहर इंजन पर फुटप्लेट निरीक्षण (footplate inspection) को अभिव्यक्त करने का शायद यह पहला मौका है।

मुझे अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में रतलाम के आस-पास भाप के इंजन पर अवन्तिका एक्स्प्रेस का फुटप्लेट निरीक्षण अच्छी तरह याद है। उसके कुछ ही समय बाद भाप के इंजन फेज-आउट हो गये। उनके बाद आये डीजल और बिजली के इंजनों में वह पुरानेपन की याद नहीं होती।

पर कल मालगाड़ी में चलते हुये १०० कि.मी.प्र.घ. की रफ्तार पाना; वह भी तब जब मौसम भारी (रात में कोहरा पड़ा था इस क्षेत्र में) हो; बहुत मनभावन अनुभव था। भारी मौसम के मद्देनजर लोको पाइलट साहब पहले तो बहुत आत्मविश्वासी नहीं नजर आये; पर लगभग ३५-४० किलोमीटर का सफर ८०-९० किमीप्रघ से तय करने के बाद वे अचानक जोश में बोले – ई देखो साहब, स्पीडोमीटर १०० बता रहा है।

speedometer 100 kmph स्पीड दिखाता स्पीडोमीटर

मैने देखा – डिजिटल स्पीडोमीटर 100kmph बता रहा था, पर उसका चित्र साफ नहीं आ रहा था। एनेलॉग स्पीडोमीटर "लगभग" 100kmph  बता रहा था, उसका चित्र बाजू में देखें। सौ किलोमीटर की स्पीड लेने के बाद एक स्टेशन पर सिगनल न मिलने पर भी लोको पाइलट साहब पूरी दक्षता से बिना किसी झटके के गाड़ी रोकने में समर्थ थे।

सौ किमीप्रघ की स्पीड लेने के बाद तो लोको पाइलट श्री आर.आर. साहू की वाणी ट्रेन की गति के साथ साथ खुल गई। साथ ही खुला उनका आतिथ्य भी। उनके निर्देश पर उनके सहायक लोको पाइलट ने उनकी पोटली से काजू-बदाम-किशमिश रजिस्टर के ऊपर रख कर प्रस्तुत किये। साथ में क्रीम बिस्कुट भी। उनका मन रखने को एक दो टुकड़े छुये, पर असल में तो मेरा मन उनकी इस आतिथ्य भावना से गदगद हो गया।

मालगाड़ी में WAG9 लोकोमोटिव और BOXN-HL वैगनों के रेक का जोड़ तो मानो संगीत है ट्रेन परिचालन में। और WAG9 इंजन का लोकोपाइलट का कैब तो पहले के इंजनो के मुकाबले बहुत अधिक सुविधाजनक है।

रेलवे के बाहर के व्यक्ति ट्रेन इंजन में चलने को अनाधिकृत हैं। उसमें पाये जाने पर कड़ा जुर्माना तो है ही, मजिस्टेट न जाने कौन कौन रेलवे एक्ट या पीनल कोड की धाराओं में धर ले! लिहाजा आप तो कैब का फोटो ही देखें।

footplate मालगाड़ी के लोकोपाइलट आर आर साहू (कैब में बैठे हुये) और सहायक लोको पाइलट कामेन्द्र

कल लोको पाइलट श्री आर आर साहू और सहायक लोको पाइलट कामेन्द्र को देख कर यह विचार मन में आये कि नई पीढ़ी के ट्रेन चालक कहीं ज्यादा आत्मविश्वास युक्त हैं और पिछली पीढ़ी से कहीं ज्यादा दक्ष। पिछली पीढ़ी के तो पढ़ने लिखने में कमजोर थे। वे अपना पैसे का भी ठीक से प्रबन्धन नहीं का पाते थे। अपनी सन्ततियों को (ज्यादातर घर से बाहर रहने के कारण) ठीक से नहीं पाल पाते थे – उनके आवारा होने के चांस बहुत थे। अब वह दशा तो बिल्कुल नहीं होगी। मेरे बाद की पीढ़ी के उनके अफसर निश्चय ही अलग प्रकार से कर्मचारी प्रबन्धन करते होंगे।

तीन साल की वरीयता का मालगाड़ी चालक 100kmph पर ट्रेन दौड़ा रहा है। क्या बात है! नई पीढ़ी जिन्दाबाद!  

मेरी पत्नीजी का विचार है कि ट्रेन चालकों की घरेलू जिन्दगी में असली परिवर्तन उनकी पत्नियों के पढ़े लिखे होने से आया है। वे पैसे और घर का बेहतर प्रबन्धन करती हैं। कर्मचारियों की घरवालियों से सम्पर्क के चलते उनका यह ऑबर्वेशन महत्वपूर्ण है।

यह पोस्ट देखें – मालगाड़ी या राजधानी एक्स्प्रेस?!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

52 thoughts on “मालगाड़ी के इंजन पर ज्ञानदत्त

  1. आपकी इस पोस्‍ट ने, बरसों पहले कोल एंजिन में की गई, मल्‍हारगढ से मन्‍दसौर तक की यात्रा याद दिला दी। एंजिन में रहते हुए तो कुछ अनुभव नहीं हुआ किन्‍तु उतरने के बाद लगा था कि मैने कुछ अनूठा अनुभव लिया है। हॉं, दर्पण में देखा तो, कोल एंजिन में सफर करने के प्रभाव और परिणाम भी नजर आए। मैं काला-ढुस्‍स हो चुका था।

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  2. पोस्ट तो पहले ही पढ़ ली थी. बस अजय मोहन जी की टिप्पणी ढूंढते-ढूंढते इधर आ गए. उनकी टिप्पणी पढ़कर उत्सुकता हुई. जनता को पुल/सड़क/रेल/बिजली घर आदि का चित्र न लेने से अंग्रेज़ी क़ानून आज भी मौजूद हैं इसका अंदाज़ तो तभी हो गया था जब मैंने अपने अमरीकी मित्रों को भारत में हो रहे परिवर्तन दिखाने की मंशा से दिल्ली मेट्रो के स्टेशन का चित्र लेना चाहा था और एक कर्मचारी ने आकर मुझे टोक दिया था. दूसरी बात यह है कि इंजन तो क्या चीज़ है एक पुलिसवाला चाहे तो एक आम आदमी को प्लेटफोर्म या फुटपाथ पर खडा होने के जुर्म में भी (बिना लिखापढ़ी के) अन्दर कर सकता है. अजय मोहन और पाण्डेय जी से मेरा सवाल यह है कि क्या रेलवे में ऐसे पुरातनपंथी नियमों का विरोध (या फिर अनदेखी at least) शुरू हुई है ताकि ऊर्जा दूसरे ज़्यादा ज़रूरी कामों में लगाई जा सके या नहीं?

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  3. डिवीज़नल रेलवे हॉस्पिटल वाराणसी के अपने कार्यकाल में, यदि मैं किसी वर्ग से घबड़ाता और झुँझलाता था, तो वह वर्ग था ’ लोको रनिंग स्टाफ़ !’ मैं उन कटुताओं को स्मरण करना नहीं चाहता, पर वही मेरे इस्तीफ़े का कारण भी बने ! आज हालात तो बेहतर हैं, पर मानसिकता जस की तस वहीं ठहरी हुई हैं !

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  4. आदरणीय ज्ञानदत्त जी ! ऐसे प्रयोग सिर्फ आप जैसे अधिकारी ही कर पाने की हिम्मत रखते हैं , अधिकतर अधिकारीयों में अपनी शक्तियों के प्रयोग करने मात्र में पसीना आ जाता है ! ऐसा करके आप हमारा ज्ञान ही नहीं बाधा रहे बल्कि रेलवे के साथ भी एक उपकार कर रहे हैं जो अभी तक किसी अधिकारी ने नहीं किया होगा ! अगर कोई चांस हो तो कृपया राजभाषा के सहयोग के खातिर ही सही कुछ ब्लागर्स मीटिंग का आयोजन चलती रेलगाड़ी में हो जाये तो आपकी जय जय ….! आशा है किसी मद में से इसका रास्ता निकल ही आयेगा !

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  5. अच्छे लोग सरकारी सेवाओं में जुडें, उनको काबिलियत के अनुसार वेतन और सुविधाएं मिलें तो क्यूँ सरकारी सेवाओं पर ऊँगली उठेंगी! आप इलाहाबाद की बातें बताते हैं, बहुत अच्छा लगता है!

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  6. ज्ञानजी,सब यही कह रहे हैं, कि भाभीजी का कहना सच है।इस सन्दर्भ में एक लोकप्रिय quotation है।When you educate a man, you educate one person.When you educate a woman, you educate an entire family.यह भी लिखना चाहता था पहली टिप्पणी में लेकिन यह बात छूट गईजी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु

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  7. इंजन के अन्दर से दर्शन हो गए…और बहुत सारी बातें भी पता चलीं…इंजन ड्राइवर्स तो बहुत स्मार्ट लग रहें हैं..हमारी कल्पनाओं से एकदम अलगभाभी जी का कहना बिलकुल सही है…..शिक्षित औरतें ही लाती हैं,घर और बच्चों में बदलाव.

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