कानी गदहिया बनाम बैंजनी मूली

नैनीताल के ड़ेढ़ दिन के प्रवास में एक आने की भी चीज नहीं खरीदी। वापसी की यात्रा में देखा कि टेढ़ी मेढ़ी उतरती सड़कों के किनारे कुछ लोग स्थानीय उत्पाद बेच रहे थे। एक के पास मूली थी, दूसरे के पास माल्टे। पीले गोल माल्टे की खटास दूर से ही समझ आ रही थी। वे नहीं चाहियें थे। मूली बैंजनी रंग लिये थी। आकर्षित कर रही थी। एक जगह रुक कर चबूतरे पर बैठे किशोर से खरीदी। दस रुपया ढ़ेरी। दो ढ़ेरी।

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DSC02772अगले दिन (आज) इलाहाबाद में घर पंहुचने पर पूछा गया – क्या लाये? बताने को सिर्फ मूली थी। बैंजनी रंग लिये मूली। मेरी पत्नी जी ने मूली देख एक पुरानी कजरी याद की –

सब कर सैंया गयें मेला देखन
उहां से लियायें गैया, भैंसिया।
हमार सैंया गये मेला देखन
ऊतो लियायें कानी गदहिया . . .

(सबके पति मेला देखने गये। वे खरीद लाये गाय-भैंसें/झुलनी/बटुली/कलछुल/सिंधोरा – सब काम की चीजें। मेरा पगलोट आदमी मेला देखने गया तो कानी गधी (प्रथमदृष्ट्या बेकार चीज) ले कर चला आया!)

इति मम पर्यटनम् फर्स्ट इन्टरेक्शनम्!!!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

21 thoughts on “कानी गदहिया बनाम बैंजनी मूली

  1. जबसे वर्धा आया हूँ तबसे मूली खाने को नहीं मिली। बरसात बीतने के बाद आजकल कहीं दिखायी भी दे रही है तो इतनी बेडौल, बदरंग और बासी कि खरीदने की हिम्मत नहीं हुई। कीमत चालीस रुपये किलो।शुक्र है कि कजरी सुनने को नहीं मिली।

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  2. हा हा … मजा आ गया! अब थोडा रीता आंटी की आवाज में वो कजरी भी हो जाए :)

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  3. आते जाते बहुत बार यह मूली रखी देखी है लेकिन आज तक खरीदी नही . अगले हफ़्ते फ़िर जा रहा हूं तब जरूर ही आपकी पसन्द की बैगनी मूली खरीदुन्गा

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  4. हम जब टूर पर जाते थे, हमें कुछ खरीदने की सख्त मनाही थी।Daily allowance बचाकर वापस आने पर श्रीमति के हाथ में दे देने का सिस्टम बरसों से चल रहा है।अच्छा सिस्टम है। हमें सोचना नहीं पढता क्या खरीदूँ, क्या नहीं।उसे भी विशेष आनन्द प्राप्त होता है बचा हुआ DA खर्च करने का।

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