आज सवेरे कोहरे में दफ्तर आते समय दृष्यता २५-५० मीटर से अधिक न थी। वाहन अपनी हेडलाइट्स जलाये हुये थे। यह सवेरे १० बजे का हाल था।
पिछले कई दिनों से मेरी सोच कोहरे पर केन्द्रित है। उत्तर-मध्य रेलवे पर कई रीयर-एण्ड टक्क्तरें हुईं सवारी गाड़ियों की। इस बात पर प्रश्न चिन्ह लगने लगे कि हमारे कोहरे के दौरान ट्रेन संचालन के नियम पुख्ता हैं या नहीं? नियम आज के नहीं हैं – दशकों पुराने हैं और कई कोहरे के मौसम पार करा चुके हैं। फिर भी उनका पुनर्मूल्यांकन जरूरी हो जाता है, और हुआ भी।
फिर कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का निलम्बन हुआ। लगा कि रेल अफसरों को अपनी एकजुटता दिखानी चाहिये इस निलम्बन के खिलाफ। कुछ किया भी गया और कुछ आगे करने की योजना भी थी – पर उसकी जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन इस दौरान यह अहसास अवश्य हुआ – रेल अधिकारियों की दशा एयरलाइंस वालों से बेहतर नहीं है। उन्हे मीडिया या जन समर्थन नहीं मिलने वाला।
रेलवे एक अंतर्मुखी संस्थान है। सामान्य समय (और कोहरे जैसी विषम दशा) में रेल अधिकारी या कर्मचारी कितना समर्पण और अनुशासन से काम में रत रहते हैं – यह नहीं पता चलता लोगों को। रेल की छवि देर से चलती गाड़ियों और छुद्र भ्रष्टाचार करते कर्मियों से बनती है, और उसे दूर करना विषम है। दुखद।
कल हमारे मुख्य विद्युत अभियंता श्री आर.के. मेहता ने बताया कि काम के दबाव में पिछले कई दिनों से वे पूरी नींद नहीं ले पाये हैं। दफ्तर से निकलने में रात के साढ़े आठ – नौ बज रहे हैं। रात में नींद से फोन की घण्टी से जागना नियमित हो रहा है। सवेरे भी जल्दी काम प्रारम्भ करना होता है।
अधिकांश हम प्रबन्धक लोग इसी ब्रेकेट में आते हैं।
मौसम की मार ने रेल यातायात में जो विषमतायें उत्पन्न की हैं, उसने निर्णय लेने की और काम के बोझ की जरूरत बहुत बढ़ गई है। अपनी खीझ और कुछ हद तक मौसम के सामने असहायता को हम छद्म हंसी (fake laughter), सहारा दे कर खड़े किये गये साहस, और जोर जोर से बोलने या फोन पर ज्यादा बात करने से दूर करने का यत्न कर रहे हैं; पर हममें से अधिकांश ग्रॉसली अण्डररेस्ट हैं।
पर फिर ऐसे में यह पोस्ट क्यों छाप रहा हूं – बस यूं ही! :-)


देव !निर्दोषों को भी वैसे ही देखते हैं लोग जैसे '' सबै धन बाईस पसेरी '' !वाकही दुखद है !पर अच्छे लोगों की क़द्र करने वाले अभी भी हैं , अवसाद काहे का ?, जैसा कि कुछ टिपैये कहि गए हैं !
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"सामान्य समय (और कोहरे जैसी विषम दशा) में रेल अधिकारी या कर्मचारी कितना समर्पण और अनुशासन से काम में रत रहते हैं – यह नहीं पता चलता लोगों को।" ये तो है !
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स्थितियाँ समझी जा सकती है और स्थितिजन्य अवसाद भी दृष्टगत है लेखनी में.निश्चित ही आप अन्डररेस्ट हैं और फिर ऐसे में पोस्ट क्यूँ लिख रहा हूँ-एक स्ट्रेस से डीस्ट्रेस होने का और अवसादों को अनविन्ड करने का बेहतरीन साधन है…इसलिये और क्या!!जरा मेडीटेशन का अभ्यास भी तनिक करें..आराम लगेगा.शुभकामनाएँ.
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कहते है कि भारत ने बहुत तरक्की कर ली है, लेकिन घने कोहरे से, थोडी बरसात से सब कुछ उलट पलट हो जाता है, अब चाहे वो बसे हो रेलवे विभाग हो या टेली फ़ोन या बिजली महकमा…फ़िर तरक्की कहां हुयी?? सिर्फ़ जिस्म पर कपडो पर?आप का लेख बहुत अच्छा लगा, लेकिन सोचने पर मजबूर हो गया
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दफ्तर से निकलने में रात के साढ़े आठ – नौ बज रहे हैं। रात में नींद से फोन की घण्टी से जागना नियमित हो रहा है। सवेरे भी जल्दी काम प्रारम्भ करना होता है।कोहरा तो आकर चला भी जाएगा, मगर अधिकारियों के ऊपर छाये इस सफ़ेद अँधेरे का हल कब निकलेगा?
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हम तो खुद इस कोहरे के भुगत भोगी है जी !आजकल रोज कोहरे में बाईक से १५० की.मी. की सैर करनी पड़ रही है नोयडा के ताज एक्सप्रेस वे पर तो कोहरे में बड़ा मजा आता है बस थोडा संभल कर चले तो !!
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रेलवे २४ घंटे कार्य करने वाला विभाग है । विशेषकर परिचालन में रात में कई बार न केवल जगने की वरन जगकर जमकर जुट जाने की आदत डालनी पड़ती है । विषम परिस्थितियों में तो दिन रात का पता नहीं चलता है । श्री ज्ञानदत्त जी का कार्य तो कोहरा छटने के बाद और बढ़ जाता है । फिर कोहरा आने तक कितनी और गाड़ियाँ निकाल दी जायें ।
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…पर हममें से अधिकांश ग्रॉसली अण्डररेस्ट हैं।पर फिर ऐसे में यह पोस्ट क्यों छाप रहा हूं – बस यूं ही! :-)आदरणीय ज्ञानदत्त पाण्डेय जी,ब्लॉगर धर्म का निर्वाह किया जा रहा है और क्या …. :)
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मत कहो आकाश में कोहरा घना है,यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.(दुष्यन्त कुमार)कठिन परिस्थितियों में भी जी-जान से कर्त्तव्य में संलग्न कर्मचारियों के अनछुए मानवीय पहलू भी अवश्य उजागर किये जाने चाहिये. हमारी कई अवधारणाएं अनुभव के बजाए पूर्वाग्रह पर आधारित होती हैं.लम्बा अंतराल रहा इस पोस्ट से पहले.
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रेलवे विभाग के लोगों की समस्याओं को तब जाना था पास से, जब मुझे कुछ दिनों के लिए रेलवे बीट पर काम करने का मौका मिला था।
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