ललही छठ

कल ललही छठ थी। हल छठ – हलधर (बलराम) का जन्म दिन। कभी यह प्रांत (उत्तरप्रदेश) मातृ-शक्ति पूजक हो गया होगा, या स्त्रियां संस्कृति को जिन्दा रखने वाली रह गई होंगी तो उसे ललही माता से जोड़ दिया उन्होने।

स्त्रियां इस दिन हल चला कर उपजाया अन्न नहीं खातीं व्रत में। लिहाजा प्रयोग करती हैं – तिन्नी का धान। तिन्नी का धान तालाब में छींटा जाता है और यूं ही उपज जाता है। मेरी बुआ यह व्रत कर रही थीं – उनसे मांगा मैने तिन्नी का चावल। देखने में सामान्य पर पक जाने पर लालिमा युक्त।

तिन्नी के धान के अलावा प्रयोग होता है महुआ। किहनी (कहानी) कही जाती है कि सात रानियां थीं और उनकी सात भैंसें। ललही के दिन भैंसें जंगल में चली गईं। वहां पूजा हो रही थी और महुआ चढ़ा था। उन्होने खाया तो वे गाभिन हो गईं। अगले साल फिर वे जंगल में गईं और इस बार अपने मुंह में प्रसाद (महुआ) ले कर वापस लौटीं। हर रानी के सामने उन्होंने प्रसाद रख दिया। रानियों ने प्रसाद स्वरूप एक एक महुआ लिया। वे सभी गर्भवती हुईं।

बुआ ने हम लोगों को दिया – भैंस के दूध का दही, तिन्नी का चावल और महुआ; प्रसाद के रूप में। और मैं परिचित हुआ कुछ सीमा तक ललही छठ से।

शाम के समय तिन्नी का चावल ही बना। मोटा अन्न। पर संस्कृति प्रकृ्ति से जोड़ता।

मेरी पत्नी जी का कहना है कि छठ, कजरी, तीज, नागपंचमी, गंगा स्नान, गंगा दशहरा, जरई, और इस तरह के त्योहार घर में बन्द नारियों को बाहर का दर्शन कराते रहे हैं। बाहर निकल कर चुहुल, मनोरंजन, हंसी-मजाक उनकी कुंठा दूर करने के बड़े साधन थे/हैं। जो लोग इन सबसे दूर होते गये हैं, उनके पास तो दमित कुंठायें हैं।       

(चित्र ललही छठ के नहीं, त्योहारों के हैं।)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

29 thoughts on “ललही छठ

  1. "स्त्रियां इस दिन हल चला कर उपजाया अन्न नहीं खातीं व्रत में।"पुरुषों ने संस्कृति को सुरक्षित रखने का भार महिलाओं पर डाल दिया :)

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  2. @ मनोज कुमार – सुन्दर कविता जी। जितना संस्कृति के साथ रहें, उतना मस्त रहें।@ प्रवीण – मैने मॉलोन्मुख बच्चों को भी डाला छठ पर भोर में गंगा किनारे देखा था। उस अनुभव को शायद वे कभी न भूलें!@ रंजना – इन त्योहारों को पास से देखने पर जो सुखानुभूति होती है, उसका शाब्दिक वर्णन ठीक से हो ही नहीं सकता!@ निशान्त – पाइरेसी करने वाला देखने के लिये सूदान जाने की जरूरत नहीं, पोर्टब्लेयर तक ही जाना काफी है! :)@ मुकेश तिवारी – बहुत दिनों बाद मिले हम पण्डिज्जी!

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  3. आदरणीय ज्ञानदत्त जी,बहुत ही अच्छी जानकारी मिली…. वैसे यह त्यौहार तो हमारे यहाँ भी मनाया जाता है "हलछठ" के नाम से और इस दिन स्त्रियाँ व्रत रखने के साथ बिना हल से जुता हुआ अन्न ही ग्रहण करती हैं शायद इसके पीछे यही भावना रही होगी कि भगवान बलराम(हलधर) के जन्मदिवस पर उनके शस्त्र हल की पूजा हो सके।शायद यह भी हो कि "हल" जो कि खेती में इतने काम आने के बाद भी किसी एक दिन पूजा जाये।बहरहाल बहुत रोचक अंदाज में प्रस्तुत वर्णन।सादर,मुकेश कुमार तिवारी

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  4. यादव जी के यहाँ तो पूरा छप गया जी पर आप नाराज़ न हों, जो आपके यहाँ कभी टिपण्णी नहीं करते वे भी वहां वाह-वाही ज़रूर करेंगे:)

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  5. ललही छठ ,सुना तो था पर बहुत कुछ जानती नहीं थी इसके बारे में…आपका आभार कि जानने को मिला…अपने समाज में,परम्पराओं में जो भी पर्व त्यौहार समाहित प्रचलित हैं,उनमे लोकरंजन व लोकमंगल के तत्त्व मुझे सदैव ही अभिभूत करते हैं…

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  6. इन त्योहारों के कारण बाहर के दर्शन हो जाते रहे हैं। अब बाहर निकलने की स्वतन्त्रता मिल गयी है तो त्योहारों को भूल रही हैं आज की महिलायें। मेलों और उत्सवों में तो हम सबको आनन्द आता रहा है। अब के बच्चे तो मॉल-प्रवृत्त हो गये हैं।

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  7. ललही छठ….पहली बार सुना पर अच्छी जानकारी मिली..आभार. इसे हम 'उत्सव के रंग' पर साभार देना चाहेंगें. ________________'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)

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  8. सारा जीवन अस्‍त-व्‍यस्‍त है जिसको देखो वही त्रस्‍त है। जलती लू सी फिर उम्‍मीदेंत्योहारों में हवा मस्‍त है।

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  9. @ स्मार्ट इण्डियन – मुझे भी न मालुम होता इस पर्व के बारे में, अगर एक दिन पहले मेरी बुआ न आई होतीं हमारे घर मिलने! @ राणा प्रताप सिंह – ओह, बन्धु, आप तो इलाहाबाद के हैं। और आपकी परम्पराओं पर पकड़ अच्छी है। आपके साथ तो जुगलबन्दी बढ़िया रहेगी! @ राहुल सिंह – आपके लेख तो बहुत गहरे हैं राहुल जी!

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